Post – 2020-08-24

नासमझी के रूप

रामविलास जी को इस बात की शिकायत कि हिंदी के पाठक उन्हें समझते नहीं। शिकायत केवल उन लोगों से नहीं थी जो उनकी निंदा करते हैं, बल्कि उन लोगों से भी जिन्हें उनका प्रशंसक समझा जाता था। अंध-विरोध और अन्ध-प्रशंसा के दो पाटों के बीच पिसता हुआ एक ऐसा लेखक जिसकी हर इबारत सुबोध है, जो अपने विचारों को पारदर्शी और बहुजन ग्राह्य बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहा, हैरान करने वाली बात है, परंतु शिकायत इस हद तक सही थी कि मैं यह दावा कर सकता हूं कि रामविलास जी स्वयं अपने को नहीं समझ पाते थे, उन्हें समुचित प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील परिवार जन तो समझ ही नहीं सकते थे। मैं उन लोगों के साथ हूं जो रामविलास जी की आलोचना करना चाहते हैं। यह एक जरूरी काम है। उनके लेखन ने गलतियां इतनी हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। मेरी तुलना में बहुत अधिक।

जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा तात्पर्य यह नहीं होता कि गलतियां करने वाला व्यक्ति अधिक बड़ा होता है, तात्पर्य केवल यह है जो गलतियां नहीं करता, वह अपने दिमाग से काम नहीं लेता। दूसरों के दिमाग पर भरोसा करके उनको दोहराता रहता है, और जिन को दोहराता है उनको भी समझ नहीं पाता। गलतियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया की महान विभूतियां वे ही हैं जिन्होंने यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह किया है, नए रास्ते की तलाश करते हुए ठोकरें खाई हैं और बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो उनकी प्रतिज्ञा को गलत सिद्ध करता है। यह आइंस्टाइन ही हो सकते हैं जिनके सापेक्षता के सिद्धांत से क्वांटम सिद्धांत का जन्म हुआ और उसे ही वह समझ नहीं सके। यह तुलसीदास हो सकते हैं, जो कहें, सियाराम मय सब जग जानी, करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी. और साथ ही विप्रवाद,और जप, माला, छापा तिलक का समर्थन भी करें जिसकी सीमाओं का उल्लेख कबीर उनसे एक पीढ़ी पहले कर गए थे और जिनकी गहरी समझ रखते हुए, तुलसीदास उनके विरोध में ही नहीं अपने आदर्शों के विरोध में भी खड़े थे। उनके साहित्य का एक पाठ ऐसा भी बनता है। परंतु उसी को ध्यान से पढ़ने पर वह अपने मर्यादा पुरुषोत्तम को निषादों के साथ ( आप जानते हैं निषाद क्यों सबसे गर्हित समझे जाते थे? नहीं जानते होंगे। मैं अपने एक अनुभव से इसे समझाना चाहता हूं। गुजरात में द्वारका से लौटते समय हमारी बस मछियारों की एक बस्ती से गुजरी जिसमें सूखने के लिए जगह जगह मछलियाँ लटकाई गई थीं, उससे गुजरते हुए हमें दस पन्दंह मिनट तक साँस लेते हुए घुटन अनुभव हो रही थी, वहाँ से बाहर निकलने के बाद आधे-पौन घंटे तक नथनों से वही बास आती रही। मछियारों को ऐसी कोई समस्या न थी। उनकी समस्या अपने परिवेश से बाहर निकलने पर आरंभ होती होगी।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ऐसे निषादराज से गले मिलने वाले, जिन आदिम जनों को शूद्रों से भी हेय, पशुवत समझा जाता था, उन्हें उनके टोटेम का प्रतिरूप बना दिया जाता था, वे शबर जिनमें 19वीं शताब्दी तक भी नरवलि या मरिया प्रथा का चलन था, उनके बीच मैत्री भाव से रहने वाले शबरी का जूठन खाने वाली आत्मीयता के साथ रहने वाले, उनके सहयोग से आडंबरपूर्ण और उच्छृंखल सत्ता को परास्त करने वाले और अपनी खोई वैध सत्ता को हासिल करने वाले राम तुलसी के मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, झूठी, बाद की गढ़ी हुई, ब्राह्मणवादी अपेक्षाओं के अनुसार, पत्नी को मात्र एक अफवाह की कसौटी पर सही सिद्ध होने के लिए, त्यागने वाले राम नहीं। उनके लिए तुलसी के मानस में जगह नहीं है।

