Post – 2018-04-29

धन संपदा के रूप
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हम कहआए हैं कि धन के सभी रूपों के लिए संज्ञा जल के ही किसी पर्याय से मिली है, इसलिए मात्र दृष्टांत के लिए हम इनमें से जो हमारे ध्यान में आएंगे उन पर विचार करेंगे। सबसे पहले तो हम आप से ही आरंभ करें। मुझे विश्वास है कि आपको अपने नाम का अर्थ मालूम होगा पर क्या आप नाम का मतलब जानते हैं। हो सकता है कुछ लोग कहें नाम का अर्थ संज्ञा है परंतु उस दशा में भी मैं वही प्रश्न दोहराऊंगा। जाहिर है आप निरुत्तर हो जाएंगे, क्योंकि संज्ञा में दो शब्द ऐसे हैं जिनमें से प्रत्येक का अर्थ पानी है। सं/सम् जिसका प्रयोग उपसर्ग के रूप में हुआ है, का अर्थ जल है, यह हम पहले कह आए हैं, इसे आप समसना से समोसा तक में तलाश सकते हैं, और उपसर्ग के रूप में इसका सम्यक, अच्छी तरह या सर्वतो भावेन के आशय में प्रयोग किया गया है जो जल के अनुरूप है। ज्ञान के विषय में मैंने पहले कहा था कि यह क्न> ग्न> ज्न की की प्रक्रिया से गुजरकर ज्ञ बना है जिसका पुराना रूप अंग्रेजी के केन और क्नो (नो), लातिन के ग्नोस्, ग्रीक जिग्नोस्किएन जो जिज्ञासा के सर्वाधिक निकट है Old English cnāwan (earlier gecnāwan ) ‘recognize, identify’, of Germanic origin; from an Indo-European root shared by Latin ( g)noscere, Greek gignōskein, also by can1 and ken. और संस्कृत के वचक्नु – वाग्विद, और वाचक्नवी – वाग्विदा (वचक्नु सुता ?) मैं मिलता है।

यह प्रक्रिया आदि भारोपीय के प्रसार से पहले पूरी हो चुकी थी । क्न स्वतः कन् का प्रतिरूप है जिसका अर्थ जल, प्रकाश, दृष्टि, शीतलता, आंख, आंख की पुतली या कनीनिका आदि की विकास यात्रा पर हम पहले अपना अभिमत प्रकट कर आए हैं । संज्ञा की भांति ही नाम का भी अर्थ जल था, इसे पहली नजर में समझने के लिए आप को फारसी भाषा के नम और नमी पर नजर डालनी होगी।

अब हम ऋग्वेद की ओर लौट सकते हैं जो भाषा को समझने की दृष्टि से जादू का पिटारा है। सायणाचार्य ‘नाम’ के कई से अर्थ करते हैं और वह सभी अर्थ ‘अपस्’= जल के समान हैं। ऋ. 7.57.6 में वह ‘नामभिः’ का अर्थ “उदकैः” करते हैं, तो 3.38.4 मैं ‘नामा’ का अर्थ ”कर्म, शरीरं वा”, और 1.123.4 में ‘‘नमनं प्रह्वत्व (‘अर्थात् ढलान), उद्योगं, प्रकाशं’’, और 3.37.3 में ‘नामानि’ का अर्थ ‘’शक्रवज्रहस्तादीनि’’ करते हैं जो उनकी दुविधा को प्रकट करता है । जलार्थक नाम से यदि फारसी का ”नम बना, तो यह संस्कृत में ,नमन कंपन, निवेदन, नमस्कार, नम्रता आदि शब्दों का जनक बना। सायण के अनुसार: ‘नमते’ (6.24.8) “वशीभवति, नमयिष्णवः” (8.20.1) “नमनशीलाः, कम्पयितारः”; ‘नमसा’ (1.152.7) “नमस्कारोपलक्षितेन स्तोत्रेण”; ‘नमस्वत्’ (1.185.3) “अन्नवत्;”; ‘नमस्वान्’ (1.171.2) “अन्नवान्”, ‘नमोभिः ‘(3.25.3) “अन्नैः सहितात्”; नमोवृधं (3.43.3) “अन्नस्य वर्धकं”; ‘नमोवृधासः’ (7.21.9)” नमसा हविषा वर्धयितारो”, ‘नमे’ (3.39.6) “आनीतमकरोत”। इस नम से ही नम्बि/ नम्बु – आकांक्षा, आशा विश्वास और सम्मान का संबंध है जिसे आप पहली नजर में द्रविड़ का शब्द मान सकते हैं जबकि हम इसे अर्थोत्कर्ष कहना चाहेंगे। हिंदी में बहुत से शब्द हैं जो इस नाम से समझे जा सकते हैं, पर नाम, नामी, नमूना, नामूसी आदि का संबंध है जल के प्रकाश और ज्ञान वाले पक्ष से जुड़ा हुआ है। जिस भी व्यक्ति ने सबसे पहले पैसे के लिए नामा का प्रयोग किया था उसकी सूझ की दाद देनी होगी।

