Post – 2018-02-11

आर्यों ने क्या किया
(लेख लंबा होकर भी अधूरा ही रह गया)

यदि कोई पूछे आर्यों ने क्या किया तो, इसका उत्तर होगा, ‘उन्होंने खेती की, व्यापार किया और धन के दूसरे स्रोतों को अपने अधिकार में रखा, अपनी सेवा में लगाया, क्षत्रियों को अपनी और अपने माल असबाब की रक्षा के काम पर और ब्राह्मणों को यज्ञ, पूजा और कीर्तन के माध्यम से देव शक्तियों अनुकूल बनाते हुए अपने अनिष्ट के निवारण के काम पर, और शूद्रों को श्रम और दक्षता के दूसरे उपक्रमों में अपनी सहायता के काम पर लगाए रखा।‘ दूसरे शब्दों में कहें तो, उनका सारा प्रयत्न संपदा और संसाधनों को अपने अधिकार में रखने और समाज का ऐसा प्रबंधन करने तक सीमित था जिससे वे संपदा पर अपना अधिकार बनाए रख सकें।

अब इस समस्या पर एक दूसरे सिरे से विचार करें : क्या क्षत्रिय या ब्राहमण को आर्य कहा जा सकता था? यह प्रश्न कुछ ऐसा ही है जैसे यह पूछना कि क्या उन्हें आज सेठ, महाजन, साहूकार कहा जाता है? नहीं, सामुदायिक रूप से इनका प्रयोग वैश्यों के लिए भी नहीं किया जाता है। वैश्यों में भी किसी गरीब बनिये के लिए इन शब्दों का प्रयोग प्रयोग करें तो व्यंग्य जैसा लगेगा। ये शब्द हैं मात्र आदरसूचक पर इनका प्रयोग हैसियत से जुड़ा है, वह धन संपदा की आढ्यता से जुड़ा है। अन्य व्यक्तियों के सम्मानित होने पर, चाहे वह वय के कारण हो, या योग्यता के कारण हो, स्वदेश में इसका भेदक प्रयोग होता था, इसलिए श्रेष्ठता या बड़प्पन का भाव स्पष्ट था। विदेशों में बड़े साहूकारों के ही अड्डे थे इसलिए उनका परिसर और फिर उसके कार्यकलाप के क्षेत्र के लिए संभवत: इसका प्रयोग होता रहा।

देश में हों या परदेस में, ये निश्चिन्त कहीं नहीं रह पाते थे। बस्तियां तो रक्षा प्राचीर बना कर बसाते ही थे जिनमें बाहर के किसी व्यक्ति का प्रवेश बहुत सीमित और काफी जांच पड़ताल के बाद ही संभव था, कारोबार के सिलसिले में या माल-असबाब लेकर चलते समय, रास्ते में जान-माल का संकट बढ़ जाता था। सच कहें तो अपने घर में भी वे चैन की नींद नहीं सो पाते थे।

यहां हम ऋग्वेद के कुछ मंत्रों का ग्रिफिथ द्वारा किया गया अनुवाद यह समझने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं कि खींचतान के बाद भी उनके अनुवाद में भी इस बात की चिंता पूरे ऋग्वेद में पाई जाती है कि वे सभ्य और शांति प्रेमी लोग थे जो एक ऐसे परिवेश में, जिसमें शेष जगत बर्बरता से ग्रस्त था, तरह-तरह के संकटों से घिरे हुए थे और अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते थे और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था के बाद भी देवताओं से गुहार लगाते थे कि वे उनकी रक्षा करें:
स नः दूरात् च असात् च नि मर्दत्घात अघायोः ।
पाहि सदं इत् विश्वायुः ।।
Lord of all life, from near; from far, do thou, O Agni evermore
Protect us from the sinful man. 1-27-3

ऊर्ध्वः नः पाहि अंहसः निकेतुना विश्वं समत्रिणं दह ।
कृधी न ऊर्ध्वान् च रथाय जीवसे विदा देवेषु नः दुवः ।।
Erect, preserve us from sore trouble; with thy flame burn thou each ravening demon dead.
Raise thou us up that we may walk and live. so thou shalt find our worship mid the Gods. 1-36-14

पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ।।
Preserve us, Agni, from the fiend, preserve us from malicious wrong.
Save us from him who fain would injure us or slay, Most Youthful, thou with lofty light. 1-36-15

