परिशिष्ट
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मेरी कोई बात पूरी नहीं हो पाती इसलिए पिछली पोस्टों में भी कुछ जरूरी बातें कहने से रह गईं। पहली पुरुषसूक्त के संबंध में है। अधिकांश लेखकों ने इसे ब्राह्मणों की शरारत से बाद में जोड़ा हुआ माना है। अकेले अंबेडकर इसके अपवाद है जिन्होंने दूसरी परंपराओं में ऐसी कथा के प्रचलन को देखते हुए इसे न केवल पुराना माना है, अपितु इसकी बहुत मार्मिक व्याख्या की है।
कुछ यूरोपीय अध्येताओं ने इसकी भाषा को देखते हुए इसे नया तो माना है, पर स्कैंडिनेवियन पुराणकथाओं में भी इससे मिलती कथा के कारण अपनी समझ से इसकी कथावस्तु को प्राचीन, अपनी परिभाषा के संयुक्त भारोपीय काल का माना और जातीय स्मृति में उसके बने रह जाने के कारण बाद में रचित सिद्ध करते रहे। अांबेडकर जी ने भी उसका अवलोकन किया होगा और उसी के आधार पर यह मान लिया था कि सृष्टि कि ऐसी व्याख्यायें दूसरे आदिम समाजों में भी रही हैं। वह आर्य जाति और आर्य आक्रमण को गलत मानते थे और इसे स्वीकार करने के लिए ब्राह्मणों पर व्यंग्य भी करते थे इसलिए अधिक अच्छा रहा होता कि वह मानते यह कथा या व्याख्या पश्चिम में संस्कृत भाषा की तरह भारत से स्कैंडिनेविया तक फैली थी। पर ऐसा तभी हो सकता था जब यज्ञ की उस प्रकृति को उन्होंने समझा होता। वेद पर इतना समय लगाने के लिए उनके पास न था।
यज्ञपुरुष, यज्ञ स्वयं भी, अग्नि का मूर्तीकरण है, यह तथ्य ऋग्वेद के दसवे मंडल के ही अनेक सूक्तों में बहुत स्पष्ट है। पुरुष सूक्त का पुरुष सहस्राक्ष है । अग्नि सहस्राक्ष हैं, “सहस्र अक्षभि: विचक्षे अग्ने” (१०.७९.५); पुरुष सहस्रशीर्ष है, तो अग्नि का मुख सभी दिशाओं में है “विश्वत: प्रत्यक् असि” (वही) । लेकिन सबसे जीवन्त है “विश्वत: चक्षु: उत विश्वत:मुख: विश्वत: बाहु: उत विश्वत: पात् । सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रै: द्यावा भूमिं जनयन् देव एक: ।” (१०.८१.३) इस सूक्त में अग्नि को विश्वकर्मा कहा गया है और उनके तीनों धामों का भी उल्लेख है, “या ते धामानि परमाणि या अवमा या मध्यमा विश्वकर्मन् उत इमा।” (१०.८१.५)।
इससे अगले सूक्त का वर्ण्यविषय (देवता) ही विश्वकर्मा है और ” विश्वकर्मा विमना आत् विहाया धाता विधाता परम् उत सन्दृक्” (१०.८२.२)। कहने का तात्पर्य यह कि भौतिक उत्पादन की चिन्तारेखा कैसे विश्वब्रह्मांड की सृष्टि से जुड़ती है और इस पर निरंतर ऊहापोह चलता है, जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति नासदीय सूक्त में देखने को मिलता है। पुरुष सूक्त इसी चिन्ताधारा की एक कड़ी है न कि प्रयत्नपूर्वक घुसाई हुई चीज।
इसका ऐतिहासिक महत्व यह कि यूरोप पर्यन्त वैदिक व्यवहार भाषा का प्रसार इसकी रचना के बाद तक होता रहा है जिसका प्रमाण स्कैंडिनेवियाई परंपरा है।
दूसरी कड़ी का संबंध पहल के अभाव से है। विशेषज्ञता के क्षेत्रों में कमाल हासिल करके जीविका उपार्जन करने वाले उस दशा में कैसे संतुष्ट रह सकते थे जब कि उनको मात्र जीवन यापन के ही साधन उपलब्ध थे जब कि उन्ही के उत्पादों से व्यापार वाणिज्य करने वाले मालदार हो जाते थे। ऐसा नहीं है कि संपत्तिसंग्रह और संपदा के स्रोतों पर अधिकार में चूक जाने के बाद अपने उत्पाद का उचित मूल्य पाने की भी उनमें इच्छा का अभाव था। उन्होंने समय समय पर अपने गिल्ड बनाए, विपणन का काम भी संभाला परन्तु वे पैसे के लिए उस आनन्द को छोड़ नहीं सकते थे जो उन्हें अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र से मिलता था। अपनी अल्पतम जरूरत पूरी हो जाने के बाद धन दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति का उनमें अभाव था । यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी कवि,कलाकार, संगीतकार से कोई कहे कि वह अपनी रुचि के क्षेत्र को छोड़कर दूकान कर ले तो जितना कमाता है उससे कई गुना कमा सकता है। पहल और विषज्ञता, डकार और आह्लाद के इस अन्तर को, प्रतिभा और पहल के इस द्ववन्द्वात्मक संबंध को समझना जरूरी है। व्यापारिक श्रेणियों की विफलता का भी यही कारण रहा होगा।