मैं जिन्हें फूल समझता था वे कांटे निकले
आज के लिए जो पोस्ट लिखी थी वह कट पेस्ट के चक्कर में गायब हो गई और उस खेद ने तुकबंदियों का दरवाजा खोल दिया. पर जो कहा था, वह कथन से अधिक रुदन था।
मुझे खेद इस बात पर था कि जिस समय पश्चिम से साबका पडा हम उससे हजारों साल पीछे चले गए थे। ग्रीक और रोमन काल से यूरोप ने ज्ञान को सर्व लभ्य बनाने का प्रयत्न किया था। भाषा भले सर्वग्राह्य न रही हो, पर उसने ऎसी कोशिश की कि विचार स्पष्ट हों और इसलिए ऎसी तर्क प्नणाली का विकास किया जिसमें स्पष्टता का प्रयत्न किया जाता था। हमारे यहाँ ब्राह्मणवाद के चलते ज्ञान को अल्प जन लभ्य, भाषा को दुरूह, शैली को जटिल और बोझिल बनाने का प्रयत्न किया गया। इसके बाद भी दसवीं शताब्दी तक यह देश ज्ञान विज्ञानं के क्षेत्र में अग्रणी रहा पर उसके बाद विदित कारणों से जो प्रहार होने लगे उसमें पुरातन ज्ञान का परिरक्षण तक एक विकट कार्यभार बन गया। सर्जनात्मकता लुप्त हो गई और भारत से अरबों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने उस ऊचाई पर पहुंचा दिया जिसमे हम अपने ज्ञान का खजाना तो विवशता में खोल सकते थे परन्तु उसी ज्ञान को हमारे विद्वानों से प्राप्त कर के उन पर बहस करने वालों का सामना कर सकें, ऐसी क्षमता दुर्लभ थी।
हम यह समाझ तक खो चुके थे कि लुटेरे उद्धारक नहीं होते। ज्ञान से वंचित और अनुसन्धान को नियंत्रित करने वाले हमारे बौद्धिक सेवक नही हुआ करते। इसी चिंता में यह जोड़ा था कि वे अपने प्रयत्न में इतने सफल हुए कि हम यह मानने तक को तैयार नहीं होते कि कोई भारतीय मानविकी में कोई नया सिद्धांत प्रतिपादित कर सकता है। भारतीय भाषाओँ में कोई बड़ा या कायदे का काम हो सकता है। उसकी कोई वकत किसी पाश्चात्य विद्वान् के समर्थन के अभाव में भी हो सकती है। गरज कि हम सोचने की योग्यता ही नहीं समझने की योग्यता भी खो चुके हैं। बौद्धिक गुलामी की यही त्रासदी एक शेर में व्यक्त हुई तो उसे भी एक मित्र ने राजनीतिक रंगत दे दी। यह एक बड़ी समस्या है। इस पर लिखेंगे कल, पर आज लिखे के धुल जाने के गम में उपजी तुकबंदियों के बाद भी यह बताना जरूरी लगा।