Post – 2018-04-08

लघुता सूचक शब्द – एक

अणु

हमारा विमर्श केवल शब्द तक सीमित नही है. यह भाषा के माध्यम से इतिहास और संस्कृति का भी पुनर्मूल्यांकन है इस लिए बीच बीच में ऐसे प्रसंग आयेंगे जब हम कुछ दायें बाएं हो कर इतिहास और साहित्य की चर्चा भी करेंगे. प्रस्तुत प्रसंग में अणु की सूझ, इस अवधारणा के विकास को समझने के लिए सोम पर चर्चा ज़रूरी लगती है.

सोम – पाश्चात्य अध्येताओं ने कुछ अपव्याख्यायें जानबूझ कर अपनी प्रशासनिक और वर्चस्ववादी जरूरतों से कीं और कुछ उत्साह में आ कर। सोमलता और सोम और सोमरस की उनकी व्याख्या पर दोनों का असर था। यूरोपीय व्यापारियों के पास सौदे के रूप में देने को कुछ नहीं था इसलिए आरंभ से ही नशीले पदार्थों पर उनका जोर था। सुरती (सूरत के अड्डे से भारत में फैलने वाली तमाकू (जिसके ये दोनों नाम दो भिन्न रूपों और प्रयोगों के लिए रूढ़ हुए और बीड़ी (लपेट कर तैयार की गई) तथा सिगरेट और चुरुट (सिगार) भारत में उसी गुण के दावे के साथ प्रचारित की गई जिसका दावा करते हुए वियाग्रा और आनन फानन में यह पूरे देश में राजदरबारों से लेकर मजदूरों और किसानों के बीच तक, महिलाओं पुरुषों दोनों मों फैल गई।भारत में पाए जाने वाले मादक पदार्थों से उन्हें लाभ के स्थान पर हानि हो सकती थी। यूरोप में इनकी खपत बढ़ सकती थी जो अन्तत: मारिजुआना (गांजा), हसीस (भांग) और हेरोइन के कारण बीसवीं शताब्दी में सोवियत समाजवाद का प्रतिरोधी दस्ते की आय का स्रोत बना कर और स्वयं अमेरिका में कम्युनिज्म के प्रति युवकों की रुझान को रोकने के लिए उनको इसका आदी बना कर खपत के लिए चोरबाजार तैयार करके किया गया। अफीम के उत्पादन और व्यापार को अपने नियंत्रण में रख कर चीनियों को इसका आदी बनाकर किया गया।

ऋग्वेद में सोम के मादक पक्ष ने उन्हें इतना उत्तेजित किया कि यदि इसकी पहचान हो जाय और नील की खेती की तरह इसको अपने नियंत्रण में लेकर कारोबार हो तो इसके कारोबार से मालामाल हो जाएँ. अतः सोम के नशीले पक्ष पर एकांत जोर रहा और वानस्पतिक सोम ही केंद्र में रहा।भारतीय अध्येता भी उसी पाले में अपना खेल खेलते रहे. इस बात का भी ध्यान न रहा कि सोमपान के बाद मनुष्य नशे में नही आता, सौम्य होता है. हल्का आलस. यदि आपने खुले आसमान के नीचे सोने के बाद ओस से उत्पन्न अलसता का अनुभव किया हो और उठने के बाद स्नान न कर लिया हो तो आप सोम की मस्ती को समझ ही नहीं सकते, सचमुच सोम पान कर चुके हैं. यही स्थिति तब होगी यदि आप गन्ने के रस में दूध या दही मिला कर छक कर पान करें. गोभिः श्रीणीत मत्सरम – यह लस्सी का आदिम रूप है. हलकी मदालसता, या सौम्यता. अब आप सोमलता के दो रूपों से परिचित हो सकते हैं- चन्द्रलता, चन्द्ररेखा जिसके कारण द्युलोक में स्थित सोम की बात की जाती है और जिसे धारण करने के कारण शिव को सोमनाथ की संज्ञा मिली है। दूसरी है इक्षुलता या गन्ना। अकारण नहीं है कि शिव को गन्हने की पोरियां चढ़ाई जाती हैं। हमारे यहाँ असाधारण गुण वाली ओषधियों को स्वर्ग से लायी गई या टपकी बताया जाता रहा और इसका लाभ गन्ने को मिलना ही था जो मदिन्तम अर्थात मधुमत्तम, सर्वाधिक मधुर रस से भरी लता है और प्रथम साक्षात्कार में यवनों की तरह किसी को अद्भुत साम्य के लिए प्रेरित करता है। इसी का रस तीन तरीकों से निकाला जाता था, एक सिल पर रख कर कूट कर हाथों से मरोड़ कर, दूसरा ओखली में कूट कर हाथो से निचोर कर निकाला जता था और यह कारोबार घरघर होता था, और तीसरा गेडियो को पत्थर के कोल्हू में पेर कर. इन तीनों विधियों का उल्लेख ऋग्वेद के पहले मंडल के २८वें सूक्त में है. परन्तु सोम की दैवी महिमा का जो वर्णन है वह चन्द्रमा पर आधारित है।

