Post – 2018-03-15

हमारी भाषा (3)

नैसर्गिक शब्द

भाषाविज्ञानियों ने एक विशेष कोटि में आने वाले शब्दों के लिए बहुत सारे शब्दों का प्रयोग किया है – इमिटेटिव, ओनोमैटोपोइक, इको, रिवरवरेटिव, आदि परंतु कोई उस पूरे वर्ग को समेट नहीं पाता जिसकी मैं बात करना चाहता हूं। इसकी एक मोटी परिभाषा मेरे सामने है।

मैं भाषा के कृत्रिम और नैसर्गिक दो स्रोतोंकी बात करना चाहता हूं। पहले इस तरह का विभाजन नहीं किया गया था, परंतु चेतना के स्तर पर यह वर्गीकरण भाषावैज्ञानिकों के विमर्श में बना हुआ था। भाषावैज्ञानिक नैसर्गिक शब्दों की बहुआयामी भूमिका को अब तक समझने में असफल रहे और इसके साथ ही मानव निर्मित या कृत्रिम शब्दों की निर्माण प्रक्रिया को भी नहीं समझ पाए। यह मेरा भ्रम हो सकता है, परंतु यदि कोई जानकार व्यक्ति मेरी भूल सुधार सके तो मेरा काम आसान हो जाएगा। मेरा ध्यान भी इस ओर इसलिए गया मैं भाषा विज्ञान की पुस्तकों और अध्यापकों से दूर रहा। अपनी समस्याओं का हल मुझे अपने ढंग से निकालना पड़ा । शास्त्रीय चर्चा से अधिक अच्छा है कि हम अपने अनुभव की बात करें ।

1968 में दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने के क्रम मैं उनकी शब्दावली का तुलनात्मक अध्ययन किया करता था । इस क्रम में मुझको पता चला उन भाषाओं में ऐसे बहुत से शब्द है, जो संस्कृत से नहीं गए हैं, परंतु हमारी बोलचाल की भाषा में पाए जाते हैं । ऐसा कैसे हुआ यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था । स्थानों में कुछ नाम में पाई जाने वाली समानता मुझे इन को समझने की प्रेरणा देती रहती थी, जैसे उत्तर भारत में सलेमपुर और दक्षिण में सलेम । स्थानों नामों में अधिकांश अटपटे लगते, जिनका अर्थ समझ में नहीं आता। लोगों से जिज्ञासा करने पर, सपाट जवाब मिलता, यही नाम है। इनका कोई अर्थ नहीं है। मुझे ऐसा उत्तर एक भाषाविज्ञानी मित्र से भी मिला । उन्होंने अपने कथन के दृष्टांत में दिल्ली के मुनीरका और उससे सटे चिन्नी मुनीरका का नाम लेकर उल्टा प्रश्न किया, क्या इनका मुनियों से या चीनी से कोई संबंध है। अंतर हमारे दृष्टिकोण में था वह अपनी ज्ञान सीमा में सभी चीजों का उत्तर पा लेना चाहते थे मैं इन चीजों को समझ नहीं पाता था उनको समझने के लिए अपनी जान सीमा का विस्तार करना चाहता था मैं यह मानता था कि निरर्थक कुछ नहीं होता। हमारी एक दूसरे मित्र को भी निधि का अर्थ समझ में आता था जिसके लिए आगरा का प्रयोग होता है अर्थ की दृष्टि से चेन्नई का चिमनी का मिठास से संबंध नहीं है अपितु चोटी की या चूरे से संबंध है चीनी का अर्थ छोटा मुनीरका का अर्थ छोटा मुनीरका। इसके लिए मध्यकाल में खुर्द (क्षुद्र) का प्रयोग किया जाता था । सिरका मुनीरका मुझे मुंडा -मुंडीर- मुंडीरका बदलते हुए मुनीरका बना प्रतीत हुआ। इसका अर्थ था कि प्राचीन काल में यहां पर मुंडा जनों का निवास था। इस क्रम में यह भी पता चला की मध्यकाल में राजस्व के अभिलेखों में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया था वह बहुत प्राचीन भूव्यवस्था में प्रयुक्त होते आए थे। जो भी हो या कुछ बात की बात है स्थाननामों के विषय में मेरी एक धारणा बन चुकी थी।

