Post – 2017-11-29

Bhagwan Singh

Ghaziabad, Uttar Pradesh ·

वह बात जिससे हस्ती मिटती नहीं हमारी
दुश्मन भले रहा हो सारा जहां हमारा ।।

क्या आपने वह कहानी पढ़ी या सुनी है जिसमें एक प्यासा कौआ पानी के घड़े पर बैठता है, पर पाता है कि पानी इतना नीचे है कि उसकी चोंच पानी तक नही पहुंच सकती। वह आसपास से कंकड़ियां चुनता है और घड़े में तब तक डालता जाता है जब तक पानी ऊपर नहीं आ जाता, और फिर अपनी प्यास बुझा कर उड़ जाता है।

और वह कहानी जिसमें एक कुत्ता मुंह में रोटी का टुकड़ा दबाए चला जा रहा है। पानी में अपनी छाया देखकर सोचता है कोई दूसरा कुत्ता रोटी लिए चला जा रहा है। उससे रोटी छीनने के लिए वह भौंकता है और इसके साथ उसकी रोटी मुंह से गिर जाती है।

यह कहानी न भी सुनी हो तो भी वह उक्ति तो सुनी ही होगी, आधी तज सारी को धावै, आधी रहै न सारी पावै।

एक तीसरी कहानी। एक पेड़ पर एक कौआ चोंच में रोडी का टुकड़ा दबाए बैठा है। नीचे से एक लोमड़ी गुजरती है। रोटी देखकर लोमड़ी के मुंह में पानी भर आता है। वह पेड़ का नीचे बैठ जाती है और कौए के सुरीले कंठ की झूठी तारीफ करके उससे गाना गाने का अनुरोध करती है। वह गाने के लिए मुंह खोलता है कि रोटी नीचे गिर जाती है और लोमड़ी रोटी ले कर चंपत हो जाती है।

अब एक और कहानी ले लीजिए। एक था अंधा और एक था लंगड़ा। दोनों को एक चढ़ाई पार करनी थी। समतल मैदान में तो बेचारे टटोलते लटकते चल भी सकते थे। पर चढ़ाई पार करना तो उनके वश का था नहीं। लंगड़े ने सुझाया, यदि अंधा उसे कंधे पर चढ़ा ले तो दोनों चढ़ाई पार कर सकते हैं। और अंधे की समझ में भी यह बात आ गई। दोनों पार हो गए।

१. क्या आप जानते हैं ये कथाएं कितने हजार साल से सुनी और सुनाई जा रही हैं?
२. क्या आप जानते हैं इन कहानियों का अर्थ क्या है?
३. क्या आप जानते हैं कि इस इतिहास की खोज कोई विदेशी अध्येता नहीं कर सकता था और इस लिए जो अंग्रेजी को ज्ञान की भाषा मानते हैं और उसपर इतना भरोसा करते हैं की अंग्रेजी के ज्ञान को ही विषय के आधिकारिक ज्ञान का पर्याय मान लेते हैं वे कितने सिरफिरे हैं ?

पहले तो अपने सवालों के तेवर के लिए क्षमा याचना करूं, जिनसे हो सकता है आपके अहम् को चोट पहुंची हो, फिर इन प्रश्नों का उत्तर दूँ जिससे हो सकता है आपको भी लगे कि तेवर सख्त भले हो, इसका औचित्य था।

