भूमिका लेख बन गई शायद!
मैं उन कमजोर दिमाग के लोगों में अपनी गिनती कराने से नहीं डरता जो यह मानते हैं कि ज्ञान और विज्ञान की प्रकृति में भेद नहीं है, मात्रा का अंतर अवश्य है। जो मानते हैं, कोई शास्त्र ऐसा नहीं जिसमें निजी हस्तक्षेप से बच कर विज्ञान न बनाया जा सके। जो मानते हैं कि कोई ऐसा क्रिया-व्यापार नहीं है जिसके पीछे कार्य और कारण का नियम काम न करता हो, अर्थात् जिसका विज्ञान न हो। जो मानते हैं कि वे सभी इतिहासकार जो यह मानते हैं कि वैज्ञानिक इतिहास संभव नहीं है वे अपने को इतिहासकार कहने के अधिकारी नहीं हैं।
विज्ञान उन नियमों को पहचानने और पहचान के बाद उनका कठोरता से निर्वाह करने का नाम है जिनसे परिघटनाएं नियंत्रित होती हैं। बुद्ध ने आज से ढाई हजार साल पहले ही विज्ञान की परिभाषा सरलतम शब्दों में प्रस्तुत की थी:
यदि ऐसा है तो ऐसा होगा ; इसके पैदा होने पर यह (अवश्य) पैदा होता है।
ऐसा न हो तो ऐसा नहीं हो सकता ; इसे रोक दिया जाय ताे यह भी रुक जाता है।
इसी पर आधारित था गौतम बुद्ध का चार आर्य (अकाट्य) सत्यों का निरूपण जो इस तत्व दृष्टि पर निर्भर करता था कि ऐसा कुछ नहीं है जो शाश्वत हो। जो है उसका अंत होगा ही। इसी का आख्यान है :
1. दुख है।
2. दुख का कारण है ( क्योंकि कुछ भी अकारण नहीं हो सकता)।
3. दुख का अंत है ( क्योंकि कुछ भी शाश्वत नहीं है)।
4. दुख के अंत का उपाय है ।
और इस उपाय के लिए अष्टांग मार्ग का निरूपण किया था। हम बौद्ध धर्म पर बात नहीं कर रहे हैं, इसलिए इसके विस्तार में नहीं जाएंगे।
हम केवल यह निवेदन करना चाहते हैं कि जिस धर्म को धोखाधड़ी का पर्याय, ज्ञान, विज्ञान और प्रगति में बाधक माना जाता है, उसके नियमों का पालन किया जाए तो, उसे भी वैज्ञानिक बनाया जा सकता है। यदि धर्म धर्म के अनुकूल हो तो वह विज्ञान में बदल सकता है। इसे ही हम बुद्ध वह तत्वज्ञान कह सकते हैं, जिसके बाद वह दावा करते थे कि वह वेद-वेदान्त सभी की जानकारी रखते हैं पर किसी प्राचीन दार्शनिक या सैद्धांतिक परंपरा का पालन नहीं करते। वह जिस सत्य पर पहुंचे हैं वह किसी पूर्ववर्ती चिंतक के लिए अगम्य था। उनका कोई गुरु नहीं। वह आत्मदीप हो कर विचरण करते हैं। मानवता के इतिहास में यह उसी तरह की एक वैज्ञानिक खोज थी जैसे गुरुत्व शक्ति की खोज थी।
दूसरा पाठ यह है कि ज्ञान और विज्ञान को भी किसी तरह की लिप्सा होने पर उस तरह के धर्म में बदला जा सकता है जिसके लिए मार्क्सवादी साहित्य में भर्त्सना के अनगिनत पाठ पाए जाते हैं पर उसके पक्षधरों की समझ में यह मोटी बात नहीं आती कि वे मार्क्सवाद को वैसे धर्म में परिवर्तित कर चुके हैं।
महाभिषग लिखने की तैयारी करते हुए विज्ञान की परिभाषा से परिचित होने के बाद मैं कला और विज्ञान के बीच अंतर को भूल गया। कला अपने सर्वोत्तम रूप में तब प्रस्तुत होती है जब वह वैज्ञानिक नियमों का पालन करती है, विज्ञान वही सर्वजनग्राह्य होता है, जहां वह ज्ञान को कलात्मक रूप दे कर मानव मात्र के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। अफलातून ने कहा था हर चीज की कसौटी मनुष्य है – man is the measure of everything। इसमें मामूली सुधार किया जा सकता है हर चीज की कसौटी मनुष्यता है। संभवतः अफलातून के मनुष्य में मनुष्यता भी निहित है।
अपनी पराकाष्ठा पहुँचने के बाद कला विज्ञान सभी की कसौटी केवल एक रह जाती है, वह मनुष्य मात्र के लिए उपादेय है या नहीं। यदि उसका होना कुछ लोगों के लिए लाभकर प्रतीत होता है और शेष के लिए अनिष्टकर तो , न तो वह कला है, न ही विज्ञान। अपने श्रेष्ठतम रूप में कला विज्ञान के नियमों का पालन करती है और विज्ञान कलात्मक होना चाहता है ।