महानता को उसके अंतर्विरोधों के साथ समझना होता है, और तब हम पाते हैं कि पहले जो हमारी अपेक्षाओं के विपरीत लगता था, वह अपनी अंतिम व्याख्या में उसी की पूर्ति करता है। ह्विटमैन वेदान्ती मुहावरों में ‘सांग ऑफ माइसेल्फ में प्रश्न करता है, क्या मैं अपना ही खंडन करता हूँ? और उत्तर देता है, हाँ मैं अपना खंडन करता हूँ, क्योकि मुझमें विपुलता (समग्रता) भरी है।’

तुलसी के सामने दो चुनौतियां थीं। एक मानवतावादी जिसके लिए सियाराम मट सब जग जानी वाले तुलसी सामने आते हैं, वर्जनाओं को तोड़ने वाले और उसके बाद भी नई मर्यादा स्थापित करने वाले राम आते हैं और दूसरी है आपद्धर्म जिसमें कल्याणकारी झूठ सच का पर्याय बन जाता है। जिसमें तुलसी को लगता है उदारता और समावेशिता की जगह जिस हिंदुत्व में है उससे विद्रोह करने वाले ऐसे धर्म संप्रदायों की और बढ़ रहे हैं जिसका अगला पड़ाव इस्लाम होता है जिसमे इंसानियत के लिए जगह नहीं केवल मुसलमानों के लिए जगह है। विचारों के स्तर पर जनता को कायल नहीं बनाया जा सकता इसलिए इस्लाम की तरह ही विश्वास को अपना हथियार बनाते हुए तुलसी उन मूल्यों की रक्षा करते हैं जिनके लुप्त हो जाने के बाद मानव समाज समाज रह जाता है मानव नहीं रह जाता। मैं नहीं जानता कि मैं तुलसी को सही समझ रहा हूं या नहीं परंतु उन्हें समझने की यह एक दृष्टि हो सकती है, इसकी और ध्यान नहीं दिया गया।

बंगालियों में मछली खाने की बहुत आदत है। वे मछली खाते हैं, मछली का कांटा नहीं। और उनकी सबसे प्रिय मछली हिलसा है जिससे अधिक कांटे किसी दूसरी मछली नहीं होते। अंतर्विरोध का सामना होने की दशा में हमें जो ग्राह्य है उस पर ध्यान देना चाहिए, त्याज्य के प्रति उदासीन रहना चाहिए।।

मैंने तुलसी के उदाहरण से जो कुछ कहना चाहा उसका एक कारण यह भी है कि तुलसी एक समय में सभी मार्क्सवादियों के प्रिय कवि थे, बाद में त्याग दिए गए, उनकी जगह कबीर को दे दी गई, परंतु इसके बाद भी रामविलास शर्मा के आदर्श कवि तुलसी ही रहे, कबीर पर वह लगभग चुप रहे। उनको समझने के लिए उनके इस अंतर्विरोध को समझना होगा और यह समझना होगा कि उनका यह दृष्टिकोण प्रगतिवादी है, या प्रतिक्रियावादी । इस पर अलग से विचार करना जरूरी है।

कुछ लोग रामविलास जी के पीछे इसलिए हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनका उनसे विचारधारात्मक विरोध है। उन्हें रामविलास जी मार्क्सवादी तेवर रखने के बावजूद प्रतिक्रियावादी दिखाई देते हैं। उनकी चिंता को हंसकर नहीं उड़ाया जा सकता। बहस इस बात पर अवश्य हो सकती है कि वे स्वयं अपने अनजाने ही उससे भी अधिक प्रतिक्रियावादी, मानव द्रोही और कट्टर विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं या नहीं और कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं। रामविलास जी के लेखन और कर्म का परिणाम उनके आंदोलन और कर्म के परिणाम की तुलना में अधिक प्रगतिवादी है या प्रगति विरोधी।

यह तो नासमझी का एक रूप हुआ। दूसरा रूप वह है कि मैं, जिसने उनके समर्थन में कई बार लिखा भी है, उनके लिखे को समझ नहीं पाता। इसकी चर्चा आगे।