हम भी मगरूर नहीं हैं फिर भी
सच कहेंगे तो बुरा मानोगे ।।
सुना आपबीती रहा था, फिर उसमें इतिहास और इतिहासकारों पर चर्चा कहां से आ गई?
इसे समझना कई दृष्टियों से रोचक हो सकता है। इनमें एक है मेरी चेतना और विचार प्रक्रिया जिससे मुझे बहुत असंतोष रहा है, परंतु जिसे समझने की इससे पहले मैंने कोशिश नहीं की। जो दोष मुझे सबसे अधिक खलता रहा है वह है एकाग्रता का अभाव और किसी एक काम को करते हुए थकान की जगह किसी दूसरे काम का आकर्षण। उस काम को छोड़ कर दूसरे पर जुट जाना और इसके बाद भी पहले को पूरा करने की चिन्ता का कहीं अनतर्मन में बने रहना, जिसके कारण इस दूसरे काम को भी पूरा करने से पहले इसकी ओर लौट पड़ना और कुछ विलंब से यह समझ पाना कि ये अलग नहीं हैं। इनके बीच गहरा संबंध है। एक का सतही ज्ञान भी दूसरे को अधिक गहराई से जानने में सहायक है। एक तक सीमित रह कर उसका सारा ज्ञान बटोर कर भी मैं उसे इतनी स्पष्टता से नहीं जान सकता था।
जो धुरीण विद्वानों के लिए जानकारी होती है और वे उनके बीच के अन्तर्विरोधों को भी नगण्य मान कर उनकी अवज्ञा कर जाते हैं और जब उनसे सामना कराया जाय तो वे हक्का बक्का रह जाते हैं वह मेरे लिए एक चित्र या चित्रमाला में बदल जाता है और इसमें मेरे अपने जीवन के अनुभव आधार फलक का काम करतें है ।
इसका दोष यह कि जहां दूसरे लोग अपने ज्ञान और कौशल के अनुसार किसी विषय पर सुथरे रूप में अपनी बात रख लेते है वहां उसके चित्र को शब्दबद्ध करना इतना कठिन होता है कि उसके एक पक्ष को बयान करने में इतना समय लग जाता है कि मैं दूसरे पहलुओं को भूल कर मान लेता हूं कि इससे समस्या का समाधान हो गया।
यदि कोई मेरे कथन पर सवाल उठाए तो उसका जवाब देने की जरूरत नहीं समझता। ऐसे प्रश्न समझने के लिए नहीं किए जाते, दोषदर्शन के लिए किए जाते हैं। जिज्ञासावश किए जायं तो समझाने में आनन्द भी आता है।
एक दूसरी बात जिसे समझने में इससे मदद मिल सकती है वह यह कि छोटी से छोटी विसंगति या असंगति जिसकी हम उपेक्षा कर जाते हैं, या जो हमारी जानकारी में पहले नहीं रही होती है या जिसका हम ध्यान नहीं रख पाते उसके जुड़ते ही पूरा आकलन बदल या उलट सकता है इसलिए छोटा से छोटा घटक सत्यान्वेषण में छोटा नहीं होता और तब तो बिल्कुल नहीं जब वह अनमेल पड़ रहा हो। उसकी निर्णायक भूमिका हो सकती है। वह पुराने नतीजे को बदल सकता है। सच तो यह है कि धूर्त लोग तर्काडंबर और वागाडंर से इन पर परदा डालते हुए अर्धसत्यों के सहारे झूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध कर देते है। यह अदालतों में भी होता है और समाजशास्त्रीय विवेचन में भी।
अब मैं उस स्मृति लोक और विचार प्रवाह पर बात कर सकता हूं जिससे निजी पीड़ा सामाजिक में, सामाजिक ऐतिहासिक में, ऐतिहासिक इसी चिंतन क्रम में एक नई सूचना के कारण ऐसी ऐतिहासिक बहस में बदल गई कि निजी और सामाजिक कुछ समय के लिए तिरोहित हो गया। कहें क्षुद्र पर सघन निजी पीड़ा माइक्रो से महत् आकार लेकर वैश्विक और कालातीत हो गई।
