मैं कल रात 10 बजे अस्पताल से निकला। अस्पताल में आदमी या तो बीमारियों के बारे में सोच सकता है, या मौत के बारे में या परलोक के बारे में । हमारा भौतिक परिवेश हमारे विचारों को कितना नियंत्रित करता है. भीड़ में बुद्धिमान व्यक्ति भी समूह की शक्ति और आवेश के दबाव में मूर्खों की तरह आचरण करता है या तिनके की तरह रौंद दिया जाता है। समझदारों की भीड़ भीड़ ही होती है।
जो भी हो, यह शान्ती गोपाल अस्पताल इतना अच्छा, इतना प्रोफेशनल है यह तो भर्ती हुए बिना जान ही नहीं सकता था। लोगों से शिकायत सुनने को मिलती है, निजी अस्पताल लूट रहे हैं। लाचारी में लुटने को तैयार हो कर भर्ती हुआ था, मित्रों के माध्यम से मैक्स और फोर्टिस और स्वयं मेट्रो और कैलाश का अनुभव था। पर जब बिल थमाया तो लगा मैने अस्पताल को लूट लिया।
वैसे इसके बाद भी अस्पताल पर जल्द डाका डालने का कोई इरादा नहीं।