Post – 2018-03-20

हमारी भाषा (७)

दर से दर्पण

दर से दर्द ही नहीं एक पूरी शब्द श्रृंखला जन्म लेती है जिसके शब्द केन्दरीय भूमिक निभाते हुए अपने गिर्द शाब्दावली का जनन करते हैं। इस प्रक्रिया को हम समझ सकते हैं, पर इस तरह उस समूची शब्दावली को संकलित करने का प्रयत्न करें भी तो बहुत कुछ छूट जाएगा।

इस बात का ध्यान रखना होगा कि जल के अनेक गुण है, जैसे द्रवत्व, तृप्तिदायकत, गति और उसकी दिशा, छायाग्राहिता, शीतलता आदि। इसके एक गुण या धर्म से पैदा शब्दावली पर ही ध्यान केन्द्रित करें और हठात दूसरे धर्म से प्रसूत शब्दावली से हठात पाला पड़ जाये तो विश्वास नहीं होगा कि इस शब्दावली की जननी भी वही ध्वनि है या हो सकती है। इसी तरह उदाहरण के लिए एक बार इस बात का कायल हो जाने के बाद कि तर तरु और तर्द (प्रतर्दन, ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द) और दर दारु, दारण और दर्द का जनक हो सकता हौ ( तीखे दर्द में हम फटने का प्योग करते ही हैं – सर फटा जा रहा है), हम दर/ दरवाजा, सं. दरी – कंदरा, गुहा, दर्रा; दरकना, दारुण परन्तु दरिद्र का इससे कोई नाता है यह कुछ खींच-तान जैसा लगेगा। यह याद आने में कुछ समय तगेगा कि जल को सबसे बड़ा धन कहा गया है। धन के सभी पर्याय – द्रव्य, द्रविण, अर्थ, अप्न, नृम्ण, रेक्ण सभी जलवाची हैं। स्वयं धन का अर्थ जल है, इसलिए निर्जल क्षेत्र या रेगिस्तान के लिए धन्व का प्रयोग होता रहा है।

यदि कहें कि दल (पार्टी), दलाल, दलील, और दलित का भी उत्स दर/दल ही है तो झुंझलाहट सी होगी। पर दारण = दलन, >दाल,> दलहन,> दलिया का जनक है। दाल के दोनों हिस्से उस अनाज के भाग या पार्ट है, अत: नया होते हुए भी राजनीतिक संगठनों के लिए यह नाम उपयुक्त है यद्यपि यहा दल समूह सूचक है, न कि विभाजन परक। परनतु दलाल, दलील में दल पक्ष का, दलाल उन दोनों पक्षों के बीच मध्यस्त काऔर दलील उस तर्क के लिए प्रयुक्त है जो दलाल मंबंधित पक्षों को कायल करने के लिए देता है। यह बात दूसरी है कि यह प्ली या आर्गनमेंट के सामान्य अरथ में प्रयुक्त होती है। दलित का भी मूल आशय दले हुए का ही है, पर वह मनुष्य के लिए अव्यवहार्य होने के कारण पददलित के लिए प्रयुक्त है। यह अनाज के डंठल से अनाज को अलग करने का बहुत पुराना तरीका है जो बाद में बर्तन बनाने की मिट्टी को गूंथने और राब से शक्कर बना एजाने के लिए प्रयोग होता रहा।

हम आज की पोस्ट को पानी के चमक वाले पक्ष पर केन्द्रित करना चाहते थे, पर पीछे के इस खुमार ने काफी जगह घेर ली। दर >दर्श > आदर्श = आईना, के विषय में किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। तृष/ तृषा, की तरह दृश, दृक्/दृग, दृश्य,दर्शन, को भी आसानी से समझा जा सकता है पर दर्प = अहंकार नहीं, रौब, अधिकार जन्य आभा इसका मूल आशय लगता और इसी का संबंध दर्पण से हो सकता है। तर>तृप्त की तरह दर/दृप्त रूप भी भी कठिन नहीं। ऋ. में प्रयुक्त द्रापी (पगड़ी) पद से जुड़े दर्प का प्रतीक ही है (बिभ्रत द्रापिं हिरण्मयीम् वरुणो वस्त निर्णिजम्। परिस्पशे निषेदिरे। स्थिर पानी यदि आदिम दर्पण है और क्षुब्ध या तरंगित जल बिगड़ा शीशा तो दर्पण को अपनी संज्ञा भी जल के किसी पर्याय से मिलनी ही थी।

यद इस एक उदाहरण से हम यह समझा सके हों कि एक मामूली अनकारीध्वनि कितने विशाल शब्दभंडार का जनन कर सकती है।सबसे महत्वपूर्ण बात यह कृदन्त (धातुओं से निर्मित संज्ञा) शब्दों के अर्थनिर्धारण में संस्कृत आचार्यों को कोई कठिनाई नहीं आती परन्तु अकृदन्त या तद्धित संज्ञाओं में उनकी उलझन का पार नहीं। सींगको सीग क्यों कहते है, इस पर यास्क की। अटकलबाजियां देखने लायक है। किसी धातु को क्यों वहअर्थ मिला यह भी उनकीसमझ से बाहर रह जाता है। अनुकारी स्रोत परध्यान जाने पर ये पहेलियां स्वत: सिद्ध हो जाती है।