Post – 2018-05-02

धन के द्योतक कतिपय और शब्द (1)

संतोष तो शब्दों की पूरी विकास यात्रा को रखने से ही होता है परंतु अब तक के अनुभव से हमने पाया कि विस्तार के मोह में चर्चा दो तीन शब्दों की व्याख्या तक सिमट कर रह जाती है, इसलिए आज की पोस्ट में हम अल्पतम हस्तक्षेप करते हुए ऋग्वेद में आए हुए उन शब्दों को रखने का प्रयास करेंगे जिन का अर्थ खाद्य पदार्थ है जो धन का प्राचीनतम रूप था. सभी की उत्पत्ति जल के किसी पर्याय से हुई है इसका हम संकेत मात्र करेंगेः

अज्म
अज का अर्थ जल है इसका आभास आज्य से मिला जाएगा। जल की गति से, चलने वाले प्राणियों का नाम जुड़ा हुआ है जिसमें सबसे पहला स्थान अज का है। जल की गति के कारण अज्म का अर्थ प्रवाह, शक्ति और गति है। रुद्रों के प्रयाण से धरा डर से उसी तरह कांपने लगती है जैसे शत्रु को देखकर बूढ़ा विश्पति कांपने लगे (येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वां इव विश्पतिः । भिया यामेषु रेजते । 1.37.8) । परंतु खाद्य पदार्थ के रूप में भी इसका प्रयोग हुआ है (अज्मं अन्नं, 8.46.28 )।

अद्म
अद् जल है इस विषय में कोई दुविधा नहीं है । सायणाचार्य ने एक स्थान पर या तो संदर्भ विशेष के कारण, या सहज भाव से, इसे बरसात से मिलने वाला पानी (अद्भ्यः – वृष्टिउदकेभ्यो, 2.1.11), और दूसरे स्थल पर इसे अंतरिक्ष से उपलब्ध होने वाला बताया है, (अन्तरिक्षलोकात्, 2.38.11)। अज्म की तरह ही अद्म का खाद्य पदार्थ के लिए प्रयोग होना सर्वथा उचित ही था,पर इसकी व्याप्ति केवल मनुष्य के खाद्य पदार्थों तक सीमित नहीं है अपितु पशु प्राणियों के खाद्य पदार्थों को भी इसमें समाहित किया गया है (अद्मं अदनीयं तृणगुल्मादिकं, 1.58.2).

अंध
वास्तव में अद, उद, अन्न और अंध एक ही ध्वनि के अनुकारभेद हैं और इन सब का प्रयोग जल के लिए होता रहा है (अन्धसः -अन्नस्य, 1.80.6); परंतु इसका प्रयोग सोम रस के लिए विशेष रुप से हुआ है (अन्धसा – सारेण, 5.54.8),

अन्न
अन्न का प्रयोग आज भले हम केवल मनुष्य द्वारा खाए जाने वाले अनाजों के लिए करते हैं परंतु इसका प्रयोग अन्य जीवों द्वारा खाए जाने वाले पदार्थों के लिए भी किया जा सकता था (अन्नं -घासं, 2.24.12)

प्रय/अभिप्रय

हम आज प्राय: और अभिप्राय का प्रयोग जिस अर्थ में करते हैं उस अर्थ में इनका प्रयोग होता भी रहा हो तो भी इनका दायरा संभवत- अधिक व्यापक था। प्रय का जल केअर्थ में प्रयोग पहले हुआ करता था और फिर अन्न के लिए होने लगा (प्रयः – अन्नं, 1.31.7;1.132.3; अभिप्रयः – अन्नं अभिलक्ष्य,1.45.8; हविर्लक्षणमन्न, 1.118.4)

