मैं छाती चीर कर भी अपना सच दिखला नहीं सकता
राजनीतिक जुमलेबाजी के माहौल में जहां सच दलों के साथ बदलता रहता है समस्या विचारों की हत्या करने और उन्हें जीवित रखने के बीच चुनाव की होती है। समस्या बड़बोलेपन और तर्कसंगत विचारों को संयुक्त भाषा में रखने के विकल्पों में से एक के चुनाव की होती है। जिन लोगों के पास पूरा सच और एकमात्र सच जमा होता है, वे अपने से असहमत होने वालों की नैतिक या भौतिक हत्या करने के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं। सच पर कब्जा करने में वे इतनी जल्दबाजी करते हैं कि पूरी इमारत सुनने से पहले अपने नतीजे निकाल लेते हैं । नतीजे निकालने नहीं होते, वे उनके स्टाक में होते हैं और वे उनको अमल में लाने के तिए मौके की तलाश में रहते हैं इसनिए उनकी आहट मिलते ही उन्हे दबोच लेते हैं। ऐसे लोगों की आक्रामक सचाई के भीतर से वास्तविकता की खोज करना असंभव बना दिया जाता है। मेरा यह बोध दिनों अधिक प्रखर हुआ है और उसी अनुपात में मेरी असुरक्षा की भावना बढ़ी है।
अभी इमरजेंसी लगी नहीं थी पर संजय गांधी की बदतमीजियां और उन पर इंदिरा गांधी का मौन सार्वजनिक हो चुका था। संजय गांधी ने एक महिला जज को मिनी बस में थप्पड़ मारा था। जब इसकी सूचना मिली तो मुझे लगा वह थप्पड़ मेरे गाल पर भी पडा है। ठीक ऐसा ही अनुभव तब हुआ था एक SP के साथ उन्होंने ऐसा ही बर्ताव किया था। ठीक ऐसा ही हर त्रासदी के साथ होता है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है की चेतना के स्तर पर मैं स्वतः भुक्तभोगी की स्थिति में पहुंच जाता हूं।
कई बार बस से गुजरते बाहर सड़क पर किसी अन्याय को, खासकर किसी स्त्री या बच्चे पर, होते देख कर अक्सर चीख पड़ता था, और लोग चौंक कर देखने लगते तो लज्जित भी अनुभव करता था कि आखिर देखा तो कई ने था, किसी के मुंह से चीख या फटकार क्यों नहीं लिकली। यदि विश्वास होता मै दूसरों से अधिक संवेदनशील हूं, तो लज्जित अनुभव न करता। व्याधि मानता हूं, पर है तो है।
सामाजिक त्रासदियों पर जो लोग ऐसी स्थितियों में राजनीति प्रेरित रुख अपनाते हैं वे मुझे संवेदनाशून्य, क्रूर और डरावने लगते हैं। वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर जल्द से जल्द शूली पर चढ़ा देने का उनका न्याय मुझे आतंकित करता है। उनका दुश्मन कोई और होता है और उसे अपने रास्ते से हटाने क् लिए हत्या किसी और की कर रहे होते। कराला काली की तरह उन्हें केवल बलि चाहिए, जो भी राह में आ जाय।