Post – 2018-04-19

सभावती विदथी एव सं वाक्

मैं सोशल मीडिया को एक पवित्र मंच मानता हूं । इसकी मर्यादा की रक्षा करते हुए ही हम वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी महासभा है अतः इसके सदस्य के रूप में हमारक उत्तरदायित्व भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है।

पुरानी बातें कुछ लोगों को बासी और बेकार लगती है परंतु इसके बाद भी अपने घर परिवार की मूल्यवान चीजें वे भी भचा कर रखते हैं। इस देश में सभा की मर्यादाओं में एक मर्यादा यह रही है की ऊंची आवाज में या आरोप लगाते हुए या अनर्गल बात न की जाए ताकि वाद विवाद का स्वस्थ पर्यावरण बना रहे । ऋग्वेद का मैं अक्सर हवाला देता हूं क्योंकि मेरा अधिकतम समय ऋग्वेद की पेथियां उलटते पलटते बीता है और उसके वाक्य मेरी स्मृति में दर्ज हैं और मेरे लिए निर्देशक का काम करते हैं, इसलिए इस विषय में भी वहीं से बात शुरू करें। सुपेशा, अपने शरीर को अच्छी तरह वस्त्र में ढकी हुई स्त्री़ की उपमा सभा में प्रयोग में आने वाली संयत और मर्यादित तथा सांकेतिक भाषा से दी गई हैः
गुहा चरन्ती मनुषः न योषा सभावती विदथी एव सं वाक् ।। 1.167.3

एक अन्य प्रसंग में ऊंची आवाज में गर्हित कथन को दंडनीय मानने का संकेत है -समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया । यहां गधे का वध करने की बात नहीं की जा रही है, यह तो उनके लिए बहुत उपयोगी पशु था, और उसका स्वभाव भी बदलना उनके वश में न था। यह है सभा में ऊंची आवाज में अनर्गल प्रलाप वाला व्यक्ति।

बाद के कालों में गणराज्यों में भी इस मर्यादा का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता था।

जो लोग प्राचीन उपलब्धियों को बड़े गर्व से याद करते हैं उनका गर्व भी याद के साथ ही समाप्त हो जाता है उनके आचरण में मैंने आदर्शों का पालन तो दूर उनके निकट पहुंचने की गंभीर कोशिश तक देख नहीं पाता। जो अतीत के गौरवशाली पक्ष को अपनी जुगिप्सा से याद करते हैं उन्होंने तो कर्कश, विक्षोभकारी, उद्वेगकारी उद्गारों को अपने क्रान्तिकारी तेवर की पहचान बना रखा है। उनकी कर्कशता और आक्रामकता के कारण, जौ समय समय पर नितान्त कुरुचिपूर्ण हो जाती है, हमारी गौरवशाली संस्था, संसद में भी विचार विमर्श नहीं हो पाता फिर एक ऐसे मंच के विषय में बहुत अधिक आशाएं पालना उचित नहीं, जिसमें शामिल लोगों के चेहरे नहीं दिखाई देते, केवल उनके कथन ही परिक्रमा लगाते रहते हैं, अर्थात आमने सामने का लिहाज तक नहीं रहता। फिर भी, मैं घोर आसावादी होने के कारण बीच-बीच में संयत भाषा के प्रयोग के लिए आग्रह करता रहता हूं, क्योंकि वही एक चीज है जो विरोधी विचारों के बीच भी आदान प्रदान का रास्ता बनाए रख सकती है।

.ह देख कर दुख होता है कि जिनका मैं उनके अध्ययन, ज्ञान, आयु और काम के कारण आदर करता हूं वह भी अक्सर शिथिल भाषा का प्रयोग करते हैं,अपनी समझ से गालियां भी देते हैं और जब तक उनकी गालियां उनकी सांकेतिकता के बाद भी अभद्र प्र तीत होती हैं। ऐसे लोगों के प्रति आदर घटता है। वामी, कामी, प्रेस्टीच्यूट, भक्त, जैसे प्रयोग तो इतने धड़ल्ले से होने लगे हैं कि जैसे इनका प्रयोग करते समय व्यक्ति को कहीं कोई झिझक महसूस ही न हो।

