इतिहास का अन्त!
अमेरिकी समाजशास्त्री, राजविद और अर्थशास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने १९९२ में अपनी पुस्तक The end of History and the last man में यह प्रतिपादित करके लोगों को चौंका दिया कि ‘सारी दुनिया में उदार लोकतंत्रों की स्थापना हो चुकी है, बाजार आधारित पूंजीवाद का सिक्का जम चुका है, पूरी दुनिया ने पाश्चात्य जीवनशैली अपना ली है, इसिलए मानव विकास अपनी पूर्णता पर पहुंच गया है । अब न तो आगे मनुष्य के विकास की संभावना है, नट समाज व्यवस्था में कोई परिवर्तन संभव है, न ही अर्थव्यवस्था में। जाहिर है इतिहास का अन्त हो चुका है।’ इससे भी अधिक जाहिर यह है कि यह सोवियत संघ के विघटन के बाद ‘विश्व विजय करके दिखलायें, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा’ से प्रेरित अमेरिमी महत्वाकांक्षा का प्रचार वाक्य था, जिसे फुकुयामा ने पहले हंटिंग्टन की तरह एक लेख के रूप में लिखा था, और फिर १९९२ में पुस्तकाकार प्रकाशित किया था। इसे असाधारण प्रचार तो मिलना ही था। हिन्दी के आलोचक ‘सबसे पहले मैं’ की होड़ में ऐसे प्रचार की नीयत और नियति को समझे बिना इस पर टूट पड़ते हैं, और कुछ समय तक यही राग दरबारी राग बना रहता है, सो इसके साथ भी ऐसा हुआ।
सामान्यत: भारतीय मार्क्सवादी लेखक ऐसे लेखन को सीआईए की साजिश मान कर पढ़ते ही नहीं (सक्रिय राजनीति को सारा समय देने के कारण पढ़ते वैसे भी कम हैं), पर एक मोटा अंदाज लगा लेते हैं कि इसमें क्या लिखा गया होगा, और गाहे-ब-गाहे लिखते-बोलते समय उसकी ऐसी-तैसी करते रहते हैं। यह पहला अवसर था कि वे यह तक भूल गए कि, जैसा नाम से ही प्रकट था, यह मार्क्सवाद के, और पूंजीवाद के बाद के अवश्यंभावी चरण, साम्यवाद, के खंडन में लिखी गई, एक मूर्खतापूर्ण स्थापना है, उन्होंने इसे अपने ढंग से समझा ही नहीं, जो कुछ समझ में आया उसे दृढ़ता से लागू करने पर आ गए।
उन्होंने प्रचारित करना आरंभ किया कि उन्होंने भारत का जैसा इतिहास लिखा है उसके साथ इतिहासलेखन का अन्त हो गया है, और अब उसकी गलतियां निकालने का और उससे भिन्न इतिहास लेखन का काम बन्द हो जाना चाहिए। यदि हुआ तो उसे संशोधनवाद माना जाएगा, और ऐसा पर्यावरण तैयार करना आरंभ किया कि कोई ऐसी पुस्तक को पढ़ने न पाए।
कायिक हिंसा के लेकर वाचिक हिंसा में अटल विश्वास के कारण, कम्युनिस्ट गालियों को विचारो से अधिक ऊंचा स्थान देते हैं, यह तो सबको पता है, पर जिन्हें यह भ्रम है कि वे केवल गन्दी गालियां ही देना जानते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि संशोधनवाद कम्युनिस्ट गालीकोश का ऐसा शव्द है जिसे शिष्ट गालियों में ही रखा जा सकता है।
इसलिए उनके इस अभियान को मैं सही मानता था, यद्यपि यही इस बात का भी प्रमाण था कि उनका लिखा इतिहास वैज्ञानिता की ढोल तो पीटता था, पर वैज्ञानिक नहीं था।
हैरानी इस बात पर हुई कि जब इसका भी असर नहीं हुआ तो एक नया अभियान चलाया गया कि इतिहास का अन्त हुआ हो या नहीं, पर इतिहास के ज्ञान का अंत हो चुका है क्योंकि इतिहास का ज्ञान वर्तमान की समझ में बाधक है। इतिहास की चिन्ता वर्तमान से पलायन है। इतिहास से अधिक उर्वर पुराण और मिथक हैं क्यकोंकि इनमें मनचाही तोड़ मरोड़ की अनंत संभावनाएॆ हैं। इतिहास में जो लिखा जाना था वह लिखा जा चुका है, यहां तक कि जो पढ़ा जाना था वह पढ़ा भी जा चुका है, इसलिए अब उसे भुला दिया जाना चाहिए। इसके समर्थन में जो बोलना जानता था वह बोलने लगा, जो कविता लिख सकता था कविता लिखने लगा, यहां तक कि जो सिर्फ सर हिलाना जानता था वह ‘हां भइ हां’ करने लगा। अजीब तर्क दिए जाने लगे: नाव नदी पार कराने के लिए है। समझदार आदमी नदी पार करने के बाद नाव को छोड़ कर आगे बढ़ जाता है, मूर्ख नाव को कन्धे पर लाद लेते हैं।
