Post – 2018-03-12

हमारी भाषा
हमारे देश की भाषाएं एक दूसरे में घुलती मिलती कैसे अपने वर्तमान रूप में आई हैं इसके बारे में मेरी जानकारी बहुत साफ नहीं है, परंतु इस विषय में मेरी दृष्टि बहुत साफ है कि सभी के तत्व सभी में मिलते रहे हैं । इसका कारण यह रहा है कि सभी भाषाभाषियों के छोटे-छोटे दल उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक बहुत प्राचीन काल से फैले रहे हैं। अतः भाषा ही नहीं, सभी समुदायों की सामाजिक निर्मित में भी अनेकानेक समुदायों की भागीदारी रही है। इसका आभास मुझे स्थान नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने के क्रम में हुआ था। इसको समझने के प्रयास में मेरी जो दृष्टि बनी उससे मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि भाषा विज्ञान का ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन राजनीतिक वर्चस्व की चिंता में उल्टी दिशा में मुड़ गया।

यह बात मैं पहले भी कह चुका हूं कि समाज की रचना और भाषाओं का विकास एक दूसरे से इस सीमा तक प्रभावित रहा है कि अक्सर यह तय करना कठिन होता है कि कौन सा शब्द किस भाषा समुदाय का है। यहां मैं एक उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा । तीन दिन पहले की पोस्ट में अजित वडनेरकर ने हिंदी में चल रही एक प्रवृत्ति के संदर्भ में यह प्रश्न किया था कि आदर सूचक कथन में हमें आपके साथ एकवचन की क्रिया का प्रयोग करना चाहिए या बहुवचन का। लोगों ने इस पर अपना अपना विचार रखा था और अधिकांश की मान्यता यह थी की बहुवचन रूप अधिक सही है।

संभव है उनको लगा हो कि जो प्रयोग सबसे अधिक लोग करते हैं, वह सही है और दूसरा गलत। परंतु किसी प्रयोग की शुद्धता इस बात से तय नहीं की जा सकती कि अधिक लोग किस प्रयोग के पक्ष में हैं। इससे केवल इतना ही तय होता है कि कौन सा प्रयोग भाषा में अधिक लोगों की समझ में आता है या कौन सा अधिक लोकप्रिय है। सही गलत का निर्णय केवल व्याकरण से ही हो सकता है। यह दूसरी बात है कि गलत प्रयोग लंबे समय तक बहुत सारे लोगों के द्वारा चलता रहे तो उसे सही न भी माना जाय तो भी सह्य मान लिया जाता है। वह सुनने वाले को अटपटा नहीं लगता। उदाहरण के लिए आज के दिनों में मैंने भाषा के जानकार माने जाने वाले लोगों द्वारा भी आभिजात्य का गलत प्रयोग होते देखा है – वह ‘अभिजात्य वर्ग के हैं’, जबकि होना चाहिए ‘अभिजात वर्ग के है’, उनमें अभिजात्य पाया जाता है। बहुतों द्वारा प्रयुक्त होने के बाद भी गलत प्रयोग गलत ही रहता है, भले उसे सहन कर लिया जाए।

भाषा में एक ही भाव विचार या वस्तु के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग होता है जिन्हें हम ‘पर्याय’ कहते हैं। इनमें से कोई एक अधिक लोगों की समझ में आता है, या सभी की समझ में आता है और दूसरा या तो आसानी से समझ में नहीं आता या, आता भी है तो, कुछ अटपटा लगता है, क्योंकि उसका यदाकदा ही प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए हम ‘वजन’ और ‘भार’ को ले सकते हैं। सामान्यतः हम पूछते हैं, ‘इसका वजन क्या है?’, न कि ‘इसका भार क्या है?’ परंतु अधिक लोग कहते हैं, ‘यह चीज भारी है’ न कि ‘वजनी है’। कहें व्याकरण की दृष्टि से दोनों प्रयोग सही हैं, परंतु एक का संज्ञा रूप अधिक प्रचलित है तो दूसरे का विशेषण रूप।

‘प्रचलित’ और ‘अल्प प्रचलित’ के बीच अंतर यह है कि बहुत प्रचलित का प्रयोग करने वाला उस भाषाई समुदाय का व्यक्ति प्रतीत होता है, जबकि अल्प प्रचलित का प्रयोग करने वाला बाहरी या अजनबी। यहां तक की यदि किसी भाषिक परिवेश में गलत प्रयोग प्रचलित हो तो उसमें सही प्रयोग करने वाला ही अजनबी प्रतीत होता है। उत्तर प्रदेश में सामर्थ्य का प्रयोग स्त्रीलिंग में किया जाता है जबकि मध्य प्रदेश में इसका प्रयोग पुल्लिंग में किया जाता है, जो कि सही है। उत्तर प्रदेश में सही बोलने वाला पहचान में आ जाएगा कि यह बाहरी है, मध्यप्रदेश में गलत बोलने वाला पकड़ा जाएगा और ऐसा भी लगेगा कि इसे हिंदी का सही ज्ञान नहीं है।