पहले प्रश्न का उत्तर तलाशते हुए हमारा ध्यान अधिक से अधिक पंचतंत्रकार विष्णु शर्मा तक या वृहत्कथाकार गुणाढ्य तक जा सकता है, पर जानते हैं पहली तीनों कहानियां हड़प्पा के बर्तनों पर चित्रित हैं। चित्रित हैं का यह मतलब नहीं कि ये ठीक उसी समय लिखी गई थीं। मतलब सिर्फ यह कि ये आज से पांच हजार साल से पहले कभी रची जा चुकी थी। चौथी कहानी ऋग्वेद में उसी तरह दैव कृपा से प्रेरित बताई गई है जैसे तुलसीदास के जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे में। ऋग्वेद में अंधे और लंगड़े का उल्लेख एक साथ हैः
प्रांधं श्रोणं च तारिषत् विवक्षसे।
इस कथा का ऋग्वेद में चार पांच बार हवाला आया है। एक स्थल पर स्पष्टतः प्रांधासीव का प्रयोग
जिसका मतलब जैसे अंधे ने कंधे पर बैठाया था उस तरह। एक अन्य स्थल पर , परावृजं प्रांधं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः, अर्थात् यात्रा (प्रव्रज्या के दौरान ) लंगड़े की आंख के सहारे चलाया। साहित्य में इसका प्रयोग यह दर्शाता है कि यह ऋग्वेद की प्राचीनतम ऋचाओं के समय से भी बहुत पहले की कथा है।

दूसरे प्रश्न का एक अर्थ तो यह है कि
(क) हमारा समाज इतिहास में संस्थित और वर्तमान में व्यवस्थित रहा है। इसका एक पांव भविष्य की ओर उठा और दूसरा अतीत में धंसा रहा है। इसने इसे क्रूरतम झंझावातों मे अपने मिजाज और मूल्यों को बचाकर रखने की शक्ति दी।
(ख) इतिहास का अर्थ हमारे लिए राजाओं और सामन्तों के कारनामों का कालबद्ध अभिलेख नहीं रहा है। उनके तो नाम तक को बचाकर रखने की इसे कभी चिंता न हुई । इतिहास का अर्थ था अपनी ज्ञान संपदा और मूल्यपरंपरा की रक्षा और जातीय अनुभवों की रक्षा।

(ग) हमारी इतिहासदृष्टि और जीवनदृष्टि में गहन प्रगाढ़ता रही है । यह पुस्तकस्थ न रही, इसलिए केवल कुछ विशेषज्ञों के जानने की चीज नहीं रही है अपितु एक पर्यावरण रहीहै, बोध रही है, परन्तु मुझे विश्वास नहीं कि इतिहासबोध को इतना महत्व देने वाले लालबहादुर वर्मा ने भी कभी इस बात को समझने का प्रयास किया होगा।

(घ) हम यह नहीं कहते कि हमारी इतिहासदृष्टि पश्चिमी इतिहासदृष्टि से अच्छी है, बल्कि यह कि यह पश्चिमी इतिहासदृष्टि से भिन्न रही है, और अधिक लोकतांत्रिक रही है और किसी से हेय नही रही है।

तीसरे प्रश्न के संबंध मे यह कि यह एक तरह का तथ्यकथन है। पाश्चात्य अध्येता सत्यान्वेषण के लिए भारतीय साहित्य, समाज, इतिहास का अध्ययन नहीं कर रहे थे। सचाई का पता उन्हें पहली ही मुठभेड़ में चल गया था जैसे बलाबल का ज्ञान पंजा लड़ाते ही हो जाता है। वे धोखाधड़ी के लिए, सचाई पर परदा डालने के लिए, तरीके निकाल रहे थे, जिसके लिए उन्होंने असाधारण अध्यवसाय किया, रटन्त ज्ञान के स्थान पर विश्लेषणात्मक पद्धति से संस्कृत पर अधिकार किया, जितना अधिकार किया उससे अधिक का दावा करते रहे और इस कमी को पूरा करने के लिए संस्कृत के उन्हीं परंपरावादी विद्वानों की सहायता लेते रहे और अपने उन सहायकों की तुलना में अधिक प्रकांड पर उनके विचारों से असहमत विद्वानों का उपहास, उपेक्षा और तिरस्कार करते रहे, संस्कृत के अध्ययन केंद्रों को अपने संरक्षण या अधिकार में लेकर अपने हितों के अनुरूप ढालते रहे।

