भारतीय समाज
हमारी समस्याओं का जवाब किसी किताब में नहीं लिखा है, उनसे कुछ दृष्टियों से मिलती-जुलती समस्याओं के जवाब अवश्य किताबों में मिल जाएंगे। जरूरी नहीं कि वे सही हों या पूरे हों। हमारी समस्याएं, दूसरों से भिन्न होती हैं, और इनका समाधान हमें ही ढूंढ़ना होता है। जरूरी नहीं कि जो समाधान हम तलाशें वे सही हों, या उनके परिणाम हमारी अपेक्षा के अनुरूप हों।
इतिहास में समाधान केवल समझ के स्तर पर होता है। गुत्थियों के सलझने के रूप में। अंधेरे में रौशनी पड़ने की तरह। इसका आरंभ छूटी हुई कड़ियों की तलाश या उपलब्ध समाधानों के बेतुकेपन की पहचान और इस जिज्ञासा से होता है कि क्या ऐसा हुआ हो सकता है? यदि नहीं तो क्या रहा हो सकता है? या जो बेतुका लगते हुए भी वास्तविकता है वह किन परिस्थितियों में संभव हुआ हो सकता है?
हमारा प्रश्न यह है कि यदि आर्य विरुद वाला समुदाय इतना डरा हुआ था, तो सभी प्रकार की संपदाओं पर उन्होंने ऐसा अधिकार कैसे कर लिया कि अपने से ताकतवर वर्ण को भी अपना उपजीवी बना कर रख सकें, या अपने से अधिक चालाक लोगों को अपना आश्रित बना कर रख सकें? इससे भी रोचक यह कि जो उसके आश्रित या उपजीवी हैं, वे सामाजिक हैसियत में उसे अपने से नीचा समझें और उसे स्वयं भी इस पर आपत्ति न हो । इन प्रश्नों से गुजरे बिना हम भारतीय समाज-रचना की जटिलता को नहीं समझ सकते, न वर्ण व्यवस्था कि उस अतिजीविता को समझ सकते हैं जो धर्म बदलने के बाद भी चेतना में बनी रहती है।
इस विषय में हमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना पुरावृत्तों से मिलती है जो पुराणों के अतिरिक्त दूसरे प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं। यह दुखद है कि पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा इतिहास के नाम पर किए जा रहे अनर्थ को सबसे कड़ी चुनौता इन पुरावृत्तों से मिलती है इसलिए इनकी विश्वसनीयता को नष्ट करके इन्हें निष्प्रभाव कर दिया गया।
पर पौराणिक इतिवृत्त को मैं यदि पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा लिखे या उनके अनुकरण में लिखे गए भारतीय इतिहास से अधिक भरोसे का मानता हूं तो इसलिए नहीं कि कालांकित और तथ्यपरक इतिहास से मुझे चिढ़ है, बल्कि इसलिए कि इसकी आड़ में कुत्सित राजनीति की जाती रही है और ध्यान शासकों पर अधिक रहा, समाज को ओझल कर दिया गया और ऊपर से एक और सीमा यह भी कि इसकी परिधि में हमारे अतीत का एक लघु काल-प्रसार ही आ पाता है।
पुराण इतिहास नहीं हैं परंतु उसका प्रसार इतना लंबा हि यह अपनी कल्पना में प्रथम मानव तक पहुंच जाता है, मोटे तौर पर यह वहां तक के जातीय अनुभव का एकमात्र स्रोत है जहां से लेखन का उपयोग सामान्य कामकाज में होने लगता है, और लिखित सामग्री इतिहास लेखन का स्रोत बन जाती है।
यह सच है कि इनमें अतिरंजना और मुक्त कल्पनाशीलता से अधिक काम लिया गया है, फिर भी वह बिना किसी आयास के पकड़ में आ जाती है, इसलिए उससे कोई हानि नहीं होती। इसका यथालिखित पाठ भटकानेवाला जरूर है, पर कथा का नाभिकीय सत्य अकाट्य है। उससे किसी राजा महाराजा के जीवन और कृतित्व पर प्रकाश नहीं पड़ता, अपितु समाज किन अनुभवों हे गुजरा है, इस पर प्रकाश पड़ता है।
पुराणों में लिंग और वर्ण के पूर्वाग्रह उस तरह काम नहीं करते जैसे स्मृतियों में और अपर पक्ष के सद्गुणों का उल्लेख तो किया ही गया है अपनी कमियों पर भी उंगली उठाई गई है, इसलिए इनमें अपेक्षाकृत अधिक वस्तुपरकता पाई जाती है।
