हमारी भाषा (११)
चमकता हुआ अंधेरा (ख )
काला, काली,कलंक, कल्मष, कोयला, कोयल, आदि पर ध्यान देने पर इस विषयमें संदेह नहीं रह जाता कि इनका प्रयोग जिन आशयों में आज होता है वे आशय इनसे आरंभ से ही जुड़े रहे होंगे? हम यह नहीं जानते कि इन शब्दों के आशय इनसे कब से जुड़े हैं इसलिए यह मान सकते हैं कालिमा का भाव इन शब्दों के साथ आरंभ से ही जुड़ा रहा होगा। हमारी समस्या यह है कि इनसे कोई ध्वनि पैदा नहीं होली इसलिए इनके नामकरण में किसकी ध्वनि को आधार बनाया गया होगा और उसकी तार्किक संगति क्या हो सकती है? हम यह तो नहीं मान सकते कि कोयल की कूक के आधार पर उसका नामकरण – कोकिल या कोयल (कोइलरि)रखा गया होगा और उसके रंग के कारण उस नाम के आधार पर उनकी संज्ञाएं नियत की गई होंगी।
कारण एक तो इनकी संकल्पनाएँ भिन्न हैं दुसरे काल। उदाहरण के लिए काली का रंग काला है पर संकल्पना का आधार और चरण भिन्न है। यह काल की अवधारणा का मातृप्रधान समुदायों में आनयन है। काल दिन और काली रात । यम दिन और यमी रात। दिन प्रकाशित और रात काली। यह चेतना हमारे समाज में निरन्तर बनी रही है, इसलिए काल को विवस्वान या सूर्य माना ही जाता है, दुर्गा सप्तशती मे काली का वर्णन कालाभ्राभाम कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुलेखां (काल-अभ्र-आभां कटाक्षै: अरिकुलभयदां मौलिबद्ध इन्दुलेखां ) के रूप में किया गया है। यह एक रोचक धज है और एक रोचक ऐतिहासिक विकासयात्रा से जुड़ी है इसलिए मुझे इस पर कुछ विस्तार से अपनी बात कहनी होगी क्योंकि मैं स्वयं भी इससे पहले जो कुछ सोचता रहा हूं वह अब गलत लग रहा है।
यम और यमी की कथा ऋग्वेद में है। यामायन सूक्तों (ऋ. १०.१४-१८) से भी स्पष्ट है कि यमलोक या मरणोत्तर एक ऐसे लोक की जिसमे अजस्र ज्योति है और जिसमें द्वार्ग है, आनंद और मोद है कल्पना (ऋ ९.११४) थी। नरक की भी रही होगी यद्यपि, मेरी जानकारी में अंध तमस से भरे लोक की कल्पना उपनिषत काल से पहले नहीं मिलती (अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः। )
हमारा यह अनुमान है कि काल का वह विकराल रूप जो गीता में विश्वरूप में चित्रित है और काली का वह विकराल रूप जो कपालिनी में देखने में आता है, वह उस भयानक दौर के बाद विकसित हुआ जो हडप्पा के पराभव का कारण बना था जिसमे भारतीय चिंतन में निर्णायक मोड़ आया था। पंचतंत्र में वराहमिहिर द्वारा की गई एक ग्रह दशा का हवाला है जिसमें धरती मुंडमाल पहने राख लपेटे कराल रूप में चित्रित की गई है धरती ही चारों दिशाओं के कारण चतुर्भुजी, चार दिशा-कोणों के जुटने के साथ अष्टभुजा और नीचे ऊपर को भी दिग के रूप में जोड़ने के बाद दशभुजी हो जाती है, वही मातृदेवी भी है यह ऋग्वेद में बहुत स्पष्ट है – यदिन्न्विन्द्र पृथिवी दशभुजिरहानि विश्वा ततनन्त कृष्टयः – और चंडी कालिका की अवधारणा उस भीषण अकाल के बाद पैदा हुई जिसका चित्रण वैदिककालीन आपदा के रूप मे महाभारत में भी हुआ है -ऐसा मेरा ख्याल इस लेख के दौर में बना क्योंकि काल का ऐसा भयानक रूप इससे पहले के साहित्य में मुझे दिखाई नही देता, न ही काली का विकराल रूप पहले नज़र आता है।
हम केवल इतना जोड़ना चाहेंगे कि काले का काली से संबंध दिन रात के अंतर के कारण है। काल यदि अजस्र ज्योति से भरा है तो उसका काले रंग से सम्बन्ध नहीं हो सकता और फिर जो सीमा रंग की है वही काल की है। ध्वनि तो इसमें भी नहीं होती। इसलिए पुनः हमें जल की कल कल ध्वनि का ही सहारा रह जाता है जो पहले जलवाची बना और फिर जिसका उपयोग प्रकाश और इसके निषेध के दोनों आशयों के लिए उपयोग होने लगा। कल का जलर्थक प्रयोग कलेवा, कमल-शान्ति, विकलता (जल बिन मीन की दशा), क्लेद, क्लेश, कलवार, अं. क्ले, क्लाउड आदि में मिलेगा।
यह भी कम रोचक नहीं है कि कोयले के लिए भी अंगार शब्द का प्रयोग होता रहा है और दहकते काठ के लिए भी।
आज हम न काल में समाहित दिक की भारतीय सूझ का विस्तार से विवेचन कर सके जो आइन्स्टाइन से पहले अकल्पनीय थी न अन्धकार के दूसरे पर्यायों को ले सके।
(असमाप्त)