एक सुझाव
हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।
मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।