इतिहास और मनोभग्नता
मेरे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि मेरे पूर्वज भारत के मूल निवासी थे या कहीं अन्यत्र से आकर बसे थे। मुझे यह मालूम है कि दिल्ली में कम से कम 20 बार अपना ठिकाना और तीन बार स्थाई पता बदलना पड़ा और अब गाजियाबाद (क्रासिंग रिपब्लिक) के जिस मकान में रहता हूं, वह संभवतः मेरा अंतिम स्थाई पता रहे। मेरे पुत्र और पुत्री (और जामाता) अमेरिका की नागरिकता ले चुके हैं। मेरे जन्मस्थान (गगहा, गोरखपुर) में आज से पैंतालीस पीढ़ी पहले मेरे कुल के आदि पुरुष बाबा सक्त (शक्ति) सिंह ने सतासीनरेश से दहेज में मिले चौरासी पर अधिकार किया था। इस के लिए उन्होंन यहां पहले से बसे थारुओं का छल और क्रूरता से दमन और उन्मूलन किया था। इससे पहले वे फैजाबाद जिले के विड़हर में आबाद थे। बिड़हर का मतलब आपको न मालूम हो तो इसे बिरहोर पढ़ने पर पता चल जाएगा यहां पहले बिरहोर जनों का निवास था। हमारा परिचय देते हुए हमें पलुआर (पालीवाल) क्षत्रिय बताया जाता है, क्योंकि मध्यकाल में कभी हमारे पूर्वज हरदोई के पाली नामक स्थान से जान और मान बचा कर पूर्व की ओर भागे थे। हमारे साथ मुस्लिम शासकों ने जैसा बर्ताव किया था वैसा ही हमारे पूर्वजों ने कमजोर पाकर बिना उनके किसी अपराध के बिरहोरों और थारुओं (स्थविरों, या बौद्ध मतावलंबी) के साथ किया। मैं इस लघु इतिहासवृत्त के किसी भी खंड का समर्थन नहीं करता, कुछ की भर्त्सना करता हूं, फिर भी उत्तराधिकार में भूमि का जो हिस्सा मेरे नाम है उसे अपना मानता हूं।
तरुणाई के आगमन के साथ मूछें आईं तो हुआ कुछ ऐसा कि नाक के ठीक नीचे बाल उगेही नहीं । इसमें समय लगा। टाड का इतिहास तो नहीं पढ़ा था पर उसकी कुछ मोटी बातें पता थीं जिनमें से एक थी हूणों की शुद्धि करके उनको अग्निवंशी क्षत्रिय बनाना। हम अपने को अग्निवंशी तो नहीं, चंद्रवंशी कहते थे और अपना संबंध पांडवों से जोड़ते थे । यह भी मानते थे कि जनमेजय के नागयज्ञ के समय प्राणरक्षा के लिए जिन नागों ने कसम खाई कि वे कभी उनके वंश के किसी व्यक्ति को नहीं काटेंगे वे ही जीवित बचे थे और इसका निर्वाह वे आज तक करते हैं। प्रमाण यह कि आजतक किसी पालीवाल की मौत सांप के काटने से नहीं हुई।
पर हमारा गोत्रनाम था बैयाघर अर्थात् व्याघ्र है। गोत्रनाम ऋषियों के नाम पर होते हैं कोई जानवर, वह कितना भी शक्तिशाली हो, उसका गोत्रनाम तभी हो सकता था जब यह किसी को नकली रूप में दिया गया हो।
इसमें एक तत्व यह भी जुड़ा था कि मैं तब तक जिस पाली से अपना संबंध जोड़ता था, वह हरदोई का पाली न होकर राजस्थान का पाली था, अर्थात् अपने को क्षत्रिय नहीं राजपूत मानता था, इसलिए मानता था कि मूलतः हम लोग हूण हैं जिन्हें आबू पर्वत पर यज्ञ के आयोजन से राजपूत क्षत्रिय बनाया गया था।
प्रसंग आने पर मैं स्वयं इसे बताता भी था। यदि मित्रो में कोई मेरे सामने ही मेरा मजाक उड़ाता हुआ अपने को असली सिद्ध करने के लिए मुझे नकली क्षत्रिय कहता तो मुझे कोई परेशानी नहीं होती। बाद में जब पता चला कि व्याघ्रपाद नाम के ऋषि हुए हैं जो वसिष्ठ की वंश परंपरा में थे और यह कि हमारा संबंध राजस्थान के पाली से नहीं, हरदोई के पाली से है, और हमारा हूणों से कोई संबंध नहीं, तब भी मेरे लिए यह मात्र एक सूचना थी, परन्तु इस सूचना की एक आप्तता थी और इस आप्तता को मै किसी कीमत पर नष्ट नहीं होने दे सकता था। न छिपा कर, न दबा कर, न अतिरंजित करके, न इससे मुंह चुरा कर।
इन तथ्यों को याद करता हूं तो लगता है, मैं इतिहासकार नहीं बना, ऐतिहासिक वस्तुपरकता कहीं मेरे स्वभाव में था। यह बहुत छोटी अवस्था से मेरी चेतना का हिस्सा था कि हम कहां पैदा हुए, किस परिवार, समाज या देश में पैदा हुए, यह हमारे गर्व या ग्लानि का विषय नहीं है, क्योंकि इस पर हमारा वश नहीं था। इसके अच्छा या बुरा होने का लाभ या नुकसान हमें अवश्य होता है।