धन
धन, तन का ही प्रतिरूप है। ऋग्वेद में जल को सबसे बड़ा धन कहा गया है और जलदाता होने के कारण इंद्र को मघवा अथवा महाधनी कहा गया है। जल का दारुण अभाव होने पर हम समझ समझ सकते हैं कि पानी की एक एक बूंद का क्या मूल्य है। धन्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है जल से भरपूर और धान्य का अर्थ है अन्न, यूं तो अन्न का अर्थ भी जल ही है। यह, अद् से निकला है जिसका एक अर्थ जल है और दूसरा खाना। हम पहले भी कह आए हैं कि सभी खाद्य और पेय पदार्थों का और इसी तर्क से सभी वनस्पतियों का नामकरण जल के आधार पर किया गया है, फिर भी इसे समय-समय पर याद दिलाना पड़ता है क्योंकि जरूरी नहीं कि आज की पोस्ट जो पढ़ रहे हैं उन्होंने उन पोस्टों को भी पढ़ा हो।

‘धान्य’ से ही निकला शब्द ‘धान’ है, और इसका प्रयोग भी पहले धान के लिए इस कारण रूढ हुआ कि भारत में कृषि का आरंभ धान की खेती से हुआ था, और उस क्षेत्र को छोड़ कर जब वे पश्चिम की ओर सारस्वत क्षेत्र में पहुंचे जहां जौ की पैदावार तो आसान थी, परंतु धान की खेती के लिए जितनी बरसात जरूरी थी वह यहां उपलब्ध नहीं थी, इसलिए, सत्तू के रूप में सालिचूर्ण का सेवन करने वाले अब जौ के सत्तू का प्रयोग करने लगे, इसलिए ‘धाना’ अर्थात भुने हुए धान के स्थान पर भुने हुए जौ को धाना कहने लगे।

अब हम सायणाचार्य द्वारा सुझाए गए धन से संबंधित है आशयों पर दृष्टिपात कर सकते हैंः
धनिनं (1.33.4) बहुधनोपेतं, (4.2.14) उदकवन्तः,
धनुतरौ (4.35.5) शीघ्रं गन्तृतरौ,
धनुत्रीः (3.31.16) प्रीणयित्री
धने (1.116.15) जेतव्ये विषयभूते सति
धन्व (2.38.7; 3.45.1) निर्जलप्रदेश, अरण्य, (5.7.7) निरुदकप्रदेशूपसकमतदमेेय धन्वच्युत (1.168.5) धन्व इति अन्तरिक्ष नाम
धन्वन् (1.135.9) धन्वनि उदकनिर्गमनापादानभूते अन्तरिक्षे अपि निरालम्बे, (1.116.4) धन्वनि जलवर्जिते प्रदेशे,
धन्वर्णसः (5.45.2) ‘धन्वतिर्गतिकर्मा’
धन्वाति (3.53.4) गच्छेत् धन्वानि (4.17.2) उदकरहितान्देशान्, (8.20.4)गमनशीलान्युदकानि,
धनवानि (6.62.2) मरुप्रदेशान्