Post – 2018-02-19

वेद की समझ

पुरुष सूक्त पर बात करने के लिए वेद की जानकारी जरूरी नहीं। करोड़ों को वेद का नाम ही इसलिए पता होगा कि इसमें ब्राह्मण को परम पुरुष के मुख से उत्पन्न और शूद्र को उसके पांव से उत्पन्न बताया गया है। इन करोड़ों में मुख्यत: ब्राह्मण और शूद्र आते हैं और गौणत: दूसरे आते हैं। ऐसे ब्राह्मणों के लिए यह सूक्त ऐसा तोष देता है कि यदि उनका वश चले तो पूरे वेद को नष्ट भी होने दिया जाय, केवल यह सूक्त बचा रहे तो कोई फर्क न पड़ेगा। शूद्रों के लिए यह इतने रोष का विषय है कि यदि उनका वश चले तो वे इसके कारण पूरे वेद को उसी तरह आग के हवाले कर दें जैसे मनुस्मृति काे एक आयोजन में किया था, और ऐसा करने पर कोई क्षति न होगी। वास्तव में यदि पुरोहिती की जरूरतें न होतीं तो पढ़े लिखे ब्राह्मण तक यामायन सूक्तों और सूर्या सूक्त तक से परिचित न होते। ब्राहमणों की रुचि संस्कृति, धर्म और शास्त्र में केवल व्यावसायिक रही और राजनीतिक हो चली है, और इसलिए इनकी मुक्ति का एक ही उपाय है, इन्हें ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त करना। यह कहते हुए मुझे इसलिए भी पीड़ा हो रही है कि मेरे अघिकांश मित्र ब्राह्मण ही हैं (फेस बुक पर तो उनका अनुपात और भी अधिक है), जिन्हें इस टिप्पणी से ठेस पहुंच सकती है, परन्तु यदि चुनाव सभ्यता, संस्कृति और मित्रों की भावना के बीच करना पड़े तो वरीयता पहले को ही दूंगा।

मैंने क्यों यह प्रश्न उठा दिया इस प्रसंग में? इसलिए कि जैसे भाषा को अपने अधिकार में रखने के लिए उन्होंने सचेत रूप में दुरूह बनाया उसी तरह वेद आदि में रहस्यमयता और कर्मकांडीय पक्ष पर उनका ध्यान अधिक रहता है क्योंकि इसमें किसी बोध या निष्कर्ष पर पहुंचने की भले संभावना न हो, ‘इसमें कुछ है’ जपते हुए डूबते उतराते रहने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए ऋग्वेद का भौतिक पक्ष उनको वेदों का अवमूल्यन लगे तो मुझे हैरानी न होगी। रोचक बात यह कि यही अपेक्षा उन पाश्चात्य अध्येताओं की भी रही है जो कुतर्क का सहारा ले कर इसकी अंतर्वस्तु को नष्ट करके इसे एक पिछड़े, भावुक, कुहाच्छन्न और अन्तर्मुखी समाज की रचना सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं।

मार्क्स के प्रति गहन आदरभाव के बाद भी मै यह कहने का दु:साहस करता हूं कि जब वह क्रान्ति की बात कर रहे थे तब उनका ध्यान सत्ता के चरित्र और इसके परिवर्तन पर अधिक था, क्रान्ति की अन्त:शक्ति और गतिकी पर नहीं था। यह बात पुरुषसूक्त को समझने से पहले नहीं कह सकता था। चाइल्ड, जिनका हम जिक्र कर आए हैं, के सामने तो लगता है कृषिक्रान्ति का कोई स्पष्ट खाका भी नहीं था। इसका जैसा मार्मिक चित्रण ऋग्वेद में हुआ है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।