हम अतीत को जीते नहीं हैं, जीना भी नहीं चाहिए अन्यथा जीते जी सड़ जाएंगे। पर अतीत का बहुत कुछ वर्तमान होता है, इसलिए यदि हठपूर्वक अतीत को वर्तमान से बाहर करने की जिद ठान लें तो हम विक्षिप्त हो जाएंगे। अपने को तर्कवादी कहते हुए मुंहजोरी करने वाले इस सीधी सी बात को समझ नहीं पाते। पर कभी कभी कभी वह अतीत जो वर्तमान का हिस्सा नहीं है, दंश के रूप में उभर आता है, व्यथित करता है, पर यह किसी गहन स्तर पर हमें समृद्ध और सचेत भी करता है। यह स्मृतिदंश व्यक्तिगत भी हो सकता है, जातीय भी, राष्ट्रीय भी। जिन्हें यह दंश नहीं होता, वे या तो कालजयी हैं, या अपना आपा खो चुके हैं, या पाखंडी हैं।
सामान्यत: मैं अपने वर्तमान में ही रहता हूं, पर कभी कभी बचपन का दंश पीड़ामिश्रित गुदगुदी के रूप में उभरता है तो विगलित होने का, उन आंसुओं को जो तब न बहाए जा सके या बहने से रह गए बहाने का भी जी होता है। यह रेचन की प्रक्रिया है। जब आपबीती लिखने चला तब तो इससे बच ही नहीं सकता।
फिर
मैं थक जाता था। छोटी बहन का वजन जिस गति से बढ़ रहा था उस गति से मेरी क्षमता नहीं बढ़ रही थी। इसलिए उसका बड़ा होना मेरी यातना में वृद्धि का पर्याय था। इसी क्रम में याद आया कि यदि मेरे घर में एक पालना होता तो उसे गोद में संभाले, रोने से बचाने के लिए हिलाने डुलाने की जगह उसमें रख कर झुलाते हुए उस यातना से बच सकता था। बाबा जो दूसरे बहुत से खर्चे करते रहते थे, जो मेरी यातना के द्रष्टा भी थे, कम से कम इतना तो कर सकते थे कि एक पालना बनवा दें। निष्कर्ष, उस समय पहले पुत्र या पुत्री को छोड़ कर शेष संतानों को अवांछित संतान समझा जाता था।
यह याद आया कि पालना तो उन संतानों के लिए भी न था जिनको इतना प्यार किया जाता था कि वह दिखाई भी देता था। गौर किया तो पाया कि जिन घरों से मैं परिचित था उनमें किसी घर में पालना दिखाई ही नहीं दिया। मैने बचपन में भोगा था पर याद आज अपनी अद्यतन सूचनाओं से लैस हो कर कर रहा था इसलिए मुझे भारतीय ग्राम समाज के विषय में मार्क्स के विचार भी याद आए और कोसंबी ने उनकी आलोचना में जो कुछ कहा है वह भी याद आया पर लगा मार्क्स उसके बाद भी सही हैं। वे ही खिलौने, वे ही दस्तूर, वही शिक्षा प्रणाली, वही पटरी, वही कंघा, वही सिंदूर, वही खेल, वही टुंइया, वही कूंड़ा जो हड़प्पा काल में प्रचललित था मेरे अपने ग्रामसमाज में भी प्रचलित था। पांच हजार सालों में कुछ बदला ही नहीं।
पर इस पर टिकता उससे पहले ही यह प्रश्न मुंह बा कर खड़ा हो गया कि जब हमारे ग्राम समाज तक हड़प्पा कालीन आवास व्यवस्था, उपकरणों और मानों के साथ जीवित हैं तो फिर आर्य कौन थे? क्या थे? क्यों थे? और इसी बीच एक मित्र ने एक लिंक भेज दिया और जो निजी था उसे एक पुराने शेर को पिंजड़े से निकाल कर असली शेर बनाने जैसी कवायद से गुजरना पड़ा –
सिकुड़ो तो आप ही हैं
फैलो तो जमाना है ।।