इसलिए कुछ भाषाविदों का विचार है कि सही गलत व्याकरण से निश्चित नहीं होता, लोक व्यवहार से होता है। यदि गलत प्रयोग स्वीकार्य है और इससे अर्थभ्रम नहीं पैदा होता तो इसे लेकर कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। यह उदारता गैरभाषाई समुदायों में किसी भाषा की लोकप्रियता को बढ़ाती है और व्याकरण की दृष्टि से साधु न होते हुए भी इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता या इसे भाषा की आंचलिक शैली मान लिया जाता है।

सरकारी तकनीकी शब्दावली में गलत कुछ नहीं है, परंतु इसमें सबसे बड़ी गलती यह थी इसमें प्रचलित शब्दों के लिए नए शब्द बनाए गए जिनकी जरूरत नहीं थी। हमारी बोलचाल की भाषा में यदि पहसे कोई आसान और प्रचलित शब्द है, तो लोग नए शब्दों की जरूरत नहीं अनुभव करते हैं। नया शब्जाद गढ़े जाने के बाद भी उसी का प्रयोग करना पसंद करते हैं। किसी भाषा में किसी भाव या वस्तु के लिए पहले से प्रचलित शब्द के लिए किसी भी कारण नया शब्द गढ़ना भाषाई हिंसा है जो भाषा तक सीमित नहीं रहती, उस भाषाई समुदाय के मन में भी क्षोभ पैदा करती है, भले यह शान्त जल में पड़ी कंकड़ी की तरह यह बहुत मामूली प्रतीत हो। सरकारी हिंदी के प्रति सामान्य जनों के क्षोभ से हम इसे समझ सकते हैं।

इसका एक कारण यह है #नैसर्गिक शब्दों को छोड़कर गढ़े हुए शब्दों का सहज अर्थ नहीं हुआ करता। अर्थ उस पर आरोपित किया जाता है, जिसमें यह जानना जरूरी होता है, इसका प्रयोग अमुक शब्द के लिए हो रहा है। अर्थात्, इसका सीधा संबंध निर्दिष्ट वस्तु या क्रिया से नहीं होता अपितु उस शब्द से होता है जिसे यह स्थानांतरित करता है। यदि यह उससे आसान हुआ तो पिछले शब्द को स्थानांतरित कर देता है, यदि कठिन हुआ तो पिछला शब्द इसके लिए चुनौती बना रहता है और लोगों को इसे सीखने के लिए बाध्य किया जाता है तो उनके मन में एक दबा प्रतिरोध बना रह जाता है।

उदाहरण के लिए हम ‘दफ्तर’ के लिए ‘ऑफिस’ का प्रयोग करने लगे और फिर दफ्तर और ऑफिस दोनों को छोड़कर कार्यालय शब्द गढ़ा गया। परंतु कार्यालय का अर्थ कारखाना भी हो सकता है, अर्थ की दृष्टि से दोनों में कोई अंतर नहीं है। ‘कार्यालय‘, ‘दफ्तर‘ और ‘ऑफिस‘ दोनों की तुलना में उच्चारण में दुष्कर है और आकार में दोनों से लंबा भी है, बोलने, सुनने और लिखने में उनकी अपेक्षा अधिक समय लेता है। इससे एक विचित्र स्थिति पैदा होती है – लिखते समय हम कार्यालय लिखते हैं परंतु बोलते समय ऑफिस या दफ्तर बोलते हैं । हिंदी में लिखित भाषा और बोलचाल की भाषा का यह अंतर बहुत उलझन पैदा करता है। इससे अहिंदी भाषियों की हिंदी सीखने की कठिनाई बढ़ जाती है। आप कह सकते हैं जिस तर्क से दफ्तर के होते हुए ऑफिस का प्रचलन हुआ उसी तरह इन दोनों के स्थान पर हिंदी के लिए कार्यालय शब्द क्यों नहीं रखा जा सकता। यहां हमसे एक भूल होती है । दफ्तर की जगह आफिस शब्द नहीं आया, एक भाषा की जगह है दूसरी भाषा आई, जिसमें यह शब्द पहले से प्रचलित था और व्यवहार से यह हिंदी का भी शब्द बन गया, क्योंकि हिंदी में पहले से इस संस्था के लिए कोई शब्द नहीं था और अब इसकी जरूरत नहीं थी, क्योंकि हिंदी में इसके लिए पहले से शब्द अपनाए जा चुके थे। कार्यालय भाषा की जरूरत नहीं थी, शुद्धतावादियों की जरूरत थी, जबकि भाषा शुद्धतावादी नहीं होती, व्यावहारिक होती है।