मेरा यह कथन कुछ लोगों को खींच तान लग सकता है, परन्तु मैं एेसे लोगों को यह नहीं समझा सकता कि जैसे औद्योगिक क्रान्ति ने तकनीक, विज्ञान, सूचना, कला, संवेदना और समग्र जीवनशैली को किसी न किसी पैमाने पर उन सुदूर अंधेरे कोनों मे दुनिया से कट कर रहने वाले लोगों तक को प्रभावित किया जो पहली नजर में इससे किसी संपर्क तक में नहीं दिखाई देते, ठीक वैसी ही सर्वव्यापी हलचल और परिवर्तन, बौद्धिक और आत्मिक ऊर्जा का वैसा ही उन्मोचन कृषि क्रान्ति ने की और ऋग्वेद उस क्रान्ति को मूर्त करने वाला सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख है। ऋग्वेद को कभी किसी ने इस दृष्टि से देखा ही नहीं, स्वयं मैंने भी नहीं क्योंकि मेरा ध्यान पहले इसके व्यापारिक महाजाल पर अधिक केन्द्रित था जो कृषिक्रान्ति का वैसा ही प्रतिफलन था जैसे औद्योगिक क्रान्ति का पूंजीवाद।

ऋगवेद का भी एक अन्य सूक्त जो कृषि क्रान्ति का, जिसे क्रान्ति न कह कर यज्ञ कहा गया है, जितना आह्लादकारी रूपकीय आख्यान है वैसा दूसरा कोई नहीं। हां, जिस सर्वव्यापी प्रभाव की बात हमने औद्योगिक क्रान्ति के विषय में कही है वैसे ही बहुसूत्री और सर्वव्यापी प्रभाव का अंकन उसमें(१०.१३०)में अवश्य हुआ है:
यो यज्ञो विश्वत: तन्तुभि: तत एकशतं देवकर्मेभि: आयत:।
इमे वयन्ति पितर: य आययु: प्र वय अप वय इति आसते तते।।
पुमान् एनं तनुत उत् कृणत्ति पुमान् वि तत्ने अधि नाके अस्मिन्।
इमे मयूखा उप सेदु: ऊँ सद सामानि चक्रु: तसराणि योतवे।।

परन्तु उसमें समस्त विश्व प्रसार को समेट लिया गया।

हमारे सामने इस समय दो समस्यायें हैं, एक यह कि मैं यह विश्वास दिला सकूं कि मैं किसी आवेश में, कोई बात सूझ जाने के कारण खींच तान कर इसे कृषि क्रान्ति नहीं बना रहा हूं, अपितु कृषियज्ञ ही पूरे ऋग्वेद में अन्तर्ध्वनित है और उसे कोई भी लक्ष्य कर सकता है। दूसरा उस सर्वव्यापी प्रभाव और परिवर्तन का ब्यौरा दूं जिसके कारण इसे क्रान्ति की संज्ञा देने का लोभ संवरण न कर सका।

पहले के विषय में निम्न तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा:
१. इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि यज्ञ ऋग्वेद का केन्द्रीय विषय है और जैसा हम कह आए है यज्ञ का अर्थ है उत्पादन।
२. यज्ञ की वेदी ही समस्त जगत की नाभि है। वही धरती का (जिसका अर्थ खेती योग्य भूमि है) अन्त है। वेदी उर्वरा भूमि है। कहें यज्ञ की वेदी समस्त कृष्य भूमि का प्रतीक है। आगे जाकर कर्मकंडीय यज्ञ का भी संबंध कृषि से जोड़ा गया – यज्ञ से बादल बनते है, बादलों से हुई वृष्टि से खेती होती और अन्न पैदा होता है, और उससे समस्त जगत का पालन होता है – अन्नात भवति भूतानि पर्यजन्यात अन्न संभवः। यज्ञात भवति पर्जन्य: यज्ञः कर्म समुद्बव:। कहें यज्ञ कृषि उत्पादन है, और अपने व्यापक अर्थ में सभी तरह के उत्पादन काे समाहित कर लेता है।

३. वैदिक समाज का सबसे बड़ा शत्रु सूखा, मौसम का विपर्यय, और इसी को रूपकीय जामा देते हुए इन्द्र और वृत्र संघर्ष चलता है। जल चुरा कर भागने वाले बादलों से इन्द्र के युद्ध करने और जल बरसाने को विवश करने का विवरण ऋग्वेद के सूक्तों का विषय बन कर आता है।

(जारी)