अवधू तीन लोक सों न्यारो
प्रात: स्नान करना शरीर को स्वच्छ या निर्मल करना नहीं, शुद्ध करना है।
भारतीय समाज दो भागों में बंटा है। एक जो प्रात:स्नान करता है, और दूसरा जो सांध्यस्नान करता है। दुनिया के सारे लोग दिन में कामकाज करते और कामकाज के चलते धूल, मैल, पसीने से गंदे होते है, इसलिए शाम को शरीर की मैल साफ करने के लिए नहाते हैं। जो शरीर से केवल एक ही उत्पादक काम करते हैं और उसे भी पाप की तरह करते हैं वे अपने काम के बाद गंदे नहीं होते, अपवित्र हो जाते है और इसलिए स्वच्छता के लिए स्नान नहीं करते, शुद्धता के लिए स्नान करते हैं, सो पानी में एक डुबकी लगाने से भी उनका स्नान पूरा हो सकता है, यहां तक कि पानी छिड़ने से भी काम चल सकता है। पर इसी धक्के में अपने अगले जनम को सुधारने के लिए अपने ज्ञात अज्ञात पापों को भी धोते-बहाते रहते हैं।
परंपरा पुरानी है। ऋग्वेद का एक कवि कहता है, इदमापः प्रवहत यत् किंचित् दुरितं मयि l यद् वा अहं अभीदुद्रोह,यत वा शेप उतानृतम् ।
‘ये जल हमारे उन पापों को भी धो-बहा ले जायं, जिनका हमें भी पता नहीं, जो हमसे अनजाने में हो हो गए हों, जो मेरे मन में किसी के प्रति द्वेष पैदा हुए हों, या जो हमारे मुंह से गलत बात निकलने हुआ हो।’
नदी में स्नान का महत्व इसी पाप प्रक्षालन से जुड़ा है, पाप को धोने बहाने के लिए नदी में स्नान अधिक पवित्र और कुछ खास पर्वों पर स्नान अधिक उपयोगी रहा है, और नदियों में भी कुछ नदियां तो पाप धोने के लिए सीधे ब्रह्मा या विष्णु से पैदा होकर धरती पर उतरी और प्रवाहित हुई थीं। सरस्वती या गंगा जैसी नदियां पापहरण के लिए उतरी थी और अज्ञानी और लोभी जन इनका उपयोग नौवहन और सिंचाई के लिए करने से बाज न आते थे।
पर फिर सोचना पड़ता है कि क्या इतना संवेदनशील और पापभीरु समाज सचेत रूप में किसी के प्रति कोई अन्याय कर सकता था?
भटकने का डर है इसलिए यहां इतना ही कि जिस बौद्ध मत को सनातन या वैदिक मूल्यव्यवस्था से अधिक प्रगतिशील बताया जाता है, वह लगभग सभी मामलों में प्रतिगामी था। उसमें भौतिक जीवन की उपेक्षा थी। परलोकवाद न था, पर पूर्वजन्मों के कर्मफल और उसके भोग में विश्वास था, जो स्वर्ग नरक की पुरानी अवधारणा से अधिक खतरनाक था, क्योंकि इससे सामाजिक और आर्थिक विषमता को समर्थन मिलने लगा। एक ओर इसने वर्णव्यवस्था को धता बताते हुए सभी जनों के लिए अपने मत का, जिसे पहली बार इसने धर्म की संज्ञा दी, द्वार खोल दिया जो इसका एकमात्र प्रगतिशील कदम है। दूसरी ओर ब्रहमचर्य को इंद्रिय निग्रह तक सीमित करके और अहिंसा पर अनावश्यक बल दे कर, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को पहले से अधिक हेय बनाया और अस्पृश्यता का पर्यावरण तैयार किया । इसका प्रगतिशील समझा जाने वाला कदम भी औपनिषदिक एकत्व या समभाव से आगे नहीं जा पाता। स्वच्छता का इसका मानदंड बहुत लचर था। आश्चर्य नहीं कि सामाजिक न्याय के लिेए विख्यात संत आन्दोलन ने अपनी प्रेरणा और भाषा बौद्ध मत से न लेकर उपनिषदों से ग्रहण की ।
भटकने से बचते हुए भी इतना तो भटक ही गए कि यह बता ही नहीं पाए कि प्रात:स्नाता और सान्ध्य स्नाता, शुद्धतावादी और स्वच्छतावादी जनों से ऊपर और इन दोनों के लिए स्पृहणीय एक तीसरा वर्ग भी होता है जिसके लिए ये सारी श्रेणियां बेकार होती हैं। इसमे पुराने समय के अवधूत, मध्यकाल के सूफी पीर, आधुनिक युग के अपने बचपन के अपने राम और विज्ञानयुग के महान आविष्कारक स्टीव जाॅब आते हैं। ये आत्मा से शुद्ध और स्वच्छ दोनों होते हैं इसलिए काया की गंदगी की ओर ध्यान नहीं देते । ये दूसरों को गन्दा दिखाई देने पर भी गन्दे नहीं होते न यह समझ पाते हैं कि वे भी गंदे हो सकते हैं। वे मानते हैं कि नहाना एक दंड है और उनकी मान्प्रयता का एक दार्शनिक आधार है। प्रकृति ने जब किसी दूसरे जानवर को नहाने की सजा नहीं दी, फिर आदमी पर ही यह अन्याय क्यों? नहाना अप्राकृतिक और अस्नात काया से उठनेवाली गंध को मर्दानाक्रीम और जनानाक्रीम की विज्ञापित भाषा मे विसर्गमुक्त भाव से झेलने की योग्यता का विकास करना प्राकृतिक भी है, आधुनिक भी है और, आज तो, सर्वविदित भी है।
आदमी को नहलाना, नहाने को बाध्य करना, न नहाने वालों से भेदभाव बरतना क्रूरता है और इस क्रूरता का शिकार मुझे बनना पडता था। उसे बयान करने का आज समय तो है नहीं।
कल कहेंगे जो आज कहना था
कल का कलिकाल में ठिकाना क्या।