हम जहां हैं वहीं अनन्त काल से हैं, वहां से हिले डोले ही नहीं, यह गर्व की बात नहीं हो सकती, न ही हम अपने जीवन में किसी एक ही जगह खूंटे की तरह गड़ कर रहना चाहेंगे। परिस्थितियां ऐसी अवश्य हो सकती हैं, जिनमें हमारा अपनी जगह से हटना संभव न हो पाए या ऐसा करना घाटे का विकल्प प्रतीत हो।
परन्तु हमारे लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि हम जहां, या जहां जहां थे वहां किन परिस्थितियों में पहुंचे और जिस अवस्था में थे उससे आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। पर ये जानकारियां मात्र तथ्य हैं जिनका ज्ञान इसलिए जरूरी है कि इसके अभाव में हमारे अपने निर्णय और कार्य प्रभावित हो सकते हैं। हम उन गलतियों को दुहरा सकते हैं जिनसे सही जातीय अनुभवों के आलोक में बच सकते थे और उन अवसरों को खो सकते हैं जिनका लाभ हमें मिल सकता था।
हम जिस देश, अंचल, परिवेश और परिवार में, जिस समाज, संस्कृति और व्यवस्था में पैदा हुए हैं वह किस दशा में है और किस दिशा में जा रहा है और इसमें हमारी क्या भूमिका है यह और केवल यह हमारे गर्व, सन्तोष या ग्लानि का विषय हो सकता है। सूचनाएं आवेग से जितनी ही मुक्त हों, उतनी ही आप्त या पवित्र होती हैं और इन्हें किसी भी आग्रह से विकृत करना अपराध है क्योंकि सूचनाओं की पूंजी से ही हमारे ज्ञान और चेतना का निर्माण होता है, और सूचनाओं की विकृति हमारे ज्ञान को कुंठित और चेतना को विकृत करती है, जब कि अपूर्ण जानकारी के साथ अनिश्चय तो बना रहता है, परन्तु वह न तो ऐसी पंगुता पैदा करती है न मनोविकृति। कहें विकृत जानकारी आधारहीन भले हो, आधिकारिक और निशचयात्मक होती है, और सोचने विचारने की भी छूट नहीं देती जब कि अज्ञान या अधूरा ज्ञान हमारी जिज्ञासा को बढ़ाता है और पूरा होने की एक ऐसी यात्रा होता है जो कभी पूरी नहीं होती क्योंकि ज्ञान का विस्तार अज्ञान के महावृत्त का विस्तार करता है।
परन्तु एक स्थिति ऐसी भी होती है जिसमें विकृत सूचना निश्चयात्मक होने के बाद भी अन्तर्विरोधी बनी रहती है। यह मनोभग्नता, या शीजोफ्रेनिया पैदा करती। और यदि यह इतिहास के साथ हो पूरा समाज या इस सूचना व्यापार से जुड़ा समाज मनोभग्नता का शिकार हो सकता है। यहां तक कि वह अपनी मनोभग्नता पर गर्व करते हुए यथार्थ को देखने समझने से इन्कार कर सकता है। कुछ मनोभग्न रचनाकारों (काफ्का, नीट्शे, प्रूस्त, वान गाग आदि) को उदाहृत करते हुए The Divided Self के लेखक आर डी लैंग ने इनको The Birds of Paradise में, अपनी अलग ही दुनिया में खोए रहने वाले लोगों की, संज्ञा दी है।
औपनिवेशिक इतिहासकारों ने अपनी जरूरत, नस्ली पूर्वाग्रह और प्रशासनिक विवशता में ऐसा विकृत और अन्तर्विरोधी इतिहास रचा और उन्होंने कुछ ऐसी जुगत से अपने झूठ को सच और सच को झूठ बनाए रखा कि इसके कुछ दूर तक शिकार तथाकथित राष्ट्रवादी भी हुए। उन्होंने केवल इतना किया था कि अतीत की जिन उपलब्धियों को वे आंख मूंद कर नकार रहे थे उनके प्रमाण देते हुए उनका खंडन कर रहे थे। यह साम्राज्यवादियों के हित में था कि वे इनको राष्ट्रवादी या देशप्रेम से कातर अर्थात् भावावेश में आ कर महिमामंडन करने वाला इतिहासकार कह कर उनके प्रमाणों को नकारने का और सामान्य पाठकों का ध्यान उस ओर से हटाने का प्रयत्न करें। परन्तु मार्क्सवादी इतिहासकारों और समझदारों के कौन से हित उन इतिहासकारों के काम, प्रमाण और साख को संप्रदायवादी कह कर गिराने से सिद्ध हो रहा था। उन्होंने केवल हिन्दू समाज को पुरानपंथिता से मुक्त करने के नाम पर स्वयं सांप्रदायिक इतिहास लिखा और औपनिवेशिक इतिहास को उसके चरम पर पहुंचा दिया। इस तरह उन्होंने एक ऐसा आत्मनिषेधवादी बुद्धिजीवी वर्ग पैदा किया जो बर्ड्स आफ पैराडाइज की याद दिलाता है। मैं इसे मार्क्सवादी इतिहासलेखन की सबसे बड़ी विफलता तो मानता हूं, इस बात का दृष्टांत भी मानता हूं कि कैसे इतिहास की गलत व्याख्या से वर्तमान में खंडित चेतना या दुचित्तापन पैदा किया जा सकता है।