Post – 2018-04-28

प्रसन्नता से जुड़े कुछ और शब्द

मोद (आमोद, प्रमोद)

मोद का भारतीय जीवन में क्या महत्त्व है, इसे दुर्भाग्य से हम इसलिए नहीं पहचान पा रहे हैं कि इसका लाभ आज की राजनीति में मोदी को मिल सकता है, जिनको पीठ की और से देखने वालों को भारत में बुद्धिजीवी कहा जाता है। उनकी चिढ मोदक तक से है। हद तो यह कि हलवाई तक मोदक से चिढ कर इसे लड् डू कहने लगे हैं। मोदकप्रिय मुद मंगलदाता की महिमा के कारण मोदक पूरी तरह लुपत नहीं हो पाया है और न होने दिया जा सकता। यह दूसरी बात है कि मोद का आनन्द से कोई संबन्ध है यह बहुतों को उपसर्ग (आ-, प्र-) अथवा प्रत्यय (-इत) लगने के बाद ही पता चल पाता है।

मोद का अर्थ है, हरा भरा होना (यवो वृष्टीव मोदते, ऋ.2.5.6; ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः , 10.97.3); आनन्द, प्रसन्नता ( कीळन्तौ पुत्रै: नप्तृभिर् मोदमानौ स्वे गृहे , ऋ. 10.85.42 ) , तुष्टि (उपप्रक्षे वृषणो मोदमाना दिवस्पथा वध्वो यन्त्यच्छ,. 5.47.6), उल्लास (यत् पर्जन्य कनिक्रदत् स्तनयन् हंसि दुष्कृतः । प्रतीदं विश्वं मोदते यत् किं च पृथिव्यामधि ।,5.83.9); क्रीडा भाव ( स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते अप्सु यजते परीमणि , 9.71.3), किल्लोल करना, (मुमोद गर्भः वृषभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवाँ अरावीत्, 10.8.2)

ऋग्वेद में जिस मरणोत्तर आनन्दलोक की कल्पना की गई है उसमें इसे आप्तकामता के रूप में प्रस्तुत किया गया है (यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते । कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दः परि स्रव, 9.113.11)

परंतु मोद जल की जिस संज्ञा से संबंध रखता है उसका प्रयोग प्रस्राव (urination) के लिए रूढ़ हो गया, जिसे जीमूत में पाकर ही हम समझ पाते हैं इसका पुराना अर्थ सामान्य जल था.

आह्लाद

आह्लाद ‘आ’ उपसर्ग है यह कहने की आवश्यकता नहीं है, परंतु यह उन शब्दों में है जिनके साथ उपसर्ग न लगा हो तो हम उन्हें तत्काल समझ ही नहीं सकते। इस विषय में मनोरंजक प्रसंग याद आता है। मैंने अपने एक लेख में ‘वदंती’ शब्द का प्रयोग किया था. संपादन के क्रम में इस पर हिंदी के एक बहुत समर्थ व्यक्ति की नजर पड़ी, उन्होंने मुझसे फोन पर जिज्ञासा की कि इसका अर्थ क्या है। हिंदी में इसका पहले शायद किसी ने भी प्रयोग न किया था। उन्होंने स्पष्ट किया के किंवदंती शब्द तो सुना था; वदंती के रूप में प्रयोग देखने में नहीं आया। वदंती का अर्थ है ख्याति या प्रसिद्धि, जब किवदंती संदिग्ध जनश्रुति है। फर्क मामूली है। ‘ किं’ के जुड़ने से संदिधता का भाव आजाता है। मूल शब्द के अभाव में केवल उपसर्ग से कोई शब्द नहीं बन सकता इतना तो सर्वविदित है, परंतु सही प्रयोग भी नया होने पर अटपटा प्रतीत होता है। वह जिस अनुशासन में दीक्षित थे उसमें प्रयोग की नवीनता से अधिक प्रामाणिकता पर बल दिया जाता है और इसलिए उनकी आशंका अपनी जगह पर सही थी, हमारे लिए सही होना सटीकता पर निर्भर था।

परंतु आह्लाद से उपसर्ग निकल जाने के बाद जो शब्द बचता है वह है ‘ह्लाद‘‘/‘ह्राद’ जिसका एक अर्थ ‘हार्दिक’ या हृदय से संबंधित व और दूसरा जल के भंडार या ‘ह्रद’ से संबंधित। अब ‘ह्रदय’, ‘ह्र्द’ और ‘आह्लाद’ तीनों के विषय में यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि इनकी उत्पत्ति जलवाची ‘हर’/’ह्र’ से हुई है. आप चाहे तो हार्दिक अनुरोध है का अनुवाद request with water कर सकते हैं, परं अपनी जिम्मेदारी पर । अंग्रेजी के heart और cord का हृदय से संबंध है, और हो सकता है hard, horror और horrid का भी हो (तु. पूत) ।