आज मैंने एक पोस्ट में सड़क की गाली प्रयोग होते हुए देखा। मैं याद दिला दूं हमारे मित्रों की गालियां किसी अन्य तक पहुंचती हों या नहीं, जैसा मैंने हिंसक, अपमानजनक व्यवहार के बारे में कहा था, वह हो किसी के साथ, मुझ तक अवश्य पहुंचता है, उसी तरह गालियां किसी को भी दी जाएं। मुझे अवश्य पहुंचती है , क्योंकि मैं उस समाज से अपने को अभिन्न मानता हूं, जिसका वह भी एक सदस्य है। वह जो कर रहा है मेरे समाज का ही एक व्यक्ति कर रहा है। अपने आचरण पर उसे लज्जा भले न आती हो मुझे लज्जा अनुभव होती है।

मैं मानता हूं एक लेखक की भूमिका एक नैदानिक, एक चिकित्सक, और एक शिक्षक की होती है, इसलिए मैं बार-बार ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करता हूं । यह प्रयास व्यर्थ भी नही गया है । इसलिए मैं उस व्यक्ति का नाम लिए बिना कुछ बातें अंतिम रूप से कहना चाहता हूं।

1. जब आप गंदे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सबसे पहले आप की जबान गंदी होती है। जिसके लिए आपने गंदे शब्दों का प्रयोग किया, उस तक वे पहुंचे या न पहुंचे हैं परंतु, आप की जबान तो आपके मुंह में रह ही जाती है। उस जवान को अपने मुंह में रख करें आप सुखी नहीं अनुभव कर सकते और यदि करते हैं तो आपको शक्ल से मनुष्य होते हुए भी जीव कोटि में अपनी सही जगह का पता अवश्य लगाना चाहिए।

2. यदि किसी के पास सही तर्क प्रमाण और साक्ष्य हों तो कठोर भाषा की आवश्यकता ही न पड़े। दूसरे व्यक्ति को निरुत्तर करने के लिए उतना ही पर्याप्त है। इसलिए गर्हित भाषा का प्रयोग करने वाला स्वतः यह स्वीकार करता है कि वह गलत है उसके पास केवल घृणा और दुर्भावना है अर्थात गाली तो वह दे रहा है परंतु हर दृष्टि से गर्हित वही सिद्ध होता है।

3. यह एक ऐसा वेदर-ओ-दीवार का घर है जिसमें किसी के भी प्रवेश की छूट है अतः आयु, शिक्षा, संस्कार लिंग और धर्म की सीमाओं की चिंता किए बिना सभी लोग किसी चर्सचा में म्मिलित हो सकते हैं और होते हैं । उनमें जो असभ्य हैं उनको चुटकी बजा कर सभ्य तो नहीं बनाया जा सकता, परंतु उनकी एक कमजोरी का फायदा अवश्य उठाया जा सकता है । उनमें सभी अपने को अधिक चालाक, अधिक विट्टी और अधिक ऊंची हैसियत का दिखाने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। यदि इस मंच से जुड़कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि वे सचमुच अच्छी हैसियत के हैं तो भाषा के माधयम से ही उन्हें यह सिद्ध करना चाहिए कि वे अच्छे खानदान के हैं, उनके माता-पिता अच्छे संस्कारों के हैं या थे, और वे भी अच्छी संगत में रहे हैं। यदि इसका ध्यान रखें तो Facebook पर प्रयोग में आने वाली भाषा का स्तर सुधर सकता है और अपने विचारों को तर्क और प्रमाणों के साथ भावावेश से बचकर प्रकट करने की आदत पड़ सकती है।