हमारी भाषा (2)
शुद्ध और अशुद्ध प्रयोग
डा. निखिलेश कुमार पाठक भाषाविज्ञान के पंडित हैं। उन्होंने मेरे द्वारा इंगित अशुद्ध प्रयोगों के संदर्भ लिखा है, ‘उपरोक्त’ भी ऐसा ही प्रचलित किंतु ‘अशुद्ध’ शब्द है।
मैंने पहले अपना मंतव्य टिप्पणी के रूप में देना चाहा, पर तभी लगा समस्या बहुत महत्वपूर्ण है। इस पर विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए। मेरे विचार न तो आधिकारिक हैं, न ही इनको सही मानने की जरूरत है। मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं, और चाहता हूं कि दूसरे भी अपना पक्ष रखें, ताकि हम यह समझ सकें की हिंदी भाषा की शक्तियां और सीमाएं क्या हैं। भाषा, चाहे नितान्त अविकसित हो तो भी, इतनी समृद्ध होती है कि कोई मूर्ख ही यह दावा कर सकता है कि उसे उसके समग्र भंडार पर इतना अचूक अधिकार है कि कोई साधारण जानकारी रखने वाला व्यक्ति उसमें कोई वृद्धि नहीं कर सकता। मिसाल पुरानी है, फिर भी मक्खन से लबालब भरे प्याले में एक तिनके की जगह बची रहती है और ये तिनके ऐसे ऐसे कोनों-अँतरों में बिखरे और दुबके पड़े रहते हैं कि जितनी बार तलाशो, कुछ न कुछ ऐसा हाथ लग ही जाता है जो हमें चकित कर जाए। भाषा के सम्मुख विनय ही एकमात्र गर्व का विषय हो सकता है।
आधुनिक भारतीय बोलियों में दो ऐसी हैं जिनको अपनी विशेषताओं पर गर्व है। किसी दूसरे के अनुसार ढलना जरूरी नहीं मानतीं। एक है बांग्ला और दूसरी है मराठी। हिंदी के साथ आरंभ से ही समझौते का दबाव बना रहा है। पहले फारसी और उर्दू का, फिर संस्कृत और अखिल भारतीय अपेक्षाओं का, और हाल में अंग्रेजी का कि यह अपनी सही प्रकृति को पहचान ही न सकी। एक ओर यह राजभाषा होने का गर्व पालती है और दूसरी ओर इसे इस पात्रता के लिए इसे दूसरी सभी भारतीय भाषाओं के अनुसार समायोजित होने को बाध्य किया जाता रहा। मुझे याद है तकनीकी शब्दावली के निर्माण के समय ऐसे विद्वान थे जो इस बात पर जोर देते थे यदि हिन्दी को भारतीय स्वीकार्यता पानी है तो इसे दूसरी भाषाओं से तकनीकी शब्दों का भी आयात करना चाहिए।
इसी तरह का दबाव राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के माध्यम से वर्णमाला को लेकर डाला गया था। इसमें स्वर अक्षरों और मात्राओं की भिन्नता को कम करने के लिए मात्रा चिन्हों को अ के साथ लगा कर पूरी स्वरमाला तैयार की गई थी (अ, आ, अि, अी, अु, अू आदि)। इसके प्रस्तावक स्वयं गांधीजी थे। उन्हें इसकी सलाह किसने दी थी, यह हमें मालूम नहीं । हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक अधिवेशन में निराला जी इस सवाल पर गांधीजी से झगड़ पड़े थे। गांधीजी अपने विचारों में बहुत दृढ़ थे । जो तय कर लिया उसमें आसानी से बदलाव नहीं करते थे। इस मामले में भी नहीं किया। परंतु गांधी जी का यह प्रयोग गलत था। हिंदी को एक काल्पनिक देश की राष्ट्रभाषा नहीं बनना था। उसे भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव था जिसकी सभी भाषाओं की लिपियों में स्वर अक्षर और मात्राओं में उसी तरह का अलगाव है जैसा हिंदी में । इसलिए भारतीय स्वभाव और अक्षर ज्ञान की परिधि में नागरी का परंपरागत रूप अधिक वैज्ञानिक था और गांधीजी का सुझाया रूप अव्यावहारिक। हम इसके अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहते क्योंकि यह हमारा आज का विषय नहीं है और आज हिंदी के लिए जिस वर्णमाला का प्रयोग होता है वह गांधीजी द्वारा सुझाई गई वर्णमाला नहीं है। हम इसके द्वारा केवल यह याद दिलाना चाहते थे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के उत्साह में इसकी प्रकृति को बहुत दूर तक ऐंठा-मरोड़ा गया। इनमें सबसे खतरनाक था यह मानकर चलना कि संस्कृत से पूरे भारत का परिचय है, इसलिए तत्सम रूप और संस्कृत के आधार पर तैयार की गई तकनीकी शब्दावली पूरे भारत के लिए अधिक सुकर होगी। उसके परिणाम से हम परिचित हैं। हम जानते हैं सरकारी हिन्दी भाषा न रहकर जार्गन में बदल गई जिसका केवल कर्मकाडीय उपयोग ही हो सकता था। मुझे ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए ऐसा योजनाबद्ध रूप में किया गया।