प्रसंगवश याद दिला दें कि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रति पूरे सम्मान के बाद भी यह सोचा जा सकता है कि यदि उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन न किया होता तो वह विद्यातड़ाग की भी ख्याति अर्जित न कर पाते। यही बात डरते डरते राजा राममोहन राय के विषय में भी कही जा सकती है कि उनकी ख्याति में चार चांद लगाने में अंग्रेजी अखवारों की जो भूमिका थी, उससे वंचित होने पर वह अपने कद से कुछ छोटे रह जाते।

मैं यह नहीं कहता कि अंग्रेजी शिक्षा का उनका अनुमोदन गलत था। लगता यह है कि वह तत्कालीन भाषाई परिस्थितियों में सही विचार था। पर यह शासकों के अधिक अनुरूप था।
विलियम जोंस से लेकर टामस बरो और बैशम तक यही प्रवृत्ति निरपवाद काम करती रही है।

(ख) नई पीढ़यों के प्रतिभाशाली, अत: महत्वाकांक्षी युवकों को संरक्षण, प्रोत्साहन, पुरस्कार इतने ननु नच के बाद देते हुए कि खरीद-बिक्री का अंदेशा न पैदा हो, वे अपने अनुरूप ढालते रहे। इसे मैं उनकी संभावनाओं का वेदनाहारी (एनेस्थीसिया) इंजेक्देशन देकर उनका बौद्धिक बधियाकरण कहना समीचीन समझता हूं।

(ग) जो काम अंग्रेज अपने औपनिवेशिक हितों के लिए कर रहे थे, वही यूरोप के दूसरे देशों के लोग यूरोप और गोरे रंग की श्रेष्ठता की चिंता से कर रहे थे, जब कि उनमें से कौन सच्चा आर्य है और उन सच्चे आर्यों को अपने देश से प्रवसित सिद्ध करने की होड़ मची थी।

(घ) मैंने अपने अब तक के अध्ययनों में जो चौंकाने वाले दावे किये हैं, उनमें अस्सी प्रतिशत का ज्ञान यूरोप के लगभग सभी अध्येताओं को ज्ञात था इसके बाद भी वे सामूहिक सहमति से इसे छिपाते और अखाड़े के बाहर पैंतरेबाजी करते हुए अपनी असहमतियां जताते हुए वस्तुपरक और वैज्ञानिक सोच का दावा करते रहे हैं।

(ड) पश्चिम ने आज भी वर्चस्व और दबंगई की पुरानी नीति नहीं बदली है। जो वहां प्रतिष्ठा की कामना करता है, वह उनके काम का होना चाहता है। जो पा चुका है वह हमारा नहीं, उनका काम कर रहा है। जो इस बात पर गर्व करते हैं कि उन को इतने देशों के इतने ज्ञान केन्द्रों में अध्यापन का अवसर मिला है, इसलिए वे अपने विषय के भी अधिकारी विद्वान हैं, उनका बौद्धिक वधियाकरण हो चुका है, यह कहते हुए संकोच होता है, पर सचाई से पलायन भी तो नहीं किया जा सकता ।

(च) कोई यूरोपीय विद्वान अपनी मानसिक जकड़बंदी के कारण यह समझ और स्वीकार नहीं कर सकता कि भारत में जब साक्षरता भी न थी, शिक्षाशास्त्र के ऐसे प्रयोग पांच हजार साल से पहले किए गए थे जिनमें शिक्षा को गधे की लादी बनाने की जगह विनोद और लोकरंजन की विधा में बदला गया था और इसके कारण विश्व में शिक्षा का स्तर तब भी व्यापक था जब साक्षरता का स्तर अपेक्षा के अनुरूप न था।

(नीचे जो चित्रावली है वह हड़प्पा के पुरावशेषों से संकलिलत प्रो. ब्रजवासी लाल की पुस्तकं हाउ डीप आर द रूट्स आफ दि इंडियन सिविलाइजेशन से एकत्र किए गए हैं। सभी नमूने हड़प्पा सभ्यता की पुरासंपदा के हैे । वही पटरी, वही कंघा, वही बहुत कुछ, पर इनमे वे कहानियां भी हैं।)