यहां प्रश्न सम्मान सूचक क्रियापद का था। प्रश्न यह था कि पत्रकारों में यह नई प्रवृत्ति देखी गई है कि वे बहुवचन क्रियापद का प्रयोग नहीं करते या कुछ लोगों ने यह नई प्रवृत्ति आरंभ की है। प्रश्न यह नहीं है कि यह सही है या गलत, अपितु यह प्रशंसनीय है या नहीं। कोई भाषा का किस रूप में प्रयोग करता है इस पर हमारा अधिकार नहीं लोगों को गाली देने से रोक नहीं सकते केवल उनके बारे में बना सकते हैं। मेरा अनुमान है कि यह पश्चिम की नकल है जिसमें आदर सूचक संबोधनों को पिछड़ेपन का सूचक माना जाने लगा हैऔर सीधे नाम से संबोधन को अधिक लोकतांत्रिक और आधुनिक समझा जाता है। हमें इसकी आदत नहीं है या अधिकांश लोग अभी सामंती मानसिकता से बाहर नहीं आए हैं, इसलिए उनको यह और अशोभन प्रतीत होता है। यहां टकराव सांस्कृतिक प्रक्रिया का है स्वतंत्रता के बाद हमारे समाज में सामंतवादी मूल्यों की वापसी हुई है और लोग अपने बच्चों के लिए भी आदर सूचक संबोधन का प्रयोग करते हैं, यह उच्चतर जीवन की आकांक्षा के साथ जुड़ा हुआ है। ऐसा पहले नहीं था, कम से कम स्वतंत्रता के आंदोलन के दौर में नहीं था। हमारे गांव देहात में भी यह नहीं था। हमारे विपरीत पश्चिमी जगत में यह मनोवृत्ति पहले थी लोकतांत्रिक चेतना के विकास के साथ इसमें लगातार कमी आई है।

‘आप जाते हो‘, या ‘आप जाते हैं‘, यहां दो बातों पर ध्यान देना होगा। यह कि ‘आप‘ कहने के बाद क्या बहुवचन की क्रिया लगाना जरूरी है। संस्कृत में प्रचलित है सम्मान प्रकट करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जाना चाहिए, सम्मानित व्यक्ति अकेला होते हुए भी बहुत सारे लोगों के बराबर है, आदरे बहुवचनं। यह कब आरंभ हुआ यह हम नहीं जानते। कम से कम वैदिक भाषा में इसकी जरूरत नहीं समझी गई है । उसमें आदर के लिए बहुवचन का प्रयोग नहीं मिलता। ऋग्वेद में भवान् शब्द का भी प्रयोग नहीं हुआ है। विचारणीय यह है संस्कृत में आदर सूचक सर्वनाम कहां से आया ? मैं जिस बोली को भारोपीय भाषा की आदि जननी मान्यता हूं उसमें आदर सूचक संबोधन कम से कम मेरी जानकारी में नहीं था अब पाया जाता है। जैसे हिंदी में ‘तू‘‘, ‘तुम‘ और ‘आप‘ का प्रयोग करते हैं ठीक इसी तरह तमिल में ‘नी‘, ‘नींगल‘ और ‘तांगल‘ का प्रयोग होता है। संस्कृत में तू के लिए कोई शब्द नहीं पाया जाता । सामान्य स्थितियों में भवान् का प्रयोग नहीं किया जाता। सम्मान जताने के लिए अलग से,‘देव‘. ‘देवि‘, ‘राजन्‘, आदि का प्रचलन रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि हमारी बोलियों में सामाजिक स्तरभेद संस्कृत की अपेक्षा अधिक गहरा है। इसका मतलब है आदर सूचक सर्वनाम और क्रियारूपों का बहुवचन प्रयोग बोलियों में और आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत से नहीं आए, आदरे बहुवचनं संस्कृत पर बोलियों का प्रभाव है।

अब तमिल आदि में आदरार्थक प्रयोग को देखते हुए हम यह कह सकते हैं की आधुनिक बोलियों में आदरार्थक बहुवचन और क्रियारूप द्रविड़ बोलियों में से किसी के प्रभाव के कारण आया है। ऐसा सोचना इसलिए भी सही लगता है कि आधुनिक बोलियों में नी के स्थान पर तू, नींगल के स्थान पर तुम और तांगल के स्थान पर आप समानांतर पाया ही जाता है, क्रिया रूप में भी दोनों में बहुवचन के प्रयोग में आते हैं । द्रविड़ भाषाओं में यह अधिक नियमित है और इस का तार्किक आधार भी अधिक मजबूत है वहां अमहत और महत का भेद चलता है। इसी के अनुसार उसका लिंग विधान भी है। संस्कृत में और आधुनिक बेोलियों में लिंग व्यवस्था द्रविड़ से आई लगती है । संभव है इसकी जड़ें और पीछे जाती हों परंतु वह वहां तक मेरी गति नहीं है। कोरियाई और जापानी भाषा में तो आदरार्थक काइतना अधिक प्रयोग होता है एक स्थिति में आदर सूचक दूसरी परिस्थितियों में अनादर सूचक हो जाता है इसलिए शिक्षक सलाह देते हैं कि जब तक भाषा पर बहुत अधिकार न हो जाए तब तक आदरसूचक संबोधनों का प्रयोग न किया जाए।