Post – 2020-08-23

(कल गलती से इस लेख की अंतिम पंक्तियाँ ही पोस्ट हो पाईँ। पूरा लेख निम्न प्रकार था।)

“यह दीप अकेला गर्व भरा मदमाता सा
“इसे भी पंक्ति को दे दो !”

पंक्तियां वात्स्यायन जी की हैं, परंतु उनसे अधिक रामविलास जी पर फबती हैं। रामविलास जी का व्यक्तित्व कम्युनिस्ट बनने के बाद निर्मित नहीं हुआ। कायया, मनसा, वाचा, कर्मणा व्यक्तित्व विकसित हो जाने के बाद वह कम्युनिस्ट बने थे।

शरीर से कसे हुए, चरित्र में अशिथिल, मान्यताओं दृढ़, मल्लयोद्धा की तरह प्रहारों और विरोंधों से अनुद्विग्न, स्वाभिमानी, देशाभिमानी, विचलनों और विकृतियों के प्रति असहिष्णु, परंतु देश और काल की सीमाओं की सापेक्षता में इनके प्रति नम्र, मार्क्स-ऐंगेल्स-लेनिन के विचारों प्रेरित, उनकी बुनियादी अपेक्षाओं के अनुरूप बने रहने के लिए प्रयत्नशील – यह है, मेरी समझ में, रामविलास शर्मा की छवि, जिसमें दृढ़ता, यदा-कदा, यांत्रिकता का भ्रम ही नहीं पैदा करती, यांत्रिक हो भी जाती है।

रामविलास जी कभी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की अपेक्षाओं पर खरे सिद्ध होने वाले कम्युनिस्ट नहीं रहे। मन में साम्यवाद की सफलता की कामना थी, परन्तु भारतीय कम्युनिस्टों की सीमाओं की पहचान भी थी, कहीं यह क्षीण विश्वास भी रहा होगा कि के अपनी विचार-दृष्टि से इन कमियों को दूर या कम कर सकते हैं (वह गांधीकी तरह अति-आशावादी जो थे), परंतु हुआ इसके विपरीत ही।

कम्युनिस्टों के पास दिमाग तो दूसरे लोगों से अधिक नहीं तो कम तो किसी माने में नहीं होता है, पर साथ ही बलिदानी आवेग उससे भी प्रबल होता है इसलिए वे अपना सर्वोत्तम पार्टी को उत्सर्ग कर बैठते हैं; मेधा और प्रतिभा का इस्तेमाल पार्टी के निर्णय को सही सिद्ध करने के लिए करते हैं।

अल्पवय में विवाहिता कन्याएँ जिस तरह पतिभक्त और परिवारभक्त सिद्ध होती थीं कुछ उसी तरह का भक्तिभाव प्रतिभा या निष्ठा के बल पर कम्युनिस्ट बनने के बाद पार्टी में जगह बनाने के बाद अपने व्यक्तित्व का विकास करने वालों के साथ भी होता है। पारिवारिक कलह और मतभेद व्यक्तित्व का विकास करने के बाद की विवाहिताओं के साथ आरंभ होता है, कुछ ऐसी ही विकसित व्यक्तित्व के लोगों के किसी भी दल या संगठन से जुड़ने के साथ आरंभ होता है।

यदि कम्युनिस्ट पार्टी रामविलास जी के संकेतों के अनुसार अपने को बदल पाई होती तो उसकी वह दुर्दशा न होती जो आज देखने को मिल रही है। यदि रामविलास जी पार्टी के अनुसार ढल गए होते तो पार्टी के प्रति समर्पित बुद्धिजीवियों ने उनकी यह दुर्गति न की होती जो करते रहे और अपने को प्रगतिशील सिद्ध करने के लिए आज भी अनेक समझदार कर रहे हैं।

अंतर क्या था?

अंतर यह था कि पार्टी की जड़े विदेशों (इंग्लैंड, सोवियत संघ, चीन) में थीं, रामविलास जी की जड़े भारत में थीं ; पार्टी की दृष्टि उपनिवेशवादी थी रामविलास जी दृष्टि राष्ट्रवादी थी- यह राष्ट्रवाद जर्मनों का विद्वेषी राष्ट्रवाद न था, कांग्रेस का समावेशी राष्ट्रवाद था – जिसका उपनिवेशवाद से सीधा विरोध था, परंतु अंतर्राष्ट्रीयता, सर्वजनहित कीभावना से, मानवतावाद से विरोध नहीं था।

पार्टी की समझ यह थी कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत टुकड़ों में बंटा था, एक देश या एक राष्ट्र की चेतना अंग्रेजों ने भारत को जीत कर एक भारतीय प्रशासन के अंतर्गत ला कर पहली बार पैदा की। भारतीयता के जनक अंग्रेज थे। रामविलास जी की समझ यह कि भारत को विखंडित करने के, सामाजिक वैमनस्य पैदा करने के, भारतीय मानस को विषाक्त करने के सभी प्रयत्न उपनिवेशवादियो ने किए और पार्टी आज भी उन्हीं के चरण चिन्हों पर चल रही है। यदि भारत की समग्रता का बोध ही न था तो व्यापारी संघ और उपनिवेशवादी किसे भारत मान कर वहाँ पहुँचने की होड़ में अपने रास्ते तलाश और दूसरों का रास्ता रोक रहे थे?