पहली बार मैंने सोचा था कि यदि मैं भारत के स्थाननामों का अध्ययन करूं तो भारतीय जनों के संचलन की समस्या को समझने में कुछ मदद मिल सकती है। मेरी रुचि अकादमिक प्रोजेक्ट में नहीं थी। मात्र जिज्ञासावश मैं इस समस्या को समझना चाहता था। काम बड़ा था। समय और साधनों का अभाव था। मैंने बड़े परिश्रम से विविध स्रोतों (रेलवे टाइम टेबल, पोस्ट आफिस गाइड, टेलीग्राफ गाइड, सर्वे आफ इंडिया के मानचित्र, गजैटियर्स ) से पूरे भारत के स्थानों का संग्रह किया, उनको अकारादि क्रम में डाला और फिर नामों के बीच जो सर्वनिष्ठ तत्व उसको उसी तरह आधार बनाकर उनका अर्थ समझने की कोशिश करने लगा जैसे किसी समय में संस्कृत आचार्यों ने धातुओं का निर्धारण करके शब्दों का अर्थ समझने का प्रयत्न किया था। काम अधूरा ही रह गया, परंतु व्यर्थ नहीं गया । अधूरा इसलिए रह गया कि मैंने पाया सभी नामों के साथ पानी का कोई न कोई पर्याय जुड़ा हुआ है। यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी । मुझे लगा मुझसे कोई गलती हो रही है। ऐसा कैसे हो सकता है कि सभी स्थानों का नाम पानी से जुड़ा हो। मैं सर्वे आफ इंडिया मानचित्रों को लेकर उन की भौगोलिक संरचना समझने का प्रयत्न करता रहा पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा। पहले मैंने सोचा था नाम बहुत प्राचीन हैं । उन दिनों पानी का कोई कृत्रिम स्रोत नहीं था । सभी को प्रकृति पर निर्भर करना पड़ता । इसलिए उन्होंने अपनी बस्तियां जलस्रोतों के निकट बसाई होंगी, इसलिए जलपरक शब्द उनके नाम के साथ जुड़ गया होगा। परंतु कुछ नाम ऐसे थे जो जल के स्रोत से दूर थे।

मैंने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में अपने अध्ययन के एक अंश का प्रकाशन भी करा दिया था, परंतु इस आशंका के कारण कि कहीं गलती हो रही है, मैंने उस काम को स्थगित कर दिया और आर्य और द्रविड़ भाषाओं के संबंधों को समझने के लिए तैयारी करने लगा ।

आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में मैंने पहली बार यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि हमारी भाषा के सर्वाधिक शब्द उस स्रोत से आते हैं जिसे अनुकारी कहा जाता है। अपने मत को प्रामाणिक बनाने के लिए मैंने संस्कृत धातुओं का विश्लेषण किया और यह दिखाने का प्रयत्न किया कि कुल धातुओं की एक तिहाई ध्वनि, गति और हिंसा से जुड़ी हुई है, जिसकी जरूरत नहीं थी। ऐसा इसलिए है कि बहुत सारे शब्द प्रकृत ध्वनियों के अनुकरण से पैदा हुए हैं।

कुछ उदाहरणों मैंने यह प्रमाणित किया कि एक ही ध्वनि अनेक स्रोतों से पैदा हो सकती है और इन ध्वनियों से इतने अधिक शब्द पैदा हो सकते हैं कि जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। यह मेरी पुस्तकों में आ चुका है इसलिए यहां उसे दुहराने की आवश्यकता नहीं ।

इस काम के बाद मैं वैदिक अध्ययन की ओर मुड़ गया । अब मुझे पता चला हमारी भाषा के आधारभूत शब्द जलपरक हैं। अनेक छोटे-छोटे लेखों में मैंने इसे स्पष्ट करने की कोशिश की परंतु विधिवत विवेचन का समय नहीं निकाल सका। कई तरह की ग्रंथियां काम करती रही हैं। इनमें से एक थी भाषा विज्ञान के विधिवत अध्ययन का अभाव, हिंदी प्रदेश की उदासीनता, मेरे पिछले कामों को समझने में विद्वानों की असमर्थता और बढ़ती हुई उम्र के साथ समय का अभाव। अतः मै इस प्रयत्न में लगा रहा कि कोई ऐसा योग्य तरुण व्यक्ति इसमें रुचि ले जिसमें कार्यक्षमता हो परंतु मेरा यह प्रयत्न बेकार गया। इस काम में मेरी रुचि पागलपन की हद तक है। लगता है यदि यह काम पूरा न हो सका तो मेरा जीवन व्यर्थ गया क्योंकि मैं इसी काम के लिए महाकाल द्वारा निमित्त के रूप में चुना गया हूं। मैं इसे किसी दूसरे को समझा नहीं सकता।

