Post – 2018-04-16

तार्किक औचित्य

“आज का अखबार पढ़ा?”
मैं चुप रहा।
“कल आवेश में जिनके साथ खड़े हो गए थे, उनके साथ रहोगे तो रही सही साख भी मिट जाएगी।”
कुछ कहने का मन न था, पर चुप भी नहीं रह सकता था, “तुम जानते हो, मैं किसी के साथ खड़ा नहीं होता, न अपने को इतना महत्वपूर्ण मानता हूँ कि यह सोचूं कि मेरे कहीं खड़े होने से कोई फर्क पड़ता है । अखबार प्रमाण पर चलते हैं, वे यह भूल कर अपने समय का इतिहास लिखते हैं कि प्रमाण गढ़े भी जाते है, फरेब या यातना से बदलवाए भी जाते है। दहशत इतनी पैदा की जा सकती है कि व्यक्ति क्षणिक एकान्त पाने पर भी, संभावित यातना से बचने के लिए सिर्फ वह कहे जो कहने को कहा गया है।

“मैं इतिहासकार नहीं कथाकार हूँ। मैं तार्किक औचित्य को महत्व देता हूँ और यदि तुमने देखा हो तो इसी आधार पर आप्त माने जाने वाले प्रमाणों को भी खारिज कर देता हूँ। अधिकारी विद्वानों और कोशों में दिए हुए अर्थ को बदल देता हूँ। क्या इस तरह के कुकृत्य इतनी तैयारी से किए जाते हैं, एक ओर प्रमाण तैयार करने के लिए बिना चेहरे के नारे लगाए जाते हैं और दूसरी ओर हत्या के बाद कपड़े धोए और पहना कर कीचड़ में लपेटे जाते हैं और घटना स्थल पर साक्ष्य के रूप में केवल एक बाल मिलता है, रक्त की एक बूंद तक नहीं। बलात्कार का कायिक प्रमाण तक नहीं। फास्ट कोर्ट के द्वारा आनन फानन में अपराधी सिद्ध करके मौत के घाट उतारने का प्रयत्न किया जाता है कि जिरह और बहस में सचाई सामने न आ जाय। मै दूसरी सभी बातें मानता हूं यह भी कि जिस सिपाही को अभियुक्त बनाया गया वह स्वयं परीक्षा में नहीं बैठा पर वह इतनी दूर की सोच कर अपना मोबाइल मेरठ में छोड़ गया था (किसके पास?) और उसके अभिभावक ने झट पहुंच कर परीक्षा केन्द्र के के कार्यभारी को पटा लिया, यह मेरी समझ से परे है। समझ से परे है कि सारे के सारे वकील अपराधी के समर्थन में खड़े हो जाय। महिलाएं बलात्कार के मामले में बलात्कारी के समर्थन में सड़क पर उतर आएं। उनकी इतनी सी मांग कि इसकी CBI जांच हो प्रशासन को इतना आतंकित कर दे कि वह आनन फानन में किन्हीं को दंडित करने पर उतारू हो जाय, यह मेरी समझ में नहीं आता इसलिए मैं अब उनकी गुहार को आजपहले से भी अधिक जायज मानता हूं और अपने को उनकी तरह ही असहाय पाता हूँ। हैरानी होती है कि बिजली का हर्फ सिर्फ मुझ पर क्यों बरसता और उससे तुम्हें गुदगुदी कैसे पैदा होती है! “