यह बात समझनी होगी कि हिंदी संस्कृत की तुलना में बहुत अधिक समृद्ध भाषा है। आवश्यकता पड़ने पर यह समूची संस्कृत शब्दावली का उपयोग कर सकती है और उनके तद्भव रूपों के अर्थ वैभव पर गर्व कर सकती है। सच्चाई तो यह है संस्कृत का समस्त शब्द भंडार बोलियों से निकला है जैसे मिठाई की दुकान का समस्त माल खेतों और चरागाहों से निकला और प्रसाधित होते हुए पकवानों और मिष्ठान्नों में बदला है। खेत और किसान हलवाई के ऋणी नहीं परंतु हलवाई किसान से उऋण नहीं हो सकता। प्रकृति सिद्ध चीजें नहीं पैदा करती । वह कच्चा माल पैदा करती है। बोलियों का संस्कृत से यही संबंध है। संस्कृत बोलियों की ऋणी है, बोलियां संस्कृत की ऋणी नहीं हैं। इस तथ्य को समझ लेने के बाद हम इस बात की अपेक्षा नहीं कर सकते कि हिन्दी संस्कृत की कसौटी पर अपने को सही सिद्ध करने को विकल रहे, परन्तु यह अपेक्षा अवश्य करते हैं जहां वह साधित रूपों को अपनाए वहां उनकी शुद्धता का ध्यान अवश्य रखे।हमारी आज की चर्चा इसी विभाजन रेखा के आर पार है।
पाठक ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया था उस पर हम इसी दृष्टिकोण से विचार कर सकते हैं। अ+उ =ओ, ऊपर+उक्त = ऊपरोक्त। यह हिन्दी हुआ, क्योंकि हिन्दी का शब्द ऊपर है, उपरि नहीं जिससे उपर्युक्त शब्द बनता। जो लोग उपरोक्त को तत्सम मान कर प्रयोग करते हैं वे गलत हैं, यदि ऊपरोक्त लिखते, और यह सोच कर लिखते कि वे हिन्दी शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो सही होते। परन्तु हम किसी से इस बात की अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह पहले संस्कृत सीखें और फिर उसके बाद हिंदी में लिखना बोलनाआरंभ करें। भाषा में मौलिक प्रयोग वे लोग करते हैं जो पक्के विद्वान नहीं होते और जब ऐसे लोगों द्वारा कोई प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगता है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। संस्कृत के व्याकरण के अनुसार बहुत से ऐसे शब्द बनते हैं जिनका हम प्रयोग ठीक उसी रूप में नहीं करते हैं संस्कृत में राष्ट्रिय लिखा जाता है जबकि हिंदी में हम राष्ट्रीय का प्रयोग करते हैं, संस्कृत में अंताराष्ट्रिय होगा, हम हिंदी में अंतरराष्ट्रीय का प्रयोग करते हैं। अतः ये तत्सम रूप नहीं हुए, हिन्दी रूप हुए और संस्कृत के आचार्य को भी हिन्दी लिखते समय इन्हीं को प्रयोग में लाना होगा।
कुछ शब्द ऐसे हैं जिनको संस्कृत में गलत लिखा जाता है और यह प्रयोग संस्कृत के कोशों तक में देखने में आता है। उदाहरण के लिए चिन्हित। शब्दकोशों में यह चिह्नित के रूप में लिखा पाया जाता है, तत्सम शब्दों का सही प्रयोग करने की चिंता करने वाले बहुत से लोग चिह्नित लिखते हैं जबकि यह गलत है। गलत होने के दो कारण हैं । पहला यह कि हिंदी में चिन्हित बोला जाता है ना कि चिह्नित। दूसरा यह कि यह चिन् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है आग जिसे चिंगारी, चिनचिनाहट – जलन या चिनार के पेड़ में देखा जा सकता है, जो प्रकाशित, निशान या चिह्न के लिए प्रयोग में आता है, दूसरे शब्द हैं जिनका इस समय मुझे ध्यान नहीं है परंतु हम उनको बोलियों के माध्यम से समझ सकते हैं।
मैं जिस बात के लिए मराठी और बांग्ला की प्रशंसा कर रहा था वह यह कि ये संस्कृत के अनुसार सही होने की चिंता नहीं करतीं। मराठी में सबसे अधिक बेफिक्री देखी जा सकती है। बहुत से शब्द जो संस्कृत में इकारांत हैं, मराठी उनको ईकारान्त कर देती है। हिंदी में मध्यकाल तक यह छूट दी जाती रही और यह सही था, केवल वर्तमान में आकर तत्समप्रियता बढ़ी है आैर उसके साथ इसकी कृत्रिमता और दैन्य भी।
हम कह रहे थे की संस्कृत के तत्सम रूपों की तुलना में तद्भवों से बना शब्द भंडार कहीं अधिक प्रभावशाली है। यह सुनने वालों को अति कथन प्रतीत हुआ होगा । हम इसे समझने की कोशिश करें । संस्कृत की एक धातु है खाद्, जिसे खाद्य बनता है। मैं नहीं जानता कि खाद्य के अतिरिक्त संस्कृत में इससे कितने शब्द बनते हैं, परंतु हिंदी में खाना, खाद, खूराक, खादर, खदरना और मल्लिका भोजपुरी में खयका – भोजन, खब्भू, खद्धक – अपनी कद काठी को देखते हुए अधिक खाने वाला, खखाइल- किसी चीज को पाने की अभावजन्य आतुरता। और लीजिए, इसका प्रत्यय(?) वाला ऱूप (-खोर) तो छूटा ही जा रहा था जो लतखोर, गमखोर, हरामखोर से लेकर घूसखोर, रिश्वतखोर, आदमखोर, तक जानें कितने शब्दों का जनक है। अब आप तय करें कि सांचे में ढली संस्कृत में अधिक ओजस्विता है या जमीन से जुड़ी बोलियों में? कौन किसकी जननी है? मूल रूप किसके थे और बनाया बिगाड़ा (तद्भवीकरण) किसने?