जाली भाषा, जाली भाषाविज्ञान, (7)
नक्कारखाने में तूती की आवाज
शास्त्रजीविता – यह दो प्रकार की है। एक अपने पुरातन ज्ञान पर अटूट विश्वास, परन्तु इसमें औपनिवेशिक हस्तक्षेप के बाद यह तत्व भी जुड़ गया कि पश्चिमी विद्वानों के अनुवाद, व्याख्याएं अधिक भरोसे के हैं और परंपरावादी विद्वान जहां उनसे मतभेद रखते हैं वहां वे गलत ही नहीं हास्यास्पद भी हैं क्योंकि वे देशानुराग से परिचालित हैं। ध्यान देने की बात यह है कि एक ऐसा समुदाय जो आरंभ से ही योजनाबद्ध रूप से संस्कृत का अध्ययन और संस्कृत कृतियों का अनुवाद इसलिए कर रहा था कि इसकी मदत से मिशनरी ईसाइयत का प्रचार कर सकें, जिसके अपवाद नहीं मिलते और इसलिए जिसे जहां भी संभव हो हीनार्थ ही ग्रहण करना था, वह हीनार्थ ही नहीं कर रहा था, उसकी कमियों पर उंगली उठाने वालों की साख भी खत्म कर रहा था।
इसमें उन्हें इतनी सफलता मिली कि संस्कृत कालिजों से निकले विद्वान पश्चिमी अनुवादकों के छायापुरुष बन कर रह गए। इसका अनुभव मुझे बार बार हुआ। इनको दुहराने चलें तो अनावश्यक विषय विस्तार होगा, पर इसका प्रधान कारण यह लगता है कि ब्एराहमणों द्वारा एक ओर तो अपनी निजी जागीर बनाने के लिए संस्कृत को अधिकाधिक दुरूह और दुष्पाठ्य बनाया गया, दूसरी ओर संस्कृतज्ञों के लिए भी कृतियों की टीकाएं और भाष्य लिखे जाते रहे।
इस तरह संस्कृत को एक ओर तो जीवन्त भाषा बनाने की जगह मुमूर्षु भाषा बनाया गया, दूसरी ओर संस्कृत पंडितों को टीकाजीवी और भाष्यकंठी कठदिमागों मे बदलने का कारोबार चलता रहा और संस्कृत का विद्वान सर्जनाशून्यता का नमूना बनता रहा जिसमें सोचने तक की शक्ति न रह गई थी।
उसकी सभी समस्याओं का समाधान किसी न किसी सूक्ति से हो जाता है। ऐसी प्रतिभा से मिशनरियों की योजना का सामना संभव न था। उल्टे वह टीका-भाष्य की झंझट से मुक्त उनके अनुवाद को लपकने के लिए मानसिक रूप में पहले से तैयार बैठा था।
इसके विपरीत यदि हम औपनिवेशिक शासकों और मिशनरियों की दूरदर्शिता, योजना, संकल्प और अध्यवसाय के साथ ही दिखावटी विरोध के नीचे पारस्परिक सहयोग को देखें तो उनके प्रति विरक्ति नहीं, सम्मान पैदा होता है।
उन्होंने यह अनुभव किया कि जब तक संस्कृत के ‘धर्मग्रंथों‘ का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त करके उनका खंडन कर के ईसाइयत की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं की जाती तब तक हिंदुओं का धर्मान्तरण नहीं कराया जा सकता। इससे भी कुछ आगे बढ़कर एक मत यह था कि जब तक बाइबिल का संस्कृत भाषा में अनुवाद करके उसे पवित्र ग्रन्थ की आप्तता नहीं दी जाती तब तक ईसाई मत का प्रचार न होगा। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि ऐसा विचार विलियम जोंस का भी था, क्योंकि यह जुगत नोबिली द्वारा उनसे डेढ़ सौ साल से भी पहले आजमाई जा और फेल हो चुकी थी।
