मानव युग
अर्थात् पशुशक्ति का दोहन
यव (1)
धन के संदर्भ में खाद्यान्नों का उल्लेख आना स्वाभाविक है। वैदिक समाज 10 प्रकार के अनाजों का हवि में प्रयोग करता था। इसका उल्लेख केवल एक बार आया है (मन्दामहे दशतयस्य धासेः द्वियत्पंच बिभ्रतो यन्त्यन्ना, ऋ.1.122.13) पर उनमें से केवल जव का ही उल्लेख ऋग्वेद में बार बार क्यों आता है?
एक दूसरी समस्या अर्थ को लेकर । खाद्यान्नों के विषय में हम पहले कह आए हैं इनका नामकरण जल के पर्यायों में से किसी पर आधारित होना चाहिए। ऋग्वेद में यव का जल सूचक या प्रकाश सूचक कोई प्रयोग नहीं दिखाई देता।
यव और व्रीहि दो ऐसे अनाज हैं जिनका प्राचीन ग्रंथों में खेती के प्रसंग में विशेष महत्व के साथ उल्लेख हुआ है। इन्हें वरुण प्रघास कहां गया है। इसका अर्थ है, वन्य रूप में पाई जाने वाली औषधियों (अनाजों) में ये ऐसी हैं जिनको तैयार होने से पहले नोचने खसोटने पर रोक लगी थी और फिर इनकी खेती विधिवत आरंभ की गई और इस तरह आहार के लिए प्रकृति पर समग्र निर्भरता का दौर समाप्त हुआ।
पार्जिटर ने पुराणों का विवेचन करते हुए यह समझाया था कि गंगा घाटी का इतिहास अधिक पुराना है । ऋग्वेद में हमारे इतिहास की अपेक्षाकृत बाद की सामग्री मिलती है। इसे उसने परंपराओं के विरोध के रूप में प्रस्तुत किया था, परंतु हमारे विश्लेषण में यह प्रमाणित होता है कि आर्यों ने खेती धान से और गंगाघाटी से आरंभ की थी और फिर बाद में वे कभी कुरुक्षेत्र में पहुंचे जहां मुख्यतः जौ की खेती हो सकती थी।
इस विषय में हमारे पास आज पुरातात्विक साक्ष्य तो उपलब्ध है ही भाषाशास्त्रीय साक्ष्य उससे भी अधिक निर्णायक है।हम एक अन्य प्रसंग में यह सुझा आए हैं कि धान की खेती प्राचीन अवस्था में आरंभ हुई थी जब वह अनाज के प्रसाधन के घरेलू उपकरण विकसित नहीं हो पाए थे और भी इसका छिलका नाखून से उतारते थे जिसका सांस्कृतिक दाय अक्षत रूप में आज तक चला आया है। धान को भूलकर उसके धाने या लावे को कूट कर सत्तू बनाते थे और इसे शालिचूर्ण कहते थे।
ऋग्वेद गंगा घाटी की रचना न होकर सारस्वत क्षेत्र की रचना है इसलिए इसमें जौ का उल्लेख महत्व के साथ किया जाए यह स्वाभाविक है। परंतु रोचक बात यह है कि अब जौ से तैयार किए गए सत्तू को को भी शालिचूर्ण कहने लगे, भुने हुए जौ को ही धाना कहा जाने लगा।
ऐसी स्थिति में यव का विशेष महत्व के साथ उल्लेख कुछ वैसा ही है जैसा हाथी, घोड़ा, ऊंट, बकरी, भेड़, भैंस, आदि के उपयोग के होते हुए भी पशुओं में गो प्रजाति का महत्व अधिक था।
पाश्चात्य विद्वान और उनका अनुसरण करने वाले भारतीय इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि ऋग्वैदिक समाज खेती से परिचित नहीं था या नाम मात्र को परिचित था। कारण यह था कि न तो पशुचारण करने वाले एक स्थान पर टिक कर रह सकते हैं और नहीं इसके बिना खेती का काम संभव है, इसलिए उन्होंने यथासंभव कृषि से संबंधित विवरणों को झुठलाने या उपेक्षा करने का लगातार प्रयत्न किया। इनमें हमारे मार्क्सवादी कहे जाने वाले इतिहासकार सबसे आगे रहे हैं, परंतु अकेले उन्हें दोष देना उचित होता जब दूसरों ने इसकी ओर ध्यान दिया होता।
अर्थव्यवस्था को रेखांकित करते हुए, तथ्यपरक और सही अर्थ में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का दावा करने का अधिकार इन पंक्तियों के लेखक को जाता है। ऋग्वेद में कृषि के अनेक प्रासंगिक और मार्मिक विवरण मिलते हैं और सबसे बड़ी बात है जिस यज्ञ का इतना महत्व है वह खेती के लिए कृत्रिम युक्तियों से वर्षा के प्रयोजनों से किया जाता था । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय कृषि में आज भी दिव्य जल का निर्णायक महत्व है। ऋग्वेद के क्छ हवालों पर दृष्टि डालना उपयोगी रहेगाः
यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम, 5.85.3 (जैसे वर्षा से सिंचित हो कर जौ लहलहा उठता है ).
