Post – 2017-12-02

यह जंग सिर के और सिरफिरों के बीच है

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हमें आज कई सवालों के जवाब देने हैं।

पहला, क्या यह संभव है कि पश्चिमी जगत के सभी विद्वान किसी दुरभिसंधि में शामिल हों?

ऐसे किसी प्रश्न को पहली नजर में ही खारिज किया जा सकता है। कारण, इस सोच में इकहरापन है। किसी देश में कोई ऐसी संस्था या तंत्र नहीं है जो किसी देश के सभी बुद्धिजीवियों की सोच को नियंत्रित कर सके। यूरोप और अमेरिका के बीसियों ऐसे अध्येता हैं जिन्होंने प्राचीन भारत की उपलब्धियों की प्रशंसा की है। आर्यों के आक्रमण का आधिकारिक खंडन करने वाले पुरातत्वविदों में अमेरिकी और यूरोपीय खननकर्ता अग्रणी रहे हैं। मैने स्वयं उनके विचारों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। सबसे बड़ी बात यह कि यदि यूरोकेन्द्रिता का आरोप लगाया जाता है तो उतनी ही आसानी से भारतकेन्द्रिता का आरोप लगाया जा सकता है।

जिस तरह का इकहरापन प्रश्न में था, कुछ वैसा ही इकहरापन हमारे इस निराकरण में भी है। यह इसलिए है कि हमने एक जटिल समस्या को सद्भावनापूर्वक समझना चाहा और सद्भाव के अनुरूप तथ्यों और तर्कों को स्थान दिया और बाधक तथ्यों और तर्कों की उपेक्षा कर दी। सद्भावना हो या दुर्भावना या आसक्ति, ये सभी पूर्वग्रह के रूप हैं और इसलिए किसी परिघटना को समझने में बाधक हैं। किसी भी चीज को समझे बिना हम जो भी करेंगे, कुफलदायी होगा। हमारे भीतर उस समय भी पूर्वग्रह काम कर सकते हैं जब हम अपनी ओर से तटस्थ रहने का प्रयत्न करते हैं। हम स्वयं भी उनके विषय में सतर्क नहीं रह पाते। हम देख आए हैं कि नितांत तुच्छ प्रतीत होनेवाला घटक भी अकाट्य प्रतीत होनेवाली स्थापनाओं को उलट सकता है इसलिए हमने पहले कहा था कि
“भावना या रागात्मकता वस्तुबोध में बाधक होती है, इसलिए समझ विवेचन के स्तर पर वस्तुपरकता, निर्ममता और व्यवहार के स्तर पर सदाशयता अपेक्षित है जिसकी छूट हमें वर्तमान तो देता है, इतिहास नहीं देता) हमारा ध्यान जिन बातों पर जाना चाहिए कि
1. व्याख्याकार ने जिन तथ्यों के आधार पर अपने निष्किर्ष निकाले हैं क्या वे प्रामाणिक हैं, अर्थात् वे (क) सही तो हैं? (ख) सही अनुपात में तो हैं ? (ग) स्थान, काल, संदर्भ में विचलन तो नहीं है?
२. जो नतीजे निकाले गए हे क्या परिणामों से उनकी पुष्टि होती है? इतिहास में तो परिणाम मिलेंगे, पर वर्तमान के परिणाम आने में ही नहीं, परिघटना से संबंधित सूचनाओं के सुलभ होने में समय लगेगा इसलिए किसी नतीजे पर पहुंचने की हड़बड़ी से बचा गया या नहीं?
अब हम अपने आप से पूछ सकते हैं, क्या पश्चिमी जगत का कोई अध्येता इन कसौटियों से अनभिज्ञ था या इनको अवांछनीय मानता रहा हो?
2. यदि नहीं तो प्राचीन भारतीय इतिहास, समाज, साहित्य और भाषाओं के अध्ययन में क्या कितनों ने इनका निर्वाह किया है? इनमें हम विलियम जोंस, विल्सन और मैक्समुलर को भी सम्मिलित कर सकते हैं जिनके लेखन को हिंदुत्व संवेदी मान कर अनेक लोग धैर्य खो कर उनकी लानत मलामत करने लगते हैं। यहां विस्तार में गए तो भटकने का डर है।
3. वह कौन सा पाश्चात्य लेखक है जिसका भारत विषयक लेखन, विवेचन, अनुवाद, अनुसंधान पोलैमिकल नहीं है?
4. कौन था जिसे यह न पता था कि आर्य नाम की कोई जाति न थी, यदि पता न था तो वह विचारणीय था क्या?
5. कौन था जो यह न जानता था कि कल्पित काल में किसी आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है?
6. जब साहित्य और पुरातत्व से इस बात के निर्णायक प्रमाण मिले कि वैदिक साहित्य और हड़प्पा के अवशेष एक ही सिक्के के दो पहलू तो उनमें से कितनों ने इसे माना या इसका खंडन किया या करने का प्रयत्न करने पर विफल होने की बात स्वीकारी।
प्रश्न यह नहीं है कि सच क्या है? झूठ क्या है।