भारतीय समाज की निर्मिति में कितनी जातीयताओं का योगदान है, इसका ठीक ठीक अनुमान हम नहीं लगा सकते। स्पष्ट कर दें कि यहां मैं जातीयता का प्रयोग भाषाई समुदाय के लिए कर रहा हूं। जिस चरण पर इनका जमाव उस भौगोलिक क्षेत्र के किसी न किसी अंचल में हुआ जिसके लिए आज दक्षिण एशिया का प्रयोग होता है, इनकी संख्या क्या थी, यह हम नहीं तय कर सकते, परन्तु इतना निश्चय के साथ कह सकते हैं कि यह संख्या तीन या चार नहीं थी, न ही भारत में आज व्यवहार में आने वाली बोलियों के कोई आद्य रूप थे जिनके ह्रास से वे बोलियां पैदा हुईं, जिनको विशेष परिवारों में बांट कर रखा गया है।
तुलनात्मक भाषाविज्ञान राजनीति का रौरव नरक और प्रकांड पंडितों की नासमझी का अखाड़ा है जिन्हें केवल एक जिद ने कि वे अपने अध्यवसाय और बुद्धिबल से यह सिद्ध करके दिखा देंगे कि समस्त ज्ञान विज्ञान यूरोप से पूरे एशिया में फैला है, उन्हे कूड़े की देदीप्यमान ढेरियों में बदल दिया। अमूल्य सूचनाओं के भंडार, पर व्यर्थ।
इतने प्रकांड विद्वानों के प्रति जिनका शिष्य होना तक मुझ जैसे अगण्य के लिए सौभाग्य की बात हो, इतनी कठोर टिप्पणी करने का दुस्साहस मैं इसलिए कर बैठा क्योंकि वे अपने ही प्रतिपादित सिद्धांत से उल्टा काम कर रहे थे कि मानक भाषाएं अनेकानेक बोलियों में से किसी एक के किन्हीं कारणों से प्रमुखता पाने के कारण क्रमिक उत्थान से अस्तित्व में आती हैं, न कि बोलियां किसी मानक भाषा के क्षरण से पैदा होती हैं।
अब यदि हम तथाकथित आर्य भाषाओं/ बोलियों में किसी एक ही वस्तु के लिए, मिसाल के लिए पांव के लिए प्रयुक्त – पांव/पद/पैर, गोड़/गड/डग, लात, *लग/लंग (हिं लंगी लगाना, लंगड़ा, अं. लेग) – पर्यायों पर ध्यान दें तो ही समझ सकते हैं कि प्रत्येक बोली के गठन में कितनी जातीयताओं का हाथ है। इसमें एक ही शब्द के जो रूपभेद हैं उनके पीछे भी इतर भाषाई प्रभाव है।
आहार संग्रह के चरण पर इनके जत्थे जगह जगह अपने से भिन्न भाषाई समुदाय के बीच पहुंच चुके थे और इस तरह सबमें बहुतेरे मिले हुए थे, इसकी क्षीण चेतना हमारी परंपरा में मिलती है। यहां नस्ली भेद की जगह सभी एक ही प्रजापति की संतानें हैं। प्रजापति के अनेकानेक अर्थ लिए गए हैं जिसके अनुसार प्राकृतिक परिवेश भी प्रजापति है – जो प्रजा का पालन करता है वह प्रजापति। जिनसे दुश्मनी है वे भी अपने ही सौतेले भाई या सपत्न हैं। पिता एक, माताएं भिन्न। अन्तर मान्यताओं का, न कि रक्त का। एक देव, तो दूसरा दनुज/दानव। दनुज क्यों, क्योंकि इनका धर्म था आदिम अवस्था का मिल बांट कर खाना, जो अपने पास है दूसरे के मांगने या उसके पास न होने की दशा में मुक्त भाव से देना।
दानवों की कहानियां दानशीलता की कहानियां हैं, देवों की कहानियां छल क्षद्म से अपहरण और विश्वासघात की कहानियां। इस सवाल को लेकर जो कथाएं रची गई हैं उनके झमेले पड़े बिना हम कह सकते हैं कि पौराणिक इतिहास की सही समझ हमारे सामाजिक सौहार्द की नींव बन सकती है। यहां देव परंपरा या जिसे कुछ लोग हड़बड़ी और दिमाग की गड़बड़ी में ब्राह्मणवादी परंपरा कह सकते हैं, उसमें ज्ञान के मामले में देवगुरु बृहस्पति से कम सम्मान असुरगुरु शुक्राचार्य का नहीं है।
अब इस सर्वविदित पृष्ठभूमि को समझ लेने के बाद हमारे लिए आगे के विकास और टकराव को समझने में आसानी होगी।