स शेवृधमधि धाः द्यम्नमस्मे महि क्षत्रं जनाषाट् इन्द्र तव्यम् ।
रक्षा च नो मघोनः पाहि सूरीन् राये च नः स्वपत्यै इषः धाः ।।
So give us, Indra, bliss-increasing glory give us great sway and strength that conquers people.
Preserve our wealthy patrons, save our princes; vouchsafe us wealth and food with noble offspring. 1-54-11

त्वं नः अस्या इन्द्र दुर्हणायाः पाहि वज्रिवः दुरितादभीके ।
प्र नः वाजान् रथ्यः अश्वबुध्यान् इषे यन्धि श्रवसे सूनृतायै ।।
Indra, preserve thou us from this affliction Thunder-armed, save us from the misery near us.
Vouchsafe us affluence in chariots, founded on horses, for our food and fame and gladness. 1.121.14

मैंने एक ही मंडल के कुछ सूक्तों में प्रयुक्त पाहि (प्राण रक्षा करो) को तलाश कर इन नमूनों को पेश किया है। पूरे ऋग्वेद में इसकी आवर्तिता बहुत अधिक है। रक्षा की पुकार के लिए त्राहि (त्राहिमां मां देवा निजुरो वृकस्य), अव (जहां यह क्रिया रूप में प्रयुक्त है। इन्द्र वाजेषु नो अव सहस्र प्रधनेषु च) आदि का भी प्रयोग हुआ है, पर साथ ही देवताओं से याचना की गई है कि ‘ऐसी नौबत न आने पाए’ जिसमें ‘मा’ का और ‘न’ प्रयोग हुआ है (मा नो दु:शंस ईशत – दुष्ट हमारे ऊपर हावी न हो जाय)। अन्यथा भी वे अपने भयभीत रहने की बात करते हैं (स्वप्ने भयं भीरवे मह्यं आस – मुझ भय-कातर जन को सपने में भी डर सताता रहता है)। दूसरे सन्दर्भों में भी बार बार उनकी चिन्ता प्रकट होती है – ता नो वसू सुगोपा स्यातं पातं न: वृकात् अघायो:।

जब मैं कहता हूं यह पूरा पाठ, यह गढ़ा हुआ इतिहास जालसाजी का नमूना है तो इसलिए कि इसमें जबरदस्ती, धौंस के बल पर हर कड़ी को उलट कर पेश किया गया। जो डरा हुआ था उसे हत्यारा, क्रूर, युद्धोन्मादी सिद्ध किया गया। जिस पर लुटेरों, बटमारों का हमला हो रहा था, उसे एक सभ्यता पर आक्रमणकारी सिद्ध कर दिया गया। इसका लगातार कई कोनों से, जिनमें भी इसी तरह की धांधली की गई थी, इस तरह शोर मचाया जाता रहा कि, वैदिक का ज्ञान न सही, किसी ने पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किए गए अनुवादों तक को नहीं देखा, जिनमें सारी खींचतान के बाद भी, उन अनुवादकों तक ने स्वीकार किया था कि ऋग्वेद में आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं मिलता।

हम आर्यों के काम काज की बात कर रहे थे, और माल-मता संभालने और उससे जुड़ी आशंकाओं के अनावश्यक विस्तार में चले गए। हम जिस प्रश्न को केन्द्र में रखना चाहते थे वह यह कि जिन कामों का श्रेय हम आर्यों को देते रहे हैं क्या वे उन्हें करते भी रहे हैं?

आर्यों को जाली इतिहास में भी पशुपालक बताया गया है और वर्ण धर्म में भी गोरक्षा उनका कार्य भार माना गया है। कृषि और वाणिज्य तो माना ही गया है? क्या यह संभव है कि वही व्यक्ति खेती भी करे और गोरू भी चराए ? या वह खेती भी करे और वाणिज्य भी करे? यदि नहीं तो मानना होगा कि पशुपालन करने वालों और किसानी करने वालों को भी आर्य कहा जाता था। यदि ऐसा नहीं है तो मानना होगा आर्य धन दौलत का जुगाड़ करने और उसी के बल पर दूसरों से वे काम कराता था और स्वयं उनके लिए साधन जुटाता, उन की निगरानी करने का काम करता था।