अर्क

अर्क का प्रयोगजल अर्चना से आगे बढ़ते हुए, अन्न, प्रकाश, उद्गार और स्तोत्रों तक अनेक अर्थों में देखने में आता है। (अर्कं – मंत्ररूप स्तोत्रं, 1.62.1; अर्चनीयं अन्नं,1.अर्चनीयं इन्द्रं, 184.4 ;(1.164.24) अर्कसाधनं मन्त्रं, अन्नं, 7.97.5), अर्कैः- अर्चनीयैः स्तोत्रैः(3.31.9, स्तोतृभिः, 6.69.2), अर्कसातौ -अर्चनीयस्यान्नस्य लाभे निमित्तभूते सति,

अव
अव का प्रयोग हम उपसर्ग के रूप में ही करते हैं, यह प्रयोग प्राचीन है (अवः -अवस्तात्,1.83.2, अवस्तात् अवाङ्मंु1.133.6) ) परंतु कुछ स्थलों पर इसका अर्थ अन्न किया है (अवः – अन्नः,3.59.6), अवसा -अन्नेन, 1.185.4)

आय, आयु , वय और वर्चस
आय और आयु के एक ही अर्थ से हम परिचित हैं, इसलिए यह सोच भी नहीं सकते कि कभी इनका प्रयोग अन्न के लिए भी होता था, परंतु हम खाते तो दोनों को हैं, (आयुः – अन्नं, 1.113.16; 3.1.5; आयूंषि – अन्नानि, 2.41.17; जीवनमन्नं, 3.53.7; आयुषि – अन्ने सर्वप्राण्याहारत्वेन, 4.58.11) परन्तु इसका एक अर्थ वायु भी था (आयुः – सततं गता वायुः, 1.162.1) (5.41.2) सततगतिवायुरुच्यते आयुभिः -आयुष्मद्भिः, 5.60.8). इन सबके पीछे जल और उसकी निरंतर प्रवहमानता की अवधारणा है।
हद तो यह कि वय का भी पुराना अर्थ जल और अन्न ही था (वयसः – अन्नस्य, 8.48.1, वयसा- अन्नेन, 2.33.6 ; वयोधाः – अन्नस्यदातारः, 6.75.9 ; वरिवःविदं – अन्नस्य लम्भकं, (4.55.1) धनं, वरिवस्कृत्- धनस्य कर्ता, 8.16.60
और यही हाल वर्चस्व का था। यहां भी जल, प्रकाश, अन्न, तेजस्विता की दिशा में विकासरेखा बहुत स्पस्ट है (वर्चः – अन्नं, 3.8.3; 3.24.1; वर्चसा – तेजसा, 1.23.23).

इळा, इला, इरा

इळा, इला, इरा, का विकास बहुत रोचक है क्योंकि इसमें हमारे इतिहास की महायात्रा में पुरातन स्मृतियों को संजोने के क्रम में एक ही तथ्य को रूपकीय कलेवर देते हुए बाद की पीढ़ियों को स्थांतरित करने के क्रम में जो विचलनें हुईं हैं उनको समझने में यह बहुत सहायक होता है परंतु हम यहां पर उसके विस्तार में न जाकर उन शब्दों के जो अर्थ ऋग्वेद में किए गए हैं केवल उनका उल्लेख करके संतोष करना चाहेंगे (इळया- हविर्लक्षणेनान्नेन, 3.54.20; अन्नेन, 3.59.3; इळस्पतिः – इलाया अन्नस्यपतिः, 6.58.4; इळस्पदे – मनोपुत्र्या गोरूपायाः पदे, 1.128.1; इळा – मनोः पुत्री, 1.40.4; भूमि, 4.50.8) ; गोदेवता, 8.31.4; इळां -अन्नं, 6.10.7; 6.52.16) ; इरस्या- अन्नेच्छया, 5.40.7; इरावती – अन्नवती 7.99.3); इलयत – ईरयत गच्छत, 1.191.6). इलां – एतन्नामधेयां पुत्रीं, 1.31.11; इलाभिः – बहुविधैरन्नै, 5.53.2).
(आगे जारी )