यवं न चर्कृषद् वृषा, 1.176.2 ( जैसे बैलों से जौ की खेती की जाती है).
यवं न दस्म जुह्वा विवेक्षि, 7.3.4 ( जैसे तुम अपनी जिह्वा से जौ का भक्षण करते हो).
यवं वृकेण अश्विना वपन्तौ । 1.117.21
कृषि का आरंभ ऋग्वेद के समय से 7000 साल पहले हुआ था और जैसा कि हम पहले का आए हैं ये कृषि कर्मी अपने को देव कहते थे। इस समय तक उन्हें यह भी भूल गया था कि आरंभिक चरणों पर खेती के लिए क्या-क्या युक्तियां अपनाई गई थी। देव कभी धरती पर थे भी, या उनके पूर्वज अपने को देव कहते थे यह भी विसमृतप्राय ही था, जब की पौराणिक परंपरा में इन तत्वों को अधिक सावधानी से सुरक्षित रखा गया और ऋग्वेद की व्याख्या के नए प्रयत्न में जहां तहां उनका सहारा भी लिया या गया।
परंतु वैदिक और पौराणिक परंपराओं में भिन्नता नहीं है, कोई विरोध नहीं है, अपितु उपलब्ध ऋग्वेद में ऐसी बहुत सी बातें आने से रह गई हैं जो मौखिक परंपरा में बाद तक जारी रही । हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमें जो ऋग्वेद उपलब्ध है वह एक आपदा में, नष्ट हो चुके वेद का किसी तरह जुटाया हुआ अवशिष्ठ भाग ही है, और इसीलिए हमें ऐसा भी सूक्त मिल जाता है जिसमें केवल एक ऋचा बची रह गई है।
इसीलिए वेद के अधिकारी व्यक्ति कहते रहे हैंं कि ऋग्वैदिक सूक्कीतों की सम्यक व्याख्या इतिहास और पुराण के सहारे ही हो सकती है। परंतु यह वेदव्यास के प्रयत्न से संकलित पुराणों से भिन्न है और इसके संकेत तथा आख्यान ब्राह्मणों में तथा संहिताओं में आए है।
आज हम इस ब्योरे में जाने के लिए इसलिए बाध्य हो गए कि यह दिखा सकें कि पश्चिमी विद्वानों ने जानबूझकर या अहंकारवश जो नए अर्थ किए हैं वे निर्णायक अवसरों पर कितने हास्यास्पद हो सकते हैं, या हैं। आज हम आसमान में खेती करने की बात हवाई किले बनाने के अर्थ में करते हैं परंतु ग्रिफिथ के अनुसार यदि खेती का आरंभ हो सचमुच देवों ने किया था तो यह खेती तो आसमान में ही आरंभ हुई होगी और अश्विनी कुमार भी जुताई बुवाई का वहीं काम करते रहे होंगे। पंक्ति हैः
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः, 8.22.6 (बहुत प्राचीन काल में मनु के उपकार के लिए अश्विनों ने आकाश में हल चलाकर जौ उत्पन्न किया था।)
Ye with your plough, when favouring Manu with your help, ploughed the first harvest in the sky. Griffith.
पूर्व्यं दिवि बहुत प्राचीन काल। यास्क ने अपने निघंटु में ऋग्वेद में आए प्राचीन काल के जिन पर्यायों का उल्लेख किया है वे हैं – प्रत्नं, प्रदिवः, प्रवयाः. सनेमि, पूर्व्यं, अह्नाय इति पुराणम्।
यही पूर्व्यं दिवि, उक्त ऋचा में आया है। इसी प्राचीन काल में अश्विनों द्वारा खेती करने का सन्दर्भ यहां मिथकीय कलेवर के साथ प्रस्तुत है जिसका यथार्थ यह है कि 1. यह वह चरण है जहां से हल खींचने के लिए पशुशक्ति का प्रयोग आरंभ हुआ। 2. जिन पशुओं को सबसे पहले पालतू बनाया गया वे थे, अज और अश्व अर्थात् रासभ । अतः यदि पहले रासभशक्ति का प्रयोग किया गया हो तो हैरानी की बात नहीं। 3. वृक या वृक्ण इसी चरण का अविकसित हल प्रतीत होता है। 4. मनु उस क्रान्तिकारी चरण के समाज के प्रतिनिधि है जहां से गोपालन आरंभ हुआ। जैरिज (क्वेटा, पाकिस्तान में, मेह्रगढ़ की खुदाई करने वाले) को प्रमाण मानें तो यह 4500-5000 ख्रिष्टाब्द पूर्व ठहरता है। यह देव युग का अवसान और मानवयुग का आरंभ है।