भाषा पर चर्चा की भाषा या प्रस्तुति का रूप यदि ऐसा हो कि सुनने या पढ़ने वालों को उसे समझने में कठिनाई हो तो इस पर दुबारा सोचने की जरूरत है। जिन लोगों ने इसकी शिकायत की है उनका आभारी हूं। पर यह भी सच है कि फेस बुक पर स्थान की सीमा और विषय विस्तार से पाठकों की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे साथ एक और भी चिन्ता है जिसे बड़ी खूबसूरती से मीर ने पेश किया है:
फुर्सते बूदो बाश यां कम है।
काम जो कुछ करो शिताब करो ।
८७ के पड़ाव पर अस्तित्व और दुनिया में टिके रहने की फुर्सत के कम होने और जितना अब तक किया लगभग उतना ही करने को बाकी रह जाने के कारण हाथ आए काम को जल्दी निपटाने की चिन्ता में भी बहुत सी बातें उतने विस्तार से नहीं रख पाता जो विषय से पूरी तरह अनभिज्ञ लोगों की समझ में आने के लिए जरूरी है। मेरा प्रयत्न होगा कि इस दूरी को कम कर सकूं। पर मेरा सुझाव है कि ऐसे लोगों को भी कुछ प्रयत्न करना चाहिए। मेरे द्वारा प्रयुक्त कोई शब्द समझ में न आए तो मुझसे उसका अर्थ न पूछें, शब्दकोश देखें। अब तो आन लाइन भी शब्दों का अर्थ जाना जा सकता है।
भाषा पर प्रस्तुत चर्चा, पसन्द की संख्या बढाने के लिए नहीं है । इसकी किश्तों को तब तक न पढ़ें जब तक ‘असंपादित’ लिखा है। बिना पूरा पढ़े आनन फानन में लाइक करने वालों के साथ मेरी मैत्री समाप्त भी हो सकती है, इसका ध्यान रखें।
मैं चाहता हूं मेरे वे मित्र जो विश्व विद्यालयों में रहे तो हिन्दी के प्रोफसर हैं पर अपनी उसी योग्यता के दम पर आए दिन देश की राजनीतिक दिशा सुधारने के लिए जुमलेबाजी से ले कर, छिद्रान्वेषी प्रवचन करते रहते हैं वे इस लेख माला में कमियां निकालें जो उनके अधिकार क्षेत्र में भी आता है, जिससे इसकी गुणवत्ता बढे और यदि ऐसा करने की योग्यता नहीं तो शर्म से डूब मरें कि वे अपने विषय को तो जानते नहीं, जिस विषय को जानते नहीं उसमें दखल दे कर लोगों को भ्रमित करते और अपनी साख को दांव पर लगाते हैं। यदि वे सचमुच इस विषय में बहुत कम जानते हैं तो प्रायश्चित्त स्वरूप पूरे मनोयोग से इनको पढ़ें और अपने प्रभाव क्षेत्र में इसका प्रसार करें जिससे उनके छात्र और उन छात्रों के छात्र उन की तरह मूर्ख न रह जायं।
अन्तत: कल की पोस्ट के पहले वाक्य का कुछ खुलासा कर दूं। मेरा आशय था कि तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान भाषाशास्त्रीय सरोकारों से नहीं आरम्भ किया गया था अपितु राजनीतिक और नस्लवादी सरोकारों से आरंभ किया गया था इसलिए आरंभ से ही इसमें फरेब और अर्ध सत्यों का सहारा लिया गया, इसे अकादमिक जालसाजी का मनमोहक नमूना माना जा सकता है। इसकी पड़ताल आगे के लेखों में होनी है।