ऋग्वेद में ऐसे संकेत आए हैं जिनसे प्रकट होता है कि पशुओं का मालिक कोई और है और उन्हें चराने वाला (गोप) कोई दूसरा। खेत का मालिक कोई और है और कीनाश या हलवाहा अलग से एक पेशा बन चुका था। संक्षेप में कहें तो ऋग्वेद में कार्यविभाजन हो चुका है, और ऐसा वर्ग अस्तित्व में आ चुका है जो केवल अपने श्रम और दक्षता के माधयम से अपनी जिविका अर्जित करता था, स्वामित्व दूसरे के हाथ में था जो इसके श्रम के उत्पाद को तो अपना मानता ही था, उत्पादक के काम का श्रेय भी उसे ही दिया जाता था। ऐसा आर्यों के हमले की बात करने वालों की कृतियों में खास तौर से इसलिए किया गया कि बर्बर जनों को सभ्यता का जनक सिद्ध किया जा सके।

उदाहरण के लिए उनके द्वारा दावा यह किया जाता रहा कि अश्वपालन का, वन्य अश्व को पकड़ने, पालने, प्रशिक्षित करने का काम आर्यों ने किया, परन्तु भारतीय स्रोत और परंपरा कहते हैं कि अश्व वैदिक समाज को सिन्धियों के माध्यम से प्राप्त होता था और इसलिए इसका एक पर्याय सैंधव है। दूसरी ओर हम पाते हैं कि जिस मध्य एशिया से आर्यों को भारत पर हमला कराया जाता था, उस पर सिन्धियों का दबदबा इतना था कि उसे सिन्तास्ता या सिन्धियों का देश कहा जाता रहा। ये सिन्धी सिन्धु नद के क्षेत्र से वहां जा कर बसें थे, क्योंकि उन्होंने कतिपय नदियों का नामकरण सिन्धु की सहायिकाओं के नाम पर रखा था। इसके दो सरलार्थ हुए । एक यह कि वे वैदिक आर्यों के लिए अश्व का कारोबार करते थे, इसलिए उनकी संपर्क भाषा संस्कृत हो चुकी थी। अश्व और उसके रंग आदि के नाम इसी कारण संस्कृत में है। दूसरी संभावना यह कि उनके अश्वपालन की दक्षता का उपयोग वैदिक व्यापारी कर रहे थे। कारोबार के मालिक ये थे और सहायक या असली काम में उन्होंने सिन्धी जनों को लगा रखा था।

इसकी पुष्टि पश्चिम एशिया के उन अभिलेखों और देवनामों और व्यक्तिनामों से होती है, जो सभी वैदिक हैं, पर अशवपालन पर जो पाठ था जिसकी भाषा प्राकृत या संस्कृत का अपभ्रंश है, परन्तु प्रशिक्षक का नाम किक्कुली है, जो निश्चय ही अवैदिक है। इस तरह अश्वपालन का जो श्रेय आर्यों को दिया जाता रहा वह गलत था, इसका श्रेय इतर जनों को जाता है।

यह कहना भी गलत है कि आर्यों ने पहिए का आविष्कार किया । हमने एक शोधपत्र में यह बताया था कि पहिए के आविष्कार तीन-चार भिन्न भाषाई समुदाय के लोग कर रहे थे, जिनमें एक आर्यभाषी भी थे, परन्तु अरायुक्त पहिए का आविष्कार भृगुओं ने किया था जो असुर परंपरा के थे।

प्रसंगवश यह भी जिक्र कर दें कि अश्व शब्द के परवर्ती प्रयोग के कारण पाश्चात्य विद्वान इसे घास के मैदानों (स्तेप) के घोड़ों का नाम मान कर घोड़ा लेकर आने वाले आर्यों की छवि तैयार करते रहे। अश्व कच्छ से आयात किए जाने वाले गधे के लिए प्रयोग में आ रहा था। अश्व के अनेकश: पर्यायों मे से कौन भारतीय घोड़े के लिए प्रयोग में आ रहा था इसे हम छोड़ सकते हैं, पर यह याद दिलाना जरूरी है कि स्तेप के घोड़े के लिए वे ककुहास का प्रयोग करते थे। ककुभ का अर्थ टीला या पहाड़ की चोटी भी होता है इसलिए पश्चिम एशिया की बाजार में जब उन्होंने इसे उतारा तो इसे वहां की भाषा में भी पहाड़ी गधा कहा गया।

हम अपनी पुरानी बात को पुन: दुहराते हुए अन्त करें कि भारतीय सभ्यता का औद्योगिक तथा प्रौद्योगिक विकास तथाकथित शूद्रों और अन्य जनों पर निर्भर रहा है। वैदिक आर्यों की भूमिका पहल और प्रेरणा की रह गई थी ।