Post – 2018-02-27

क्रान्ति का चरित्र : कृषिक्रान्ति के प्रकाश में

दुनिया में अभी तक दो ही क्रान्तियां हुई हैं – एक कृषिक्रान्ति और दूसरी औद्योगिक क्रान्ति। एक भूसंपदा पर आधारित, दूसरी उद्योग आधारित,। एक में मनुष्य पेशीय बल का, और निसर्गजात क्षमताओं का प्रयोग करता था, और पेशीय बल को कम और और काम को आसान बनाने के लिए कुछ युक्तियों का प्रयोग करता था जिनके विकास में उसकी प्रतिभा और बौद्धिक क्षमता का उपयोग हुआ था, इसलिए असाधारण शारिरिक बल या प्रतिभा का समाज में असाधारण सम्मान था। औद्योगिक क्रान्ति में मनुष्य की महिमा घटती और मानवेतर शक्तियों की महिमा बढ़ती गई है और जिस बौद्धिक उत्कर्ष पर मनुष्य को गर्व रहा है वह तन्त्र का सहयोगी बन कर अपनी निजता खोता चला गया है और स्थिति वह आ सकती है जिसमें प्रबुद्ध यन्त्र वे सभी काम अधिक निपुणता से और आनन फानन में कर सके और मनुष्य एक फालतू चीज बन कर रह जाए और सारे संसाधन, सारी निपुणताएं कुछ एक लोगों के हाथ में सिमट कर रह जाएं। यह वह बोधवृत्त है जिसमें मैं वस्तुगत यथार्थ को देखता और समझता हूं, परन्तु जिसके सही होने पर मुझे भी भरोसा नहीं।

हम मूल प्रश्न पर आएं । क्रान्ति राजसत्ता का परिवर्तन नहीं व्यवस्था का रूपान्तरण है, जिसे सत्ता पर अधिकार से नहीं बदला जा सकता यद्यपि मनुष्य की गरिमा और निजता को सत्ता के आतंक कुचल कर हाड़ मांस के यन्त्रमानवों में बदला और उस यान्त्रिकता पर ही गर्व करना सिखाया जा सकता है। यंत्रमानवों की तरह बौद्धिक और सर्जनात्मक काम तक किए जा सकते हैं।

क्रान्तियां अपनी शक्यता में असंख्य अनुसंधानों और आविष्कारों को अपरिहार्य बनाती हुई हमारे भौतिक जीवन, बौद्धिक सक्रियता और आन्तरिक स्वभाव को बदल देती है या अपने दबाव से इसके लिए विवश कर देती हैं और यह परिवर्तन अपनी प्राथमिक अभिव्यक्ति से इतना अलग और स्वायत्त विकास करता है कि यदि कोई कहे कि यह अमुक के कारण हुआ है तो विश्वास करना कठिन हो जाता है। यह समझने में समय लगता है कि यदि वह न हुई होती तो यह संभव न होता। कहें किसी भी क्षेत्र में बल प्रयोग से कुछ नही कराया जाता, अपितु ऐसी अनिवार्यता पैदा हो जाती है कि उसे बलप्रयोग से भी रोका नहीं जा सकता, दिशा कुछ दूर तक प्रभावित हो सकती है। रोधक सत्ता के कारण कुछ समय तक उसमें ठहराव का भ्रम पैदा हो सकता है पर यह उस अवरोध को तोड़ने की क्षमता जुटाने का अन्तराल मात्र है।