मैं, सच कहें तो, ऐसे वज्र मूर्खों में हूं जो यह तक नहीं समझ पाते कि इतिहास किसी खास वैतरणी को पार करने के लिए भाड़े की नौका है और उसे पार करने के लिए ही उसकी जरूरत होती है। पानी में इतिहास हमारा बोझ उठाता है और पार होने के बाद यदि उसे साथ रखा तो वह हमारे ऊपर भार बन जाएगा। मुझे यह भ्रम था और है कि इतिहास अतीत के संगत अनुभवों का क्रमबद्ध ज्ञान है, जो बीते को बदलना तो दूर किसी चीज को टस से मस नहीं कर सकता, पर वर्तमान को समझने और बदलने में सहायक हो सकता है, इसलिए इससे भागने वाले वे गैरजिम्मेदार और अहंकारी लोग होते हैं जिन्होंने अतीत को समझने की जगह तोड़फोड़ की, और वर्तमान में भी केवल तोड़फोड़ ही करना चाहते हैं।
फिर भी मैंने प्रयत्न करके यह समझना चाहा कि वे नौका का उपयोग किस नदी को पार करने के लिए करना चाहते थे? जिस नौका से पार करना चाहते थे, उसे किसने बनाया था? कौन चला रहा था? कि वे उसमें चुपचाप बैठ ही नहीं गए थे, हांक लगाकर दूसरों को भी बुला रहे थे कि इस नौका पर सवार हो जाओ नहीं तो डूब जाओगे। अच्छे नंबर लाना और अच्छी श्रेणी लानी हो तो इतिहास जरूर लो। अच्छी नौकरी पानी हो तो इतिहास से बच कर कहां जाओगे? और इससे आसान विषय कहां पाओगे? जानने को कुछ नहीं है, हमने जो हाई स्कूल के बच्चों के लिए लिख दिया, उसे मानने से ही काम चल जाएगा, सीसीएस (सेंट्रल सिविल सर्विस) से लेकर पीसीएस तक, प्रेप से लेकर मेन और अन्तरव्यूह तक।
इनका जोर ज्ञान पर नहीं इतिहास के मलबे को लाद कर पार उतरने और उतारने पर था।
इतिहास बीत कर भी व्यर्थ नहीं होता, गुजर जाने के बाद भी बहुत कुछ बनाकर अगली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाता है, जिसमें कुछ सड़ और बुस भी जाती हैं और उन्हे फेंका न जाय तो सांस लेना भी मुश्किल हो जाय।
मार्क्स के प्रस्तावों और विचारों में भी कुछ ऐसा है जो त्याज्य है, जैसे हिंसा, क्योंकि परमाणु युग में हिंसा के सहारे यांत्रिक साम्यवाद तक का सार्वभौम विस्तार नहीं हो सकता, या जैसे बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले कल कारखाने। या जैसे क्रान्ति की हड़बड़ी, क्योंकि पूंजीवाद के सार्वभौम विस्तार से पहले अभाव और भुखमरी की स्थितियां पैदा करने के बाद भी पूंजीवाद संकट में नहीं आ सकता। जब तक कुछ देश उत्पादक हैं शेष उनके बाजार, तब तक वह अमानवीय तरीके अपना कर भी अपने को, सामरिक तैयारी के बल पर बचा लेगा। परन्तु जिस दिन बाजार स्वयं भी उत्पादक बन जाएगा, उस दिन न अपने घर को छोड़ उसे बाजार मिलेगा, न उन्हें जिनका बाजार वह पहले बना हुआ था। अपने समस्त खुराफात के बाद भी वह इसे झेल नहीं पाएगा। यह होगा उसका आत्मध्वंस। यह होगा लघु उद्योगों से अपनी जरूरतों के लिए उत्पादन जिससे न फालतू उत्पादन होगा न आदमी फालतू होंगे। गांधीवादी मार्क्सवाद का दौर मानवता का एकमात्र विकल्प हैं, जिसकी आकांक्षा मार्क्स में थी पर उपाय गांधी ने अपनी ग्राम्य और पुरातन संस्कृति से आविष्कृत किया। बिरादरी पंचायतों वाला असहयोग भी आंदोलन का रूप ले सकता है, यह केवल गांधी की सूझ थी। इतिहास अपने को जिन्दा रखने के लिए अकल्पनीय परिवर्तन करता रहता है।