Post – 2018-02-09

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यदि हम पुराण कथाओं की अन्त: प्रकृति या उसकी रचना प्रक्रिया की समझ रखते हैं तो वे उस युग को समझने में उतनी ही सहायक हो सकते हैं जैसे आज तक का साहित्य अपने-अपने कालों को समझने में सहायक होता है। यह न भूलना चाहिए कि पुराण अपनी सीमा में विश्वकोश हैं, परन्तु पुराण कथाएं लेखनपूर्व चरणों की साहित्यिक रचनाएं होती थीं, जिनका चरित्र बाद की उपदेश कथाओं जैसा था। सच कहें तो उपदेश कथाएं उसी परंपरा का विस्तार हैं। इनकी सोद्देश्यता इनका प्राण है। दुर्भाग्य से हाल के दिनों में इसकी समझ राजनीतिक लाभ के लिए जान बूझ कर नष्ट की गई है, और इनका उपयोग वहशीपन पैदा करने के लिए किया जा रहा है, क्योंकि अशान्ति क्रान्ति का वहम तो पैदा कर ही लेती है।

यदि आप विविध चरणों पर देवासुर संग्राम को लें तो आहारसंचय के चरण से लेकर सभ्यता के कई चरणों का इतिहास चित्रवत सामने आ जाएगा । यहां हम केवल समुद्रमंथन की कथा की चर्चा करेंगे। इस कथा में सुदूर व्यापार को प्रतीकबद्ध किया गया है। सुदूर व्यापार में आज के दक्षिण एशियाई भूभाग से ले कर आर्यभाषा का पूरा प्रसारक्षेत्र आ जाता है । उल्लेख तो समुद्रमंथन का है, पर इसमें जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनों से गहन सक्रियता – चरैवेति चरैवेति – आ जाती है। इसके दो तथ्यों पर ध्यान देना जरूरी है । पहला यह कि जिस वासुकी नाग को रस्सी बना समुद्र का मंथन किया गया उससे जो विषैली फुफकार छूटती थी उसे देव झेल नहीं सकते, इसलिए फन के सिरे को असुर पकड़ते हैं और पूंछ वाले सिरे को देव समाज संभालता है। यह याद दिला दें कि जिस अमृत के लिए ‘समुद्रमंथन’ किया जा रहा था वह सोना था – अमृतं हिरण्यम् ; व्यापारिक लाभ था। गाय और घोड़ा समुद्र से तो नहीं निकल सकते, पर कच्छ और गुजरात गायों घोड़ों के लिए और गीर के वन गजराज के लिए प्रसिद्ध हैं । कच्छ के एक स्थल का नाम घोड़ेवाली वाडी (मंडी) है जहां से हड़प्पाकालीन अवशेष मिलने का दावा किया गया है।

जिस तथ्य की ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं वह यह कि जोखिम भरा और कठिन श्रम, खतरों से बचाव का काम असुर करते है, पर पहल, वितरण व्यवस्था देवों के हाथ में रहती है।

सभ्यता का पूरा तंन्त्र श्रमिकों, कारीगरों, आविष्कारकों आदि पर निर्भर रहा है जब कि कतर-व्यौंत से संपत्ति संग्रह और साधनों पर अधिकार करने वाले पहल और प्रबन्धन अपने हाथ में रखते रहे हैं, और अधिकतम उत्पाद या लाभ अपने पास रख कर केवल उतना ही उत्पादकों को देते रहे हैं, जिससे उसका भरण-पोषण होता रहे और नई सूझ-बूझ वाले कारीगर/विशेषज्ञ कुछ मौज मस्ती में रह सकें, जब कि उनके मन में इस बेईमानी को लेकर असन्तोष रहा है और समय-समय पर वे इसके लिए विद्रोह भी करते रहे हैं। इसे देवासुर संग्राम, या मार्क्सवादी शब्दावली में शोषक और शोषित का टकराव कहा जा सकता है। इसी अर्थ में मार्क्स के इस कथन को समझा जा सकता है कि पहले के सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है जिसका बहुत भोंड़ा अर्थ भारत में वर्ण ही वर्ग है, कर लिया गया। दुनिया के सभी देशों में संपत्ति पर अधिकार करने वालों और संपत्ति से वंचित रह गए या कर दिए जाने वालों का और अपने श्रम और योग्यता को उनकी सेवा में लगाकर जीविका अर्जित करने वालों के दो वर्ग रहे हैं। भारत में इस व्यवस्था को अधिक अचूक बना लिया गया था।