जिस योजना पर उन्होंने काम किया वह थी संस्कृत शिक्षा को ही अपने नियंत्रण में लेना जिससे उनकी अपनी व्याख्या को संस्कृत के विद्वानो के बीच स्वीकार्य बनाया जा सके। याद रखना होगा कि जिस संस्कृत कालिज के प्रिंसिपल विद्यासागर थे, उसकी स्थापना कंपनी ने की थी। काशी के संस्कृत कालिज की स्थापना कंपनी ने की थी। यह भी याद रखना होगा कि वह अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने की वकालत करने वाले अग्रणी व्यक्तियों में ही नहीं, अंग्रेजी को बंगाल के गांवों तक जल्द से जल्द पहुंचाने के प्रयत्न में भी सक्रिय थे। इसके पीछे ज्ञान पिपासा न थी, अवसर की तलाश थी। बगाली समाज के लिए कंपनी की सेवा में जुड़ने की लालसा थी। यदि वंग भंग की नौबत न आई होती तो बंगालियों से अधिक दास भाव से काम करने वाला सेवक और सहायक अंग्रेजों को मिल नहीं सकता था और उसके बावजूद स्वतंत्र भारत में भी, साठ के दशक में भी, अंग्रेजों के लिए ‘साहेब लोक’ का प्रयोग केवल बंगाल में और केवल बंगालियों से सुनने को मिला।
हम बहक न जायं इसलिए संक्षेप में यह कह दें कि विद्यासागर से पहले संस्कृत कालिज के दस प्रिंसिपलों में नव अंगेज थे और उनके बाद केवल एक प्रिंसिपल अंग्रेज गलती से नियुक्त हुआ, क्योंकि उनके समय तक संस्कृत के पंडितों पर ईसाई संस्कृतज्ञों के पांडित्य की धाक जम चुकी थी, विद्यासागर मात्र इसके बैरोमीटर थे।
1824-1832: W. A. Price
1832: Horace Hayman Wilson (offg)
1832-1833: Leftt. Todd
1833: Horace Hayman Wilson (offg)
1832-1839: A. Troyer
1835-1839: Ramkamal Sen
1836-1837: Radhakanta Dev (interim)
?: J. C. C. Sutherland (3 months)
1840-1841: T. A. Wise
1841-1851: Rasamoy Dutta
Principals
1851-1858: Ishwar Chandra Vidyasagar
1858-1864: Edward Byles Cowell
1864-1876: Prasanna Kumar ……….
जब हम बंगाल रिनेसां की बात करते हुए विभोर हो जाते हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि यह 90 प्रतिशत प्रभुओं के सम्मुख हिचकते झिझकते समर्पण था। यह राजा राममोहन राय के वेदांती ब्रह्मसमाज से आरंभ होकर केशवचंद्र सेन के ख्रिष्टोन्मुख ब्रह्मसमाज तक पहुंचता हे और
बनारस संस्कृत कालेज की स्थिति कलकत्ता से भिन्न नहीं थी। यह 1791 से 1844 तक नगर प्रशासक की देखरेख में चलता रहा और इसके बादः
John Muir (1844–1846)
James R. Ballantyne (1846–1861)
Ralph T. H. Griffith (1861–1876)
George Thibaut (1876–1888)
Arthur Venis (1888–1918)
Sir Ganganath Jha (1918–1923)
Gopinath Kaviraj (1923–1937)
Mangal Dev Shastri (1937–1958)
दोनों की एक अन्य समानता कि दोनों कालिजों से विश्वविद्यालयों में बदले ।
दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के संस्कृत पांडित्य का वही हाल हुआ। पश्चिमी योजना ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध की रीढ़ ही तोड़ दी। संस्कृत विद्वानों से अधिक आत्मविश्वास रहित, हीनभावनाग्रस्त और चेतना के स्तर पर पश्चिमोन्नुखी नमूने तलाशने पर मिलेंगे। हां, यह बात केवल संस्कृत कालिजों पर लागू होती है. पुरानी परिपाटी पर चलने वाली पाठशालाओं से निकले विद्वानों पर नहीं। पर वे उपहास के पात्र थे। नक्कारखाने में तूती की आवाज। सर्जनात्मकता का अभाव उनमें भी था।
दूसरे प्रकार की चर्चा कल ।