Post – 2018-04-14

चेत अब भी चेत

हम इतिहास के एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। शायद ऐसी स्थिति दोनों महायुद्धों के दौर में भी एशिया के लिए नहीं आई थी जितनी आज दिखाई दे रही है। दूसरे महयुद्ध के बाद सारे युद्ध एशिया और अफ्रीका में लड़े गए हैं। इनमें भी जहां भी गोरी कौमें आबाद हैं उन पर आँच नहीं आने पाई है। गोरी जातियों में हई मामूली से मामूली हिंसा की घटना को इतना भयानक बना कर दिखाया जाता रहा है जैसे उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की तुलना में यही सबसे बड़ा अपराध हो । जिन क्षेत्रों में गोरी जातियां हैं उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए। रंगीन जातियां धरती के इतने बड़े भाग को घेरे पड़ी हुई हैं जिनको गोरी जातियों के हाथ में आना चाहिए ।

यह कोई सचेत योजना नहीं है। सचेत योजनाएं उतनी ख़तरनाक नहीं होती। उनकी योजना सर्वविदित होती है इसलिए उनको विफल बनाना या सामना करना कठिन नहीं होता। यह अंतश्चेतना में बना हुआ विश्वास है जो सभी निर्णयों को प्रभावित कर रहा है और आज हम परमाणु युद्ध के लिए दोबारा केवल एशिया के कोने को प्रयोग में लाए जाने की दुर्भावना अमल में आने के कगार पर देख रहे हैं।

यह संकट का एक पहलू है जिसकी ओर मैंने कभी भी संचार माध्यमों को रुख करते नहीं देखा क्योंकि पश्चिमी प्रचारतंत्र की अपराजेयता के आगे बिछे होने के कारण वे सबसे अधिक पश्चिमी दबाव में हैं। पश्चिम के लिए हम हिंदू या मुसलमान नहीं है, एशियाटिक हैं। उनके साझे शत्रु। एशिया को पश्चिम के अधिकार में लाने के लिए उसे एशियाटिकों से मुक्त होना चाहिए। भले यह काम धीरे-धीरे ही हो, परंतु एक-एक करके पूरे एशिया को इस तरह तबाह कर दिया जाए, कि नमूने के तौर पर जितना एशिया बचा रह जाये वह पश्चिम कोई नाता रखे तो शरणागत भाव से ही।

हमारे संचार माध्यम भी सांप्रदायिकता को उभारने, जातिवाद और क्षेत्रवाद को उभारने के काम में जुट कर उनकी योजनाओं के अनुसार ही काम कर रहे हैं जिनको अपना हमदर्द समझ कर कुझ दलों द्वारा अपना सलाहकार बनाया गया है।

बिके हुए प्रचार तंत्र में यह करना कठिन है कब पैसा बोल रहा है और कब आदमी और कब अपने समय का यथार्थ। यह तय करना कठिन है कि सच क्या है और प्रचारित क्या किया जा रहा है। प्रचार की हवा ऐसी प्रखर है कि हर एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए उन्हीं प्रायोजित इबारतों को अधिक जोर से, अधिक आवेशपूर्ण ढंग से, अधिक से अधिक बार और अधिक खतरनाक बनाते हुए प्रचारित करने की होड़ में लगा हुआ है। यह प्रतिस्पर्धा उसी सचाई के दूसरे पहलू को सामने नहीं लाती बल्कि जो बाजार में बिक रहा है उसको अधिक से अधिक उत्तेजक बनाकर अधिक से अधिक खतरनाक बनाने का खेल खेलती है।

सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है बुद्धिजीवियों का प्रचार तंत्र से उठाई गई सामग्री को अपनी ओर से अधिक उत्साह से प्रस्तुत करना और यह मान लेना जो इसमें भाग नहीं ले रहा है वह सचमुच का आपराधिक कुकृतियों का समर्थक है।