चन्द्रमा से ओस कणों के रूप में अमृत झरता है. और इन्ही ओस के सूक्ष्म अदृश्य कणों के कारण सोम को अण्वी कहा गया है। आप को आश्चर्य होगा कि जब चंद्रमा में अमृत भरा हुआ है और वह सुनहला कटोरा है तो फिर यह अमृत छलक कर बाहर क्यों नहीं आता। इतने सूक्ष्म कण कैसे हो जाते है। इसका उत्तर यह कि आकाश में एक अदृश्य छलनी लगी हुई है उसी से छन कर यह अमृत ओषधियों को जिलाने के लिए इतने पवित्र रूप में आता है।

परन्तु हमारा दुर्भाग्य यह कि ऋग्वेद में केवल एक बार अण्वी प्रयोग आया है और वहां सायण ने इसका अर्थ उंगलियाँ किया है।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः ।
अण्वीभिस्तना पूृतासः ।। 1.3.4
‘विचित्र आभा से जगमग इंद्र आओ। मैंने तुम्हारे लिए ही सोम पेरा है और स्वयम अण्वियों से पवित्र किया है ।’ उँगलियों से पवित्र किया है अनुवाद गले के नीचे उतरता नहीं। उंगलियाँ से निचोरा है आशय हो तो सकता है, पर पूत का अर्थ पैदा करना लेना होगा जिससे मुझे विशेष आपत्ति नहीं पर उस दशा में कहीं हाथ के लिए अणु का प्रयोग मिलना चाहिए था जो नहीं मिलता। अंग = हाथ> अंगुली के तर्क से अणु = हाथ होता तो > अण्वी उअगलियों के लिए प्रयोग में आ सकता था।

मोनिअर विलियम्स ने अपने कोश में अण्वी का अर्थ सायण के अनुसार ही किया है परन्तु वह अण्व का अर्थ छननी के सूक्ष्म छिद्र करते हैं और इसका हवाला बिना निश्चित सन्दर्भ दिए ऋग्वेद का ही देते हैं जब कि इस रूप में ऋग्वेद में इसका प्रयोग हुआ ही नही है। ज़ाहिर है उनका तात्पर्य उसी स्थल से है, जिसे सायण ने ऊँगली मान लिया है।

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस अविकसित रीति से गन्ने का रस निकाला जाता था, उसको अच्छी तरह छानने के बाद ही उसका सेवन किया जा सकता था। छननी को अनेक बार पवित्र कहा भी गया है – हरिः पवित्रे अर्षति । कोशकारों ने भी पवित्र के अन्य आशयों के साथ एक अर्थ चलनी किया भी है। इसलिए हम अपनी असहमति को उचित मानते हैं और अणु का अर्थ सूक्ष्म ओसकण मानते है और इसे इसका सबसे प्राचीन संकेत.

छानने के तरीके का उल्लेख भी कर ही दें। सोमरस निकालने का कोल्हू बाद में तेल निकालने के कोल्हू जैसा ही था, नाम उसका भी उलूखल ही था.
यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव ।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥४॥

इस कोल्हू का रस तिरछे छेद से होकर कलश में गिरता था और उसके मुंह पर पवित्र या छानने की जाली होती थी . पवित्र में छिद्र बने होते थे और उनमें ही ऊन भरा रहता था जिससे छन कर रस आवाज करता हुआ नीचे गिरता था अण्वीभि: में बहुवचन का प्रयोग इसकी परतों के कारण लगता है।

यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि में अणु के साथ सूक्ष्मता का भाव बहुत स्पष्ट रुप में आया है।