Facebook पर यह उम्मीद थी मेरी मित्र मंडली में कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं जिनकी भाषा विज्ञान मे रुचि हो और आगे चल कर वे अधूरा काम अपने हाथ में ले सके। यह अकेले व्यक्ति का काम नहीं है। मैं जितना भी प्रयत्न करूं अकेले दम पर इसे पूरा नहीं कर सकता। अकेलेपन में अपनी गलतियों तक को नहीं समझ सकता। जो भी हो, जैसा भी हो, जैसे ही बने, यह संभवत मेरा अंतिम प्रयत्न होगा।

मैंने यह कहा था कि ‘नैसर्गिक शब्दों का अर्थ सहज ग्राह्य होता है। नैसर्गिक शब्द से मेरा तात्पर्य ऐसे शब्दों से था जो गढ़े नहीं जाते, सुने जाते हैं, और जिनको अर्थ से जोड़ लिया जाता है। जोड़ना हमारे प्रयास पर निर्भर होता है और क्रिया से संबंधित होता है। क्रिया पर या इसके स्रोत पर वक्ता या श्रोता का नियंत्रण नहीं होता। वह स्रोत प्राकृतिक भी हो सकता है और मनुष्य द्वारा बनाए गए यंत्र से भी पैदा हो सकता है, मनुष्य की अपनी क्रिया से भी पैदा हो सकता है। इसके लिए हमारे मुंह से जो ध्वनि फूटती है वह स्वतः अपने अर्थ (उपादान, क्रिया या उसके गुण) से जुड़ जाती है। ध्वनि एक ही होते हुए भी अलग अलग भाषाई समुदायों के लोगों द्वारा उनकी अपनी भाषा की ध्वनिसीमा के कारण अलग अलग रूपों में सुना जा सकता है और व्यक्त किया जा सकता है। यहां तक कि एक ही भाषाई समुदाय में अलग-अलग अभिव्यक्तियां दी जा सकती हैं जो परस्पर इतनी भिन्न हो सकती हैं जिसकी सीमा नहीं फिर भी किसी को यह बताने की जरूरत नहीं होती कि यह किसके लिए प्रयोग में लाया गया है, क्योंकि अर्थ उच्चारण से सहज भाव से जुड़ जाता है ।

कृत्रिम शब्द में यह बताना या दिखाना जरूरी होता है कि अमुक शब्द का प्रयोग किसके लिए किया जा रहा है
मैं इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करूं तो, पूने हवाई अड्डे पर लिफ्ट का संकेत देने क के लिए लिखा मिला उदवाहन। पढ़कर मुझे हंसी आई । विनोद में सोचा कि इसकी जगह यदि उत्कर्ष लिखा गया होता तो क्या कोई रोक सकता था, और क्या यह उतना ही उपयुक्त शब्द नहीं होता । हां उस दशा में नीचे आते समय इसका नाम निष्कर्ष रखना और मजेदार होता।

कहें, कृत्रिम शब्द एक ठप्पा होता है। उसमें व्यक्त भाव संदर्भित वस्तु या क्रिया से जुड़ा तो होता है, पर उसे ऐसे ही गुण या धर्म वाली दूसरी संज्ञाओं या क्रियाओं के साथ भी जोड़ा जा सकता है। केवल प्रयोगरूढ़ि से ही इसका अर्थ निश्चित हो पाता है। उसके स्थान पर वही काम संज्ञाओं या क्रियाओं को संख्या में बदलकर भी किया जा सकता है। परन्तु उस दशा में उसकी भूमिका संकेतक प्रणालियों जैसी हो जाएगी और वह सीमित प्रयोजनों के लिए ही व्यवहार में आ सकती है।

दोनों में एक अंतर यह भी होता है की कृत्रिम शब्दावली नई शब्दावली का जनन नहीं कर सकती जबकि नैसर्गिक शब्दावली तकनीकी विकास के क्रम में नए भावों और व्यंजनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द भंडार का जनन करने में समर्थ हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो कृत्रिम शब्द किसी यन्त्र से बन कर निकले उत्पाद की तरह और नैसर्गिक शब्द प्राकृतिक जीवों और वनस्पतियों की तरह उत्पादनक्षम होते हैं।