यह किसी से छिपा नहीं है अगला वर्ष अगले चुनाव के लिए प्रचार का वर्ष है और इसमें प्रचार तंत्र का जितना जघन्यतम उपयोग किया जाएगा ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैं पहले भी यह कहता आया हूं की सत्ता की राजनीति करने वालों के लिए देश और समाज नहीं, हर कीमत पर सत्ता ही चाहिए ,उनका दल कोई भी क्यों ना हो । इसलिए सक्रिय राजनीति से जुड़ाव बुद्धिजीवी को उतना ही संदिग्ध उतना ही, खतरनाक और सच कहें तो उतना ही कमीना बना देता है, जितना सत्ता की राजनीति में अपना हिस्सा बटाने के लिए मैदान में उतरने वाले लोग

मैं इस बात पर बार-बार जोर देता रहा हूं अपने क्षेत्र का काम छोड़ कर दूसरे किसी क्षेत्र में हस्तक्षेप स्वयं उस क्षेत्र की गतिविधियों के सही संचालन के लिए भी बाधक है और अपने समय का अपव्यय । बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप तभी आवश्यक हो सकता है जब कानून और व्यवस्था की संस्थाएं राजनीति को द्वारा दुरुपयोग में लाने जाए जाने के कारण अपना काम सही ढंग से न कर रही हूं । भ्रष्ठ अधिकारी भी रकजनीतिक समर्थन के अभाव में लंबे समय तक जन प्रतिरोध का सामना नहीं कर सकता। इसलिए संस्थाओं की विफलता के बाद अपने हस्तक्षेप का अवसर आता है और उस समय उसकी शिथिलता दुखद भी मानी जा सकती है। मैं आज की घटनाओं केंद्र में रखकर बात नहीं करना चाहता। हर रोज दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सुनने को मिल रही हैं और उनके प्रति उपेक्षा भाव इस सीमा तक बरता जा रहा है कि उनका सूचना मूल्य तक नहीं रह गया है। जब उनके पीछे कोई राजनीतिक कोण तलाश लिया जाए तब तक उनका सही ढंग से उल्लेख तक नहीं होता।

यह बावला समाज 1 दिन में नहीं बना है। इसको बनाने बालों में कुछ दूर तक हम भी हैं । सबसे अधिक वे जिन्होंने शक्ति और धन को सर्वोपरि मानकर निर्लज्जता पूर्ण ढंग से इनका संग्रह करने का प्रयत्न किया और सर्वोच्च पदों पर रहते हुए प्रयत्न किया कि निर्लज्जता हमारे समाज का चारित्रिक गुण बन गया। अनवरत गिरावट से घबराए हुए समाज को और भी नारकीय स्थिति में डालने का काम उन्होंने किया जिन्होंने नैतिकता को अपनी एकमात्र पूंजी बताते हुए सत्ता में आने का रास्ता बनाया और उन कुकृत्यों में शामिल हो गए।

यह दारुण स्थिति बुद्धिजीवियों से इस बात की अपेक्षा करती है कि वह होश में रहकर संतुलित ढंग से विचार करते हुए, सूचना संग्रह के लिए पर्याप्त समय देने के बाद, इसकी सही जानकारी लेने के बाद, ऐसी भाषा और शैली में, अपनी व्याख्या प्रस्तुत करें जिससे लोग उत्तेजना के बीच सही रास्ते की पहचान कर सके। अगले चुनाव वर्ष के हंगामे के बीच किन-किन जघन्य तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा इसका अनुमान तक नहीं कर सकते, परंतु किया जाएगा इसका पक्का विश्वास है। यदि बुद्धिजीवी विवेक से काम न ले सके, वह चुप भी रहे तो उनका बड़ा उपकार होगा, क्योंकि हंगामे के बीच उनका विचार ही लोगों को सही दिशा दिखा सकता है , परंतु यदि ऐसा ना हो सके तो कम से कम राजनीतिक पक्षधरता छोड़कर वस्तु स्थिति का विश्लेषण करें और स्वयं अपनी साख और समाज के भविष्य की रक्षा करें।