Post – 2018-04-17

संतापसूचक शब्द और जल (2)

अर – जल से व्युत्पन्न शब्दों में ‘अरण्ड’ आता है । बार बार इस बात की याद दिलाना जरूरी नहीं की घी, तेल आदि के लिए रूढ़ शब्दों का मूल अर्थ पानी रहा है। इस मामले में अर का अर्थ तेल, या पानी जैसा द्रव पदार्थ है, जिसमें इसके फल की आकृति ‘अंड’ या गोलाकार जोड़कर अरंड बना है और उसमें हीनार्थक ‘-ई’ लगाकर ‘अरंडी’ शब्द बना है। इसका अर्थ है कि ‘अर’ का भी प्रयोग भी कभी तेल के लिए कर लिया जाता था ।

कुछ लोग यह समझते हैं, और इसमें संस्कृत के विद्वान और कोशकार भी शामिल हैं, कि तेल के लिए संस्कृत शब्द ‘तैल’ है। तिलहनों में सबसे पहले तिल की खेती आरम्भ हुई, और तेल तिल से निकला है, इसलिए उसका अपत्यार्थक रूप तैल है। मैं एक बार किसी अन्य प्रसंग में बता चुका हूं कि दिल्ली की स्थानीय भाषा में है आज भी पानी के लिए तेल शब्द का प्रयोग जब तब होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने उसे पौधों में पानी देने को कहा तो उसने खुरपी से मिट्टी उलटकर कहा, ‘ताऊ यामें घणों तेल है।’ ऋग्वेद में सिंचित भूमि के लिए तिल्विल का प्रयोग हुआ हैः

भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्तस्य ।। 5.62.7 यह है सोम की बुवाई का तरीका है, भूमि को अच्छी तरह जोत कर (भद्रे क्षेत्रे), उसे नम (तिल्विल) बना कर, नालियां बनाकर, नालियों में सोम के टुकड़े बोए जाते थे। जिनको यह भ्रम बना रह गया हो कि सोम गन्ना नहीं था, वे गन्ने की बुवाई के बारे में जानकारी बढ़ा सकते हैं।

सभ्यता के विकास को समझने मैं सहायक संकेतों में इस तरह की सूचनाएं बहुत महत्वपूर्ण है। तेल का पता मनुष्य को बहुत बाद में चला। पहले वह अरंडी को पत्थर पर कूट कर उसके गूदे से बालों को मसलकर उन्हें चिकना बनाता था । इस तरह की प्राचीन सूचनाएं बहुत बाद तक कैसे स्थांतरित होती रहीं, यह सोच कर हैरानी होती है। तेल के आविष्कार के कई हजार साल बाद, यह सूचना कालिदास को उपलब्ध थी, जिन्होंने कण्व आश्रम के छात्रों के संदर्भ में इसका और वल्कल का उल्लेख किया है।

जो भी हो, तेल के विषय में जानकारी तिल की खेती आरंभ होने से पहले भारतीय समाज को थी। अतः खाने चबाने के लिए तिल को कूटते समय उन्हें इसके भीतर आर्द्रता या चिकनाई का पता चला होगा इसलिए तिल के लिए उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया गया होगा। संभवतया नामकरण तैल किया गया हो, और बाद में भूल सुधारने की कोशिश में है एक नई भूल कर दी गई हो।

संताप
संताप में उपसर्ग ‘सं’ का अर्थ जल है, इसी तरह प्रताप, अनुताप, आदि में भी, प्र ( प्ल), और अनु का अर्थ भी जल है। स्वयं ताप और तप पानी की बूंद के गिरने से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण की देन हैं, इसलिए इनका प्रयोग आग और धूप प्रभाव के आशय में होने लगा। परंतु, यह निर्मितियां धातु प्रत्यय और उपसर्ग की भाषाई युक्ति का विकास होने के बाद की हैं, जब इन्होंने एक नया रूढ़ आशय ग्रहण कर लिया था, इसलिए वर्तमान विवेचन में हम इनको जल से सीधे व्युत्पन्न नहीं मान सकते। यही बात पश्चाताप पर भी लागू होती है। मैंने ‘अनु’ का अर्थ भी जल बताया है जबकि हम इसके उपसर्ग रूप से ही परिचित हैं, इसलिए इसका अर्थ जल करना प्रयत्नसाध्य लग सकता है। परंतु एक तो दूसरे सभी उपसर्गों का एक अर्थ जल है, दूसरे अनुक और अनूक दो ही ऐसे शब्द हैं जिनमें अनु का प्रयोग उपसर्ग के रूप में नहीं हुआ लगता है। पहले का अर्थ लालची है, आकांक्षी है और कामना लालसा आदि के लिए सभी शब्द जल से संबंधित है। मेरे अनुमान का आधार केवल इतना ही है। तप/टप = जल और अं . tub तथा आँखों के दबदबाने के सम्बन्ध को इसी तर्क से समझा जा सकता है.

सताना । यातना। यंत्रणा
शातन या चातन, जिनसे सत् और सताना का संबंध है, उस क्रिया की देन हैं जो किसी रसीले डंठल, या लता का रस निकालने के लिए की जाती थी। अर्थात कूटना, कुचलना या पीसना। इस सिरे से विचार करने पर हम पाते हैं भोजपुरी का जांत शब्द जो चात, सात की शृंखला में आता है, यंत्र की अपेक्षा पुराना है (यद्यपि इसका नासिक्य प्रयोग यंत्र से प्रभावित लगता है) और यंत्र संस्कृतीकरण है, जिससे यातना और यंत्रणा की उत्पत्ति हुई है। गणित करना और खंडित करना दोनों का अर्थ एक ही था बंगाल में आज भी आटा पिसाने को गुणा करना का प्रयोग चलता है। विषाद,अवसाद और निषाद आदि में यही सातना और सताना पाया जा सकता है, जबकि प्रसाद में हिस्सा पाने, अर्थात बंटवारे का भाव तथा प्रसीद में पसीजने या द्रवित होने का भाव है जो जल की याद दिलाता है।

संस्कृत के आचार्यों का यह विचार रहा है कि उपसर्ग के प्रभाव से धातुओं में नया अर्थ पैदा हो जाता है, (उपसर्गेण धात्वर्थो बलाद अन्यत्र नीयते) परंतु यह अर्थ नया नहीं होता जातीय अवचेतन में बने रह गए पुरातन आशयों का पुनर आविष्कार होता है। भाषा में बलपूर्वक कुछ भी नहीं होता, परंतु इसके तरीके इतनी जटिल और दूरगामी हैं कि उनको पकड़ पाने में हम हमेशा सफल नहीं हो सकते।

क्रमशः