अंग्रेजों के आने से पहले भारत में एक ऐसे धर्म का प्रवेश हुआ था जिसके उन्नायक अपनी मजहबी कट्टरता और विदेशी मूल पर गर्व करते थे। उन्होंने अपनी सैन्यशक्ति के बल पर हिंदुओं को धर्मांतरित नहीं किया था, धर्मांतरण करके उनका मानमर्दन भी किया था। भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरक्षातंत्र की अपनी यान्त्रिकताओं के कारण एक बार मुसलमान बना दिए जाने के बाद वे हिंदू नहीं बन सकते थे, परंतु मुसलमान बन जाने के बाद भी हिंदुत्व से उनका गहरा लगाव था। वे अपने घरों में मंदिर बना कर अपने पुराने आराध्य देवों की पूजा करते थे और विदेशी शासकों को इसका पता चलने के बाद अपमानित होना और दंडित होना भी पड़ता था जिसके दस्तावेजी प्रमाण फिरोजशाह तुगलक के जमाने के मिल सकते हैं, वे मुसलमान हो जाने के बाद भी हिंदू मूल्यों का प्रचार करते थे, जैसे इस्लाम अपनाने वाले जोगी और कबीर; वे मुसलमान हो जाने के बाद भी हिंदू रीतियों और परंपराओं का निर्वाह करते थे, जैसे मुसलमाम बने मेवाती हिंदू। जनता के स्तर पर इस पारस्परिकता के कारण ऐसा अनुराग था जो उपनिवेशवादियों के लिए खतरा था और जिसे नष्ट करना उनके अस्तित्व की चुनौती थी। राजनीतिक स्तर पर देश जब हिंदू मुसलमान में बँटा था, तब भी सामाजिक स्तर पर संप्रदायवादी नहीं था। सांप्रदायिकता औपनिवेशिक विरासत है। इसे कम्युनिस्टों ने अपनाया और इसका विस्तार किया। इसे समझते हुए यदि वे औपनिवेशिक विरासत को नेहरू से भी आगे बढ़ कर औपनिवेशिक महाजाल में पाँव डाल चुके हैं तो अब उन्हें अपने पाँव खींचने होगे। रामविलास जी ने इन्हीं शब्दों में अपनी बात कहीं रखी है या नहीं यह पता नहीं। मेरी समझ से, उनकी अपनी समझ यही थी और वह इस अधोगति से पार्टी को उबारने के लिए प्रयत्नशील रहे।

कम्यम्युनिस्टों में अपने दिमाग का इस्तेमाल करने वाला आदमी व्यक्तिवादी और इसलिए अविश्वसनीय माना जाता है। वहाँ इसका तनिक भी संदेह होने पर, उसे बदनाम करना और उसकी हत्या करना एक जरूरी कार्य भार होता है जिसे सभी देशों के कम्युनिस्ट लगातार करते आए हैं। रामविलास जी की जड़ें अपने समाज और अपनी जातीय परंपरा में थीं । ॉ

विचारक हों या सर्जक, वह उसी अनुपात में बड़ा होता है जिस अनुपात में अपने समाज और अपनी परंपरा से गहरा लगाव रखता है। शिक्षा में विस्तार के कारण आज अपनी प्रतिभा में विलक्षण लेखकों की एक फौज सी तैयार है, परंतु अपने बड़बोलेपन के बाद भी वे स्वयं, अपनी नजर में भी, बौना अनुभव करते हैं। बौनापन ज्ञान और प्रतिभा के अभाव से पैदा नहीं हुआ है, यह अपने समाज और जातीय परंपरा से कट जाने, अपने देश से लेकर देश देश के साहित्यकारों के बीच सिमट जाने का परिणाम है। इस कसौटी को समझने में बहुतों को परेशानी हो सकती है, क्योंकि प्रगतिशीलता की गलत समझ के कारण, परंपराविमुखता ही पैदा नहीं हुई, परंपरा से जुड़े समाज के प्रति तिरस्कार भाव को भी प्रोत्साहित किया गया, कम्युनिस्ट पार्टी का समाजवाद खयालों में डूबे ख़याली लोगों के बीच एक पवित्र अवधारणा बन कर रह गया। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण वह दोहरा मानदंड था जिसमें प्रगति के सारे मानदंड केवल हिंदू समाज तक सीमित रखे गए और इस तरह मुस्लिम सांप्रदायिकता प्रगतिशीलता का पर्याय बन गई। भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ाने में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका मुस्लिम लीग से भी कुछ आगे रही, क्योंकि मुस्लिम लीग ने तो मुसलमानों के एक हिस्से में हिंदुओं के प्रति नफरत का भाव पैदा किया था, जबकि प्रगतिशीलता की धर्मसापेक्ष सांप्रदायिक सोच के तहत इसने हिंदुओं के एक उससे बड़े हिस्से में हिंदुओं से नफरत पैदा करने में सफलता पाई। रामविलास जी इसका उसी तरह खुलकर विरोध नहीं कर सकते थे। पर वह इन सीमाओं के प्रति सचेत थे और अपने लेखन में व्यक्त इस सचेतता के कारण मार्क्सवाद के समर्थन के बाद भी कम्युनिस्टों के लिए वह तब भी असह्य थे जब उनको खुला विरोध नहीं आरंभ हुआ था। कम्युनिस्टों द्वारा उनके चरित्र हनन का प्रयास जो आज तक जारी है, नीतितः गलत नहीं है (यही वे लगातार करते आए हैं); भले तत्वतः आत्म विनाशकारी हो।