यदि आर्य विशेषण का प्रयोग स्वामी और वैश्य के लिए होता रहा है और यदि वैश्य के अधिकार में संपत्ति के तीनों स्रोत – कृषि वाणिज्य, गोरक्षा या पशुपालन रहा है, तो वैश्य और स्वामी दोनों का अर्थ एक ही हुआ। ऐसी दशा में ब्राह्मण और क्षत्रिय भी वैश्यों के उपजीवी, रक्षा और अनिष्ट निवारण की योग्यताओं के कारण उसके आश्रित हुए जिनकी अन्य भूमिकाओं में एक हुआ, उत्पादक वर्ग को नियन्त्रित रखना। आर्य शब्द का आशय ही नहीं इस पूरे तन्त्र का जितना स्पष्ट प्रतिबिंबन ऋग्वेद में है वैसा मेरी जानकारी में किसी अन्य कृति में नहीं है । यह ध्यान रहे कि स्वामिवर्ग और समाज के नियंत्रण और प्रबन्धन में उसका सहायक या अनुषंगी वर्ग कुछ भी उत्पादित नहीं करता था।

संस्कृत भाषी आर्य यदि कहीं अन्यत्र से भारत में आए होते, परन्तु उस समाज के क्रतुविद या वैज्ञानिकों, कलाविदों और श्रमिकों की भूमिका को भी इस सुझाव में स्थान दिया गया होता, और हम बिना तोड़ मरोड़ के उन सामाजिक और आर्थिक संबंधों को समझ पाते तो उस दशा में उन्हें आदि काल से भारत का निवासी सिद्ध करने वाले मुझे दुराग्रही ही नहीं, इतिहास को समझने में बाधक और उपद्रवी भी लगते।

परन्तु यहां सारा जोर लूटने, मारने, कब्जा जमाने पर था और यह काम इतनी धूर्तता से किया गया जैसी जुआड़ियों और अपराधियों में भी देखने में नहीं आती । सभ्यता के निर्माताओं को जादू की छड़ी से गायब कर दिया गया, सभ्यता का श्रेय उसका विनाश करने वाले दुर्दान्त, बर्बर, रक्तपिपाशुओं को दे दिया गया। बाद में समय समय पर वैसे ही बर्बर और रक्तपिपाशु जत्थों को भारतीय समाज में नई ऊर्जा का संचार करने वाला सिद्ध किया जाता रहा, और सबसे बड़ी बात यह कि यह तर्क खड़ा किया जाता रहा कि भारत में सदा से आक्रमणकारी ही सत्ता पर अधिकार करके राज्य करते रहे हैं, इसलिए जो अधिकार उन्हें हासिल था वह अंग्रेजों को भी हासिल है। यह उनकी जरूरत थी यह समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि मार्क्सवादी इतिहासकारों की कौन सी जरूरत थी कि वे उपनिवेशवादियों और मिशनरियों के साथ लामबंद होते रहे और यूरोपीय इतिहासकारों की शरारत को उजागर करने वाले भारतीय इतिहासकारों का उपहास करते और पाठ्यक्रमों से बाहर करते रहे।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह कि वे भारतीय सभ्यता के निर्माण में आर्येतर समाज की विशेषत: असवर्ण समुदायों की भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए जब कि एक मार्क्सवादी के रूप में उन्हें इनकी भूमिका को केन्द्रीयता देनी चाहिए थी। हम आगे यह देखेंगे कि आर्यों को जिन भी बातों का श्रेय दिया जाता है उनमें से कोई भी उनकी खोज या आविष्कार नहीं है। उनका श्रेय असुर कहे जाने वाले जनों को है जिन्हे कोसंबी ने हैवान कह कर दरकिनार कर दिया था।