कण
कण का क्रिया रूप में कोश (आप्टे ) में दिया अर्थ आवाज देना, चिल्लाना, कराहना; २. छोटा होना,; ३. चलना, दिया है और संज्ञा रूप में १. अणु; २. अन्न कण; ३. अल्प मात्रा,; ४. रजकण या पराग धूलि; ५ . पानी की बूंद, छींटा, अम्बु ; ६. भुट्टा और ७. चिंगारी दिया है।

अर्थ सभी सही हैं क्योंकि वे लोक व्यवहार में थे पर क्रियामूल या धातु इन सभी को समेटने में असमर्थ है इसलिए ये सही होते हुए भी भरती के और इसलिए बेतुके प्रतीत होते हैं। इनके बीच तर्कसंगति का अभाव है। यदि इनको ध्यान से देखें तो इन व्याख्याओं में से ही सही मूल भी पता चल जाएगा, तर्कसंगति भी स्पष्ट हो जायेगी और बोलियों में मिलाने वाले आशय भी उसमें सिमट आयेंगे।

ऐसा अनुनादी प्रक्रिया के माध्यम से ही हो सकता है।

कन /कण = जल (कोश में छींटा, बूंद अम्बु आदि दिया ही है इसलिए कोई समस्या नहीं पर वहां एक विभ्रम की स्थिति छोटेपन पर अधिक ध्यान देने के कारण है जब कि अर्थ जल है। कंज= जलज। जल के अभाव में कराहने का आशय उसी तरह जुडा है जैसे तृषा से त्रास और त्राहि, आदि. जल के साथ गति, प्रकाश, और अग्नि ही नहीं ज्ञान और दृष्टि का सम्बन्ध है. इसी तर्क से तमिल का कण – आँख, संस्कृत और हिन्दी की कनीनिका, और निषेधात्मक काना निकला है और द्रष्टा के आस्ग्य में व्यक्तिनाम कण्व और प्रस्कण्व कण्व । पानी से ठण्ड के सम्बन्ध के कारण कनई, खाद्य और पेय के कारण तंडुल, कनक = गेहूँ, चमक के कारण कनक= सोना, कांचन, कांच = शीशा, कांस्य,- कांसे का, और सम्भव है पर जरूरी नहीं कि अभ्रक के कणों के बालू में मिले होने के कारण उनकी चमक के आधार पर उन्हें और फिर बालू के कण के लिएयह प्रयों रूढ हुआ हो और अणुवत का आशय इससे जुडा हो. महाकाव्य के काण्ड, सरकंडे के कांड और खंड और खांड के साथ अवश्य खंडित होने और टूटने का भाव है। यह कड, कल, खड़ की आवाज के साथ टूटने वाले कंकड़, पत्थर से सीधा सम्बन्ध रखता है या इसका सम्बन्ध भी जल से ही है इस को हम अनिर्णीत ही रहने देना चाहेंगे। पर जल के क्षुद्रतम अंश जो वाष्प कण और जलकण आदि में प्रयोग में आते है और जो अणु से इसकी निकटता सिद्ध करते है, उनसे हम परिचित है.

प्रसंगवश महर्षि कणाद के विषय में कोश में दी गई यह व्याख्या कि यह नाम उन्हें अणुवाद के जनक होने के कारण मिला सही नहीं लगता। वह अणु नहीं खाते थे, न उपहास के पात्र थे। वास्तव में साधना के कुछ मार्गों में जैसे उंछव्रतिक, गोव्रतिक,, मत्स्यव्रतिक अदि में विचित्र जीवन पद्धतियों का निर्वाह किया जाता था. मत्स्य वृतिक के अंतिम ज्ञात नमूने देवरहा बाबा थे। उंछ व्रतिक के लिए ही कणाद का प्रयोग होता था, जो फसल काटने के बाद खेत में टूटकर गिरी हुई बालियों को एकत्र करके अपन निर्वाह प्रकृति लभ्य अन्न पर करते थे। जव, गेहूं की बालियों के लिए भी कण (कनक) का प्रयोग होता था इसलिए कण का एक अर्थ भुट्टा या बाली कर लिया गया। मक्का, बाजरा, टांगून आदि हमारे निजी अन्न नहीं हैं और इनमे मक्का तो बहुत हाल में आया है।

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