यदि हम कहते कि ज्योतिर्विज्ञान और गणित का विकास खेती के कारण हुआ तो सुनने वाले को हमारी मूर्खता पर ठहाका लगाने का अधिकार मिल जाता, परन्तु जब हम पाते हैं कि बोआई का सही समय बीत जाने के बाद बीज के रूप में डाला गया अनाज भी बर्वाद हो सकता है, उस पर किया गया श्रम अकारथ जा सकता है तो हंसी रुक जाती है, और जब प्राचीन कृतियों में इस दुखद अनुभव के प्रमाण भी मिलते है तब समझ में आता है कि सही समय का ज्ञान, वर्ष के सही दिनों की गणना, इसके लिए गिनती का तरीका निकालना, कितने लंबे ऊहापोह के बाद वर्ष के दिन तय कर पाना कितना जरूरी था। मिस्र में इस गणना की जरूरत न थी। वहां कहते हैं नील नदी में बाढ़ ठीक एक साल बाद आती थी, यदि न आती तो भी हरज न होता क्योकि जब भी बाढ़ आती और उतरती तो उसके कारण गीली मिट्टी में ही बीज छींट कर उस पर सूअर दौड़ा देते थे। उनके पांवों से बीज नीचे दब जाते थे और जोतने और परतारने की झंझट न रहती। मिलती जुलती दशा दजला फरात के कछार की थी। बरफ पिघली तो बाढ़ आई और खेती का काम उसी से निर्धारित। यह समस्या भारत में थी जहां बरसात का अलग मौसम था और सही समय का निश्चय करते हुए खेती की तैयारी जरूरी थी। इसलिए दिन गणना के लिए लकीर खीचते जाते। इस लकीर को बार (वार) कहा जाता। एक चिन्ह, एक दिन। शनिवार रविवार संज्ञाएं कब आरंभ हुईं इसका हमें पता नहीं पर इनमें प्रयुक्त वार का अर्थ दिन है और एक के बाद एक वार चिह्न से वारंवार या बार-बार का संबंध इसी वार से है। संभवत: बराबर / बरोबर का भी संबंध इसी से है, जितनी रेखाएं एक ओर उतनी ही दूसरी ओर । बंटवारे में वह फल हो या कन्द, जितने भागीदार हैं उनको एक एक कर रखते जाना। गणना का एक दूसरा तरीका था लता हो या तांत या रस्सी उसमें गांठ लगाते जाना। गांठ को पर्व कहते थे और दोनों पक्षों की विशेष तिथियों को और विशेष आयोजनों को पर्व बना कर उन्होंने समय में गांठें लगाई थी। गणना, दिनमान, पक्षमान, ऋतुमान और वर्षमान निकलते हुए बढ़ी थी ज्योतिर्विज्ञान की यह यात्रा। ऋतुकाल के लिए सौर गणना आरंभ से ही जरूरी थी, चान्द्र गणना में कोई समस्या न थी। ऋग्वेद में चान्द्र और सौर गणनाओं के समायोजन की और इससे उत्पन्न अधिमास का स्पष्ट उल्लेख है, फिर भी मैक्समूलर आदि दुराग्रहपूर्वक यह लादते रहे कि भारतीयों को ज्योतिष का ज्ञान उस पश्चिम से हुई जहां सौर गणना आज तक चेतना का हिस्सा नहीं बन पाई।

प्रसंगवश एक दूसरी मूढ़ता का संकेत कर दें। ऋग्वेद के समय में पांच वर्ष की अवधि को युग माना जाता था। जैसे दो बैलों को एक सीध में जुग/ जुआठ (युग) में जोता जाता है, बैसे चांद्र और सौर वर्षों के इस समायोजन (बराबरी पर लाकर जोतना) को भी युग कहते थे। ममता के पुत्र अन्धतमस दसवें युग में ही बुढ़ा गए थे (अंधतमा मामतेय: जुजुर्वान दशमे युगे) परन्तु इसका अर्थ यह लगा लिया गया कि ऋग्वेद के समय तक लंबे युगों की कोई अवधारणा नहीं थी, जब कि उसी कृति में देवों के प्रथम युग का उल्लेख है, (देवानां पूर्व्ये युगे असत: सद् अजायत, १०.७२.२) तीन युग पहले उगाई गई ओषधियों (अनाजों) का हवाला है, ( या ओषधी: पूर्वा जाता देवेभ्य: त्रियुगं पुरा, १०.९७.१)। यह सच है कि सतयुग आदि की अवधारणा न थी।

यह रोना रोने की जरूरत है कि वैदिक साहित्य का नृतत्व, पुरतत्व, भाषाविज्ञान के प्रामाणिक अंश के सन्दर्भ में नए सिरे से अध्ययन की जरूरत है और आज यह इसलिए संभव है कि इसके लिए हम कंप्यूटर की सुविधा का लाभ उठा सकते हैं जिसका उपयोग करते आने के कारण मुझे वे पहलू दीख सके जो पहले किसी को न दीखे थे।

