Post – 2018-02-22

पुरुष सूक्त

भारत सभ्यता का बीजारोपण ही कृषि उत्पादन के रूप में नहीं हुआ था, इसके साथ सामाजिक अनुभवों और कार्यों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने और बाद की पीढ़ियों को हस्तान्तरित करने की एक विधि का भी विकास हुआ था, परिघटनाओं का मानवीकरण या सजीवीकरण करने की विधि। इससे उनमें रोचकता आ जाती थी। सुनने सुनाने की रुचि पैदा हो जाती थी, इनके रूपकीय कलेवर को तोड़ सत्य तक पहुंचने के लिए तरह तरह से व्याख्या करने की प्रवृत्ति पैदा होती थी जिसने आगे चलकर साहित्य के रसास्वादन का रूप लिया और उस चरण पर मिथकों के वास्तविक और कल्पित कथाओं का साहित्यभंडार तैयार किया।

मानवीकरण – घटनाओं, कार्यों, प्राणियों, प्राकृतिक सत्ताओं तक का मानवी- या जैवीकरण – के पीछे सर्वात्मवादी सोच का भी हाथ था या नहीं, यह हम नहीं जानते। पर यह जानते हैं बादलों के विविध रूपों का मानवीकरण – वृत्र, शंबर, चुमुरि, धुनी, अराव्ण, कुयव किए गए, तो पवन की गतियों के अनुसार ग्यारह रुद्रियों की कल्पना कर ली गई, साल के बारह महीनों के सूर्यों के लिए बारह आदित्य कल्पित हो गए, तब तक ज्ञात खनिज द्रव्यों (वसु) के लिए आठ वसु कल्पित हो गए। इस सोच में छन्द भी पशु बन जाते हैं, वाहन बन जाते हैं, रक्षक बन जाते हैं, और गायत्री छन्द को पक्षी (श्येन) का रूप धारण कर सोम को चुरा कर लाने को उड़ जाती है और वापसी में सोमरक्षक गंधर्वों का तीर लगता है तो बेचारी का एक पंख ही कट कर गिर जाता और पर्णवृक्ष बन जाता है। जो भी हो, यदि यह मनोग्राही कलेवर न होता तो बिना कहीं दर्ज किए सुदूर अतीत में घटित घटनाओं को पांच सात हजार साल तक संजोया नहीं जा सकता था। यह काम जितने बड़े पैमाने पर इस देश में हुआ उतने बड़े पैमाने पर अन्त्र कहीे नहीं।

मिथकीय कलेवर में लिपटे इतिहास का नाभिकीय सत्य जानने के लिए इल कलाविधान को, इसके इस अनूठे व्याकरण को समझना जरूरी है । इसी के चलते कृषिकर्म को यज्ञ कहा गया और फिर यज्ञ का मानवीकरण किया गया। वामन और बलि की एक पुरान कथा में हमने बताय था कि विष्णु वनस्पतियों की जड़ों में छिप जाते हैं, और उन्हें भूमि को खोद खोद कर निकाला जाता है। एक अन्य कथा में यज्ञ का सिर काटने का हवाला है, कटे सिर का जो रस (ध्यान रहे कि इसमें रक्त की बात नहीं की गई है) था वह झट पानी में प्रवेश कर गया और उसी से रासभ पैदा हुआ। जिस अधभूले रूप में याद आ रहा है: यो यज्ञस्य शिरो अच्छिद्त, तस्य रस: द्रुत्वाप: प्रविवेश, सो रासभो अभवत।

जब हम पुरुष सूक्त को कृषिक्रान्ति का आख्यान कहते हैं तो साथ में यह भी जोड़ना चाहते हैं क्रान्ति के चरित्र को समझने में भी हम से गलती होती रही है। मेरी समझ से क्रान्तियां सत्ता का परिवर्तन नहीं है जिन्हें एक झटके में पूरा किया जा सके। ये व्यवस्था परिवर्तन हैं, जिनके लिए सत्ता का समर्थन या सहयोग जरूरी नहीं होता। सत्ता को बदलने के लिए भी शक्ति का प्रयोग जरूरी नहीं होता। क्रान्तियां एक झटके में पूरी नहीं हो पातीं, पर इनके प्रभाव से वे भी बचे नहीँ रह पाते जो किसी कारण यह ठान लेते हैं कि वे इनका विरोध करेंगे।

एेसा न होता तो कृषिक्रान्ति के हजारों साल बाद अनेक समाज आहारसंग्रह की अवस्था में न रह जाते। क्रान्तियों के भीतर कई तरह की उपक्रान्तियां अपरिहार्य बन कर आती है और उसे सुदृढ़ करती हैं। आज की औद्योगिक क्रान्ति का पहला चरण यान्त्रिक था, दूसरा इल्क्ट्रिकल और तीसरा इल्क्ट्रॉनिक चौथा रोबोटिक होने के कगार पर है। इन चरणों के पूरा होने में बहुत कम समय लगा है क्योंकि गति तेज होती चली गई है। यन्त्रयुग से पहले उपकरण या औजारयुग था जिसमें उत्पादन में व्यक्ति की अपनी प्रतिभा, कौशल और अध्यवसाय की सक्रिय भूमिका थी इसलिए काम के साथ सर्जनातमक आनन्द जुड़ा हुआ था जिसे यन्त्र ने नष्ट कर दिया। अब यह खोज, आविष्कार और यन्त्रनिर्माण (टूलमेकिंग) तक सीमित रह गया है। शेष लोग यन्त्र के सजीव पुर्जे बन जाते हैं।

