जाली भाषा, जाली इतिहास, जाली भाषाशास्त्र (भूमिका)
मैं इस लेखमाला से न आपको भाषाविज्ञान समझा रहा हूं न भारतीय अतीत की महिमा बखान रहा हूं। वाजिद अली शाह की तांगा चलाने वाली औलादों को यह याद करने से कि उनके पुरखे नवाब थे, कुछ हासिल नहीं हो सकता। मैं यह समझने का प्रयत्न कर रहा हूं कि क्यों और किस तरह हमारे भीतर बौद्धिक खोखलापन और परावलंबन पैदा किया गया और उससे बाहर निकलने का उपाय क्या है।
संस्कृत के यूरोप की भाषाओं के संबंध का पता चलने पर यूरोप में जो आत्मग्लानि पैदा हुई थी उसका उल्लेख हम कर आए हैं। इससे उबारने के प्रयत्न में विलिंयम जोन्स ने इसका मूल क्षेत्र लंबी पैंतरेबाजी के बाद भारत से हटाकर ईरान में कर दिया था।
फारसी से परिचित कोई इसे मान नहीं सकता था। स्वयं जोंस के गले भी यह नहीं उतर पाता था। उन्होंने स्वयं माना था कि संस्कृत से फारसी का संबंध ठीक वही है जो प्राकृतों का संस्कृत से। अवेस्ता के विषय में भी यही सच था। सभी को पता था कि यूरोप की भाषाओं का सीधा संबंध ईरान की किसी भाषा से नहीं केवल संस्कृत से है (सं. सप्त- अवे. फा. हफ्त ला. सेप्त)।
उन्होंने सचाई जानते हुए, लाज बचाने के लिए एक कूटनीतिक हल निकाला था। इससे बस एक सूत्र हाथ लगा कि मूलभूमि को कहीं अन्यत्र खिसका कर लाज बचाई जा सकती है, पर कहां यह समझ में नहीं आ रहा था, इसलिए चेतना में भारत, पर कामना में भारत छोड़ कोई भी दूसरा क्षेत्र सर्वमान्य था।
अपने अर्धसत्य को स्वीकार्य बनाने के लिए उन्होंने मान लिया कि संस्कृत लातिन के अधिक समृद्ध, ग्रीक से अधिक निखोट और इनमें से किसी से भी अधिक सुपरिष्कृत है और साथ ही यह भी मान लिया कि हिन्दू कभी सभ्यता के शिखर पर थे। यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। अभी तक केवल भाषा की समानता ही परेशान कर रही थी, अब उसकी ग्रीक और लातिन से सभी दृष्टियों से श्रेष्ठता की ही नहीं यह स्वाकारोक्ति भी यूरोप को ज्ञान, विज्ञान और दर्शन भी पूर्व से मिला था,
“We may therefore hold this position firmly established , that Iran, or Persia in its largest sense, was the true centre of population, of knowledge, of languages and of arts; which instead of travelling westward only, as it has been fancifully supposed, or eastward, as might with equal reason have been asserted, were expanded in all directions to all regions of the world in which the Hindu race had settled under various denominations.”
सरासर छाती पर मूंग दलने जैसा था। यह कैसे सहन किया जा सकता था।
इसी का जवाब था मिल का यह फतवा कि भाषा से लेकर ज्ञान तक, सब कुछ पश्चिम से गया है, और जो यूरोप के जितने करीब है वह अपने से पूरब की सभ्यता से उतना ही आगे है।
यह नितान्त बचकाना, यान्त्रिक और सर्वविदित तथ्यों के विपरीत प्रस्ताव था जिसे मूर्खतापूर्ण कहना गलत न होगा। सच कहें तो मैक्समुलर ने एक अन्य प्रसंग मे मिल के विचार को स्टुपिड कहा भी है। इसलिए इसे किसी दूसरे इतिहासकार ने नहीं माना फिर भी यह भारत के ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों का माडल बना रहा।
इसके बाद भारतीय ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों पर कुछ कहने को नहीं रह जाता, पर भारतीय बुद्धिजीवियों के विषय यह कहना फिर भी बच जाता है कि इनकी चेतना का निर्माण उसी इतिहास से हुआ जिसे विविध तिकड़मों और प्रलोभनों से एक शक्तिशाली गैंग के ऱूप में विकसित किया गया, जो गैंग के रूप में सोचता और काम करता है, पर यह नहीं समझ पाता कि अपना काम छोड़कर, राजनीति के अखाड़े में उतर कर जिन शक्तियों और प्रवृत्तियों का घृणा के स्तर पर उतर कर विरोध करता है, वह उसी मूर्खतापूर्ण इतिहास की उपज है। यह नहीं समझ पाता कि गलत इतिहास की प्रतिक्रिया में सही इतिहास नहीं डरावना वर्तमान और डरावना इतिहास पैदा होता है जिसमें तलवार तनी दिखाई देती है और विचार अदृश्य हो जाता है और कलह के लिए खुला मैदान मिलता है और शांति से बैठने के लिए कोना तक नहीं मिलता।
भूमिका इतनी फैल गई कि विषय पर आ ही न सका। तबीयत ठीक रही तो कल।