Post – 2018-04-07

छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं

पर समस्या यह है कि इसे कैसे इतनी छोटी कर दिया जाय कि यह हमारी जेब में समा जाय, दूसरे सारे रास्ते मिट जायं और केवल एक ही रास्ता बचा रह जाय और वह भी इतना संकरा कि उस पर एक ही ओर से चला जा सके, कोई दूसरी ओर से आने की गलती करे तो माथाफोड़ टक्कर हो। इस योजना पर बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं और एक तरह से हम भी शामिल हैं लेकिन पूरी तरह फिट नहीं हो पाते। हमारी कोशिश सेलफोन बनाने वालों जैसी है जो सारी दुनिया को हमारी जेब और सच कहें तो मुट्ठी में तो सीमित कर देती है पर चमत्कार यह कि दुनिया पहले से अधिक विराट और सिर चकराने वाली हो जाती है।

मेरी शिकायत यह रहती है कि सभी लोग भाषा की उत्पत्ति और विकास को समझने पर क्यों नहीं जुट जाते, जिसके साथ ही इतिहास और वर्तमान जानने की चीज नहीं रह जाते। कल मैं खीझ रहा था कि जब कह दिया कि जिन भी वस्तुओं, क्रियाओं, भावों, दशाओं से कोई ध्वनि नहीं फूटती उन सबके लिए संज्ञा पानी की अनन्त ध्वनियों में से किसी एक से मिली है, तो आगे कुछ कहने की जरूरत ही न होती, पाठक स्वयं विचार करके उनके संबंधसूत्र तलाशते और जिन विरल मामलों में वैयाकरणों, भाष्यकारों और कोशकारों से चूक हुई है उनमें सटीक अर्थ तक पहुंचते। इसे पढ़कर कितने लोग किस किस तरह का मुंह बना कर मुस्कराएंगे यह तो नहीं जानता, पर यह जानता हूं कि इसके लिए दो बातें अपेक्षित थीं। पहली एक जाग्रत, अध्यवसायी और नई दिशाएं खोजने के लिए व्यग्र समाज।

हम ऐसा समाज नहीं बना सके। यदि मन में कोई आशंका थी तो फेस बुक के विहंगावलोकन ने इसे दूर कर दिया कि आलस्य और आमोदप्रियता हमारे समाज का स्वभाव बन चुकी है। बुद्धिबली जन, दिन का दिन, साल का साल फिकरेबाजियों में बिता देते हैं। हमारे समय का सबसे मनोरंजक खेल तखतापलट खेल बन गया है। ‘जोर लगाओ हइसा ! शोर मचाओ हइसा !!’ की हुंकार और ‘तब चूके पर अबकी बार, गिर जाएगी यह सरकार’ की ध्वनियाें-प्रतिध्वनियों से आसमान गूंजने लगता है। जहां सारे के सारे लोग राजनीति को दिशा दे रहे हो, राजनीति और समाज की दुर्दशा हो यह स्वाभाविक है।

मैं उन सभी आरोपों को सही मानने को तैयार हूं जिनके कारण इस सरकार को आना ही नहीं चाहिए था, आगई तो रहना नहीं चाहिए था, अब तक रह गई पर अब चली जाय तो दिन फिरे, पर वे सभी अविश्वास का प्रस्ताव पेश करके स्वयं ही संसद से गायब रहने वाले राजनीतिक दलों के साथ कंधा मिलाकर ‘शोर मचाओ हइसा!’ करने वाले लोग हैं । जोर लगाने के लिए अपने भीतर जोर तो होना चाहिए। सभी गैर लोकतांत्रिक हथकंडों से सरकार गिराकर मिल बांट कर खाने और यदि सरकार गिर भी गई तो अपने कारनामों से भाजपा को पहले से भी अधिक शक्तिशाली और सचमुच तानाशाही तेवर से आने का रास्ता ही तैयार करेंगे, क्योंकि सभी में सत्ता की भूख तो है, देश और समाज के भविष्य का कोई खाका नहीं।

अपना अपना काम छोड़ कर देश का काम कर रहे हैं। यह मोटी बात तक भूल गए हैं कि महाव्याधियाँ और गलत प्रवृत्तियाँ एक बार समाज में प्रवेश कर गईं तो जाने का नाम नहीं लेतीं हैं।

इनसे किसी क्षेत्र में गंभीर काम की आशा तो व्यर्थ है ही, किसी ऐसे काम को समझ पाने तकी आशा व्यर्थ है। बौद्धिक संकुचन का, दूसरे सभी सरोकारों के लोप का ऐसा दौर इतिहास में महादर्भिक्षों के दौर में सुना गया है पर भरे पेट, कुछ और के लिए आतुर बुद्धिबलियों का बौद्धिक दुर्भिक्ष उससे कम कारुणिक और त्रासद नहीं है।

दूसरी स्थिति वह होती जिसमें कोई पश्चिमी विद्वान, जिस पर सोचने और पहल करने की जिम्मेदारी छोड़कर हमारा पूरा देश रसिकता में इस हद तक डूबा है कि यह रसौली का रूप ले चुकी है, ऐसा कोई प्रस्ताव रखता और उसे अपने लिए उपयोगी पाकर पश्चिमी प्रचारतंत्र उसे इतने कोनों से फोकस करती कि आंखें चौंधिया जातीं। इसलिए मुझे हर बात को प्रमाणित और उदाहृत करने के लिए स्वयं काम करना होगा।

मेरी चिन्ता यह सोच कर बढ़ जाती है कि इस समय भी जब दर्द लगभग नहीं सा है तब भी लंबे समय तक काम करने के लिए न बैठा जाय है मुझसे न लेटा जाय है मुझसे, और किसी अनहोनी के होने पर इस दृष्टि के महत्व को समझने वाला कोई दिखाई नहीं देता। दौड़ना खुद ही पड़ है खुद को कोड़ा मारते।