प्रसंगवश यह याद दिला दें कि ऋग्वेद में आह्लाद का प्रयोग तो नहीं हुआ है परंतु हार्द (अपस्पृण्वते सुहार्दम् – जो सुहृदयों या नेकदिल लोगों को भी ददूर भगाता है, 8.2.5) का प्रयोगहुआ है। हम जिस अर्थ मे हृदय छलनी कर देने का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में हृदयाविध (उतापवक्ता हृदयाविधश्चित्, 1.24.8 ); किसी के पास दिल न होने (बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम, 10.10.13 – यमदेव, अफसोस है कि तुम इतने खस्ताहाल हो, न तो तुम्हें दिल मिला, न दिमाग) का हवाला है। दिल के कठोर (बज्जर कै छाती) होने और उस पर अपनी प्रेमपाती नुकीली टांकी से लिख कर सहानुभूति पैदा करने पर तो तीन ऋचाएं हैंः
परि तृन्धि पणीनां आरया हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय।
वि पूषन् आरया तुद पणेः इच्छ हृदि प्रियम् ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.5-7

छक कर या जी भर कर पीने का भी मुहावरा चलता था ( शं नो भव हृद आ पीत इन्दो पितेव सोम सूनवे सुशेवः ) साथ ही दिल जलाने का भी । जुए के पासे ठंढा होते हुए भी दिल जलाते है (शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति, 10.34.9) । शत्रुओं का दिल दहलाने (भियं दधाना हृदयेषु शत्रवो पराजितासो अप नि लयन्ताम्, 10.84.7), कलेजा चीरने (ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान्) के मुहावरे भी प्रचलित थे। प्रेमिकाओं की निष्ठुरता के लिए उनके दिल की उपमा लकड़बग्घे से दी गई है (सालावृकाणां हृदयान्येत’ 10.95.15) और दिल मिला कर जी जान से मन चित्त लगा कर काम करने की इबारत तो कुछ लेगों को याद भी होगी (समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वो । समानमस्तु वो मनो यथा वो सुसहासति, 10.191.4)। हम अपनी भाषा में अनवरत परिवर्तन होते रहने के बाद भी हजारों साल के पुराने पदबंध और मुहावरे प्रयोग में लाते हैं यह सोच कर हैरानी होती है।

राग/ रंग/ रंज
राग में जल का साक्षात्कार आसानी से नहीं होता इसके लिए हमें ‘रा’, ‘रे’, ‘री’, ‘रै’, ’ऋ’ की शृंखला पर ध्यान देना होगा जिनमें से प्रत्येक का अर्थ जल है और उसी का प्रयोग धन, किरण, प्रकाश और दूसरे ग्रहों और नक्षत्रों के लिए किया गया है । लगभग इसी स्रोत से रज, राजा और रंज संबंध है। मान्यता है राग का प्रयोग आसक्ति के लिए किया जाता है, परंतु बंगाली में राग मनोमालिन्य के लिए प्रयोग में आता है। यह बात दूसरी है ’अनु-’ उपसर्ग लगने के बाद प्रेम का भाव वापस लौट आता है. ’रज’ के अनेक अर्थों में एक अर्थ जल भी है और रज, राज, रंज में चमक, निर्मलता, रंगीनी, विनोद आज के भाव कभी सांकेतिक और कभी मुक्त भाव से प्रकट होते है। रोचक बात यह है फारसी भाषा में संस्कृत का रंज ( रंजित – रंगा हुआ) रंग में बदल जाता है और राग रंज बन जाता है। इसका यह अर्थ है कि ’राग’ या ’रंग जाने का बहुत प्राचीन काल से लाक्षणिक आशय ग्रहण किया जाता रहा है, और इसलिए इसका प्रयोग मलिनता और आसक्ति दोनों के लिए किया जाता रहा है.

इस प्रसंग में विलियम जोंस की एक टिप्पणी याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था की फारसी भाषा का संस्कृत से वही संबंध है जो भारतीय प्राकृतों का है। उनकी यह टिप्पणी इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि उन्होंने संस्कृत की मूलभूमि ईरान सिद्ध करने का प्रयास किया था। यहां हम इतना ही संकेत करना चाहते हैं कि फारसी के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो भारतीय भाषाओं की प्रकृति के उतने ही अनुरूप है जितने भारतीय बोलियों के शब्द। इनका बहिष्कार करना, हिंदी की प्रकृति को विकृत करने की कुचेष्टा ही कही जाएगी।