पुरुष सूक्त कृषिक्रान्ति (जिसे नवपाषाण क्रान्ति भी कह लिया जाता है पर उसमें अव्याप्ति दोष है जो इसकी उपक्रान्तियों को नहीं समेट पाता) पूर्णता के चरण की रचना है। हम प्रयत्न करेंगे कि इसकी प्रत्येक ऋचा के उस भाव तक पहुंचें जिसको बहुगम्य बनाने के लिए मिथकीय रूपविधान का सहारा लिया गया है और फिर अन्त में समाहार करते हुए उन आन्तरिक क्रान्तियों का संकेत करें जिन्हें इसकी देन कहा जा सकता है।

इसकी पहली ऋचा है
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥१
इसमें सहस्र का अर्थ असंख्य है। असंख्य लोग, असंख्य हाथ, असंख्य पांव इस यज्ञ में जुटे हुए है, इसका प्रसार पूरी धरती पर हो चुका, इतना सब होने के बाद भी यह दश अंगुल में सिमटा हुआ है।
इसमें दशांगुलता को समझने के लिए तीन समीकरणों पर ध्यान देना होगा:
१. विष्णु का वामन रूप
२. यज्ञो वै विष्णु:
३. अग्नि: वै विष्णु: ।
त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतां असि त्वं विष्णु: उरुगायो नमस्य:।
त्वं ब्रहमा रयिविद ब्रहमणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरन्ध्या ।। २.१.३
यदि मैं कहूं वह अग्नि ही जिससे झाड़ झंखाड़ को जला कर कृषि के लिए जमीन की सफाई की जाती था विष्णु है, वही यज्ञ भी है। आग से आग लगाने का आयोजन (यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा: तानि धर्माणि प्रथमानि आसन) एक बार लग जाने के बाद इसका तेजी से फैलना विष्णु का लंबे डग भरना है, और आग लगाकर आगे चलकर अग्नि के ही धरती पर उसके अाग के रूप में, तेजस्वी/प्रतिभाशाली व्यक्ति में, प्रतापी व्यक्ति में, ओषाधियों मे, काठ में, पत्थर में अव्यक्त रूप (ऋं.२.१.१), और अन्तरिक्ष में इन्द्र के रूप में और आकाश में सूर्य के रूप में विद्यमान होने के कारण, इसे विष्णु के तीन कदमों में तीनों लोकों को नापने के रूपक में ढाला गया।

उरुगाय का अर्थ है लंबे डग भरने वाला। वह विष्णु जिसके विषय में कहा गया है समूल्हं अस्य पांसुरे, सारा जगत उस विष्णु के पांवों की धूल पर निर्भर है, वह आग बुझन् के बाद की वह राख है जो अग्निदेव या विष्णु के धरती पर बढ़े चरणों से पैदा हुई है। आरंभ में इसी में बीज बोए जाते थे जो झूम खेती में हाल के दिनों तक चलता रहा ।

इस दशांगुलता में विष्णु के वामन रूप की आवृत्ति है मानें या सूर्य के धरती से दृश्य आकार को यह निर्णय आप स्वयं करें । सूर्य ही है जो धरती की परिक्रमा करता है और फिर भी इससे दूर अलग, छोटा सा दिखाई देता है – व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ।। 7.99.3

कुछ लोगों को इससे परेशानी हो सकती है कि क्या वैदिक समाज को यह पता था कि धरती गोल है और सूर्य इसकी परिक्रमा करता है। ऐसे लोगों से निवेदन है कि वैदिक समाज में कई स्तरों के लोग और उनके विश्वास प्रचलित थे पर एक स्तर ऐसा भी था जिसके लोगों को यह भी पता था कि धरती और आकाश दोनों विविध गतियों से घूमते हैं – विवर्तेते अहनी चक्रिया इव – भले उनका ध्यान इस ओर ग्रहों का निरीक्षण और साल दिनों के छोटा बड़ा होने पर ध्यान देने के कारण आया हो।

अन्न ही सबका पालन करता है, वही समस्त (जीव) जगत को संभाले हुए है इसलिए जो पहले था आगे होगा सब इसी में समाए हुए है, यही अन्न पर पलने वाले सभी प्राणयों की दीर्घजीविता का कारण है:
पुरुष एव इदम् सर्यवं यत् भूतं यत च भव्यम्। उत अमृतत्वस्य ईशानो यत अन्नेन अतिरोहति॥। २

यदि दूसरे मंडल के पहले सूक्त में वर्णित अग्नि की सर्वव्यापकता पर ध्यान दें इस ऋचा की
पहली अर्धाली का आशय अधिक स्पष्ट हो जाएगा।
आज तो इतना ही।