हम बात क्रान्ति के अवश्यंभावी चरित्र की बात कर रहे थे जो हमारी समस्या का एकमात्र हल बन कर आती है। अभाव के दिनों की बुभुक्षा का समाधान बन कर आई खेती जिसे विरोध के होते हुए असुर समाज के बहुतों ने कुछ झिझकते हुए अपनाया और देव समाज के अंग बन गए। खेती की अपनी अनिवार्यता में अपने ही समुदाय का तिहरा विभाजन कराया, यत्र तत्र से कुछ जोड़ने जुटाने की अपेक्षा कृषिकर्मियों से उपयोग की चीजें और सेवाएं देकर उनसे बदले में अनाज पाने को अधिक आसान मानने और स्वयं खेती करने की वर्जना से मुक्त न हो पाने की विवशता ने विविध योग्यताओं वाले जनों को सुलभ कराया जिनको शूद्र की अतिव्यापी संज्ञा से अभिहित किया गया। पुरुषसूक्त में शूद्र की उतपत्ति पांव से हुई यह तो उतना ही गलत है जितना दूसरों की अन्य अंगों से उत्पत्ति फिर भी उनको जिन अंगों से उत्पन्न दिखाया गया वह उनके कार्यभार के अनुरूप ही है। सेवा या सहायता में उपस्थित होने वाले को भागदौड़ करने वाला, चाकर (चक्कर लगाने वाला) कहा ही जाता है। शूद्र का पांव से जन्म या संबंध मानापमान से परे एक वस्तुपरक वर्गीकरण था।

ऋतुओं ने समस्या पैदा की उसका समाधान तलाशा गया और ज्ञान की एक स्वतंत्र शाखा का जन्म हुआ जो फिर गणित, ज्यामिति, बीजगणित, ज्योतिष आदि में विकसित हुआ। घुन आदि से कम से कम बीज को बजाने की युक्तियां तलाशते हुए कृमिरोधी उपायों का विकास हुआ (पहले उन्होंने राख मिला कर बीज को बचाने का तरीका निकाला फिर दूसरी युक्तियां।

परिवहन की समस्या सुलझाने मे उनसे अधिक उन शूद्रों की भूमिका थी जिन पर वहन का भार आ पड़ा था, जिसमें पशुओं को पालना, छानना, बांधना, बधियाकरण आदि और पहिए से लेकर रथ/गाड़ी का आविष्कार आदि आता है। पहिए के आविष्कार में तीन भाषाई समूहों ने तीन तरह की युक्तियों का विकास किया जिसके विस्तार में जाना संभव नहीं । इसी तरह नौवहन में सुधार दूसरे कर रहे हैं परन्तु सुविधा कृषिजीवी समाज को ही नहीं हो रहा है अपितु इससे व्यापारिक गतिविधयों के आरंभ, विकास और नए तरह के सामाजिक संबन्धों का आरंभ हो रहा है।

सूखे चबाने में कठिन बेस्वाद अनाजों के कूटने, पीसने, पकाने के क्रम में एक ओर रसायनशास्त्र का बीजा रोपण हो रहा है तो दूसरी ओर पकाने, खाने के भांडों का विकास जिसके लिए काठ, पत्थर, मृदंभांडों का विकास, इनके पकाने में ताप की मात्रा का ध्यान या तापविज्ञान जिससे ईंटों से लेकर धातुविद्या तक के विकास का रास्ता खुलता है।

इनकी संख्या गिनाना जरूरी नहीं। यह रेखांकित करना जरूरी है कि इसमें कहीं बलप्रयोग की जरूरत नहीं पड़ी। क्रान्तियां अपने औजार, अपने सामाजिक संबन्ध अपने विकास की दिशा, अपने दबाव से, अपनी आन्तरिक त्वरा से स्वयं पैदा करती हैं। बल की जरूरत संपत्ति को उस पर अधिकार जमाने वालों के हाथ में बनाए रखने के लिए पड़ती है। इसलिए इस तरह के दावे कि अमुक ने आक्रमण किया अमुक को हराया, अमुक काम के लिए बाध्य कर दिया इतिहास की नासमझी, सामाजिक सबंधों की नासमझी और क्रान्ति के चरित्र की नासमझी की उपज है।