Post – 2017-11-03

स्वच्छता और पवित्रता

मैं बचपन में बहुत गन्दा रहता था। उस छोटी उम्र में जब मुझे स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी उन पर थी जो सफाई और गंदगी का भेद जानते थे। उनके पास मेरे लिए कुछ नहीं था। समय तक नहीं। पिता जी छावनी पर रहते। दोपहर और शाम को खाना खाने लिए आते तो देख लेता, पर निकट जाने का साहस नहीं होता था। छावनी न होती, वह घर पर भी होते तो भी उनके पास अपनी संतानों के लिए समय नहीं हो सकता था।

दीदी को सहेलियों के साथ खेलने, कूदने से फुर्सत न थी। उसने सीना पिरोना और अक्षर ज्ञान कब और किससे पाया, यह मुझे पता न चला, पर वह किसी रहस्यमय तरीके से यह सब जानती थी। दूसरे किसी की अपेक्षा मैं दीदी से कुछ लगाव अनुभव करता था, परंतु उसका सारा स्नेह भैया के लिए था । कुछ ऐसे काम थे जिनके लिए भैया पकड में आ जाते थे क्योंकि वह मेरे बूते का था जैसे छावनी से दूध लाना, या रहेट्ठा (अरहर का सूखा डंठल) तोड़ कर या लकड़ी चीर कर जलावन के लिए घर में पहुचाना, पर जहां उन्हें लगता कि वह काम भी मुझसे कराया जा सकता, वह उसे भी मेरे ऊपर लाद कर उससे मुक्त हो जाते। वह इस समय का उपयोग ताश खेलने में करते। उनका मेरे प्रति कोई कर्तव्य न था, मैं उनसे छोटा था इसलिए न तो उनके आदेश की अवज्ञा कर सकता था, न उनसे हुज्जत कर सकता था। ऐसे कामों को संभाल मैंने उन्हें घर का कोई काम करते नही देखा। इसके बाद भी उनको सभी प्यार करते, माई को छोड़कर और वह उसी अनुपात में बिगड़ते गए थे। जिस एकमात्र कला का विकास किया था वह था झूठ बोलना और डींग हांकना।

बाबा साठ साल की उम्र मे ही अचलस्त से हो गए थे। मरने के बाद नरक से बचने के लिए वह जो जुगत भिड़ाते रहते थे उनके चलते ही उन्होंने कभी चारों धाम करने की ठान ली थी, याद नहीं आता ठीक कब। अजीब बात है। बाबा के प्रसंग में यह बात कभी ध्यान में आई ही नहीं और आज अचानक थैला तक याद आ गया जो ठीक इसी प्रयोजन के लिए सिला गया था। यह मारकीन के सात आठ गज कपड़े को दोहरा करके इस तरह सिला गया था कि दोनों सिरों पर तीन तीन फुट लंबे थैले बन जाएं और बीच का हिस्सा कंधे पर टांगने के लिए पट्टे का काम करे। आगे और पीछे लटकते इन थैलों में कपड़ा-लत्ता, लोटा डोरी, सत्तू, चिउड़ा, नमक, सब कसा गया था। अनुमान है कि इन थैलों के भीतर पैसा, रुपया रखने की थैलियां भी बनी रही होंगी। बाबा का स्वास्थ्य उस समय ठीक रहा होगा, पर उसकी कोई तसवीर नहीं उभरती, जब कि कसे हुए उन थैलों की उभरती है।

तीर्थयात्रा आज सैलानी पन का ही एक रूप है, परन्तु उन दिनों जब यातायात के सीमित साधन थे, या उससे भी पहले जब उनका भी अभाव था, यह सचमुच एक साधना थी। जाना तय था पहुंच पाना अनिश्चित था और लौट कर जीवित वापस आने का कोई ठिकाना न था। बहुत से लोग इस आशंका से कि कहीं ऐसी जगह हारी बीमारी में मौत न हो जाय कि किसी परिजन को खबर ही न लग सके, प्रस्थान से पहले अपनी प्रतीकात्मक अंत्येष्टि करके तीर्थ यात्रा पर निकलते। रास्ते में जहां कहीं सत्तू भूजा मोल मिल जाता खरीद कर खाते। थैले का सामान उन स्थितियों के लिए होता जब कहीं कुछ नहीं मिलता। वे अक्सर दल बनाकर निकलते। बाबा के मामले में उनके प्रस्थान का या ऐसे दल का कोई आभास नहीं। गए किसी दल के साथ ही थे क्योंकि एक आभासिक स्मृति उभरती लग रही है कि दूसरे लोग आगे चले गए थे, यह अकेले लौटे थे।

हुआ यह था कि उन्होंने पहला तीर्थ बद्रीनाथ को चुना था। ठंढ को झेलने के लिए धोती और चादर तो उपयुक्त हो नहीं सकते थे। शरीर भारी था। चढ़ाई में घुटने जवाब दे गए। गठिया की शिकायत और घुटनों को लपेटने के ऊनी पट्टों के साथ लौटे थे। पट्टों की याद है, उन्हें लपेटने के दृश्यों की भी याद है फिर भी इसका कालक्रम बैठ नहीं पाता। जिसे उन्होंने गठिया समझ लिया था वह गंठिया तो न था, क्योंकि कछ दिनों के बाद उनहोंने वह पट्टा लपेटना बन्द कर दिया था। परन्तु इसके बाद वह लगभग बैठ से गए थे। कहीं आने जाने के नाम पर मंगलवार की बाजार करने जाते, एकाध बार छावनी तक।

बद्रीनाथ की यात्रा से ही वह एक और बीमारी ले कर लौटे थे, या यदि यह पहले से थी तो इसके बाद उग्र हो गई थी। यह थी ब्राकाइटिस, जिसे वह दमा समझते थे। इसके बाद से ही उन्हें जाड़ा इतना अधिक सताता कि रुइभरे की माटाई के बाद भी सिहरते रहते थे। इन सभीका मिला जुला असर ही था कि वह दरवाजे से बंध कर रह मए थे और समय बिताने का उनका एक सहारा ताश का खेल बन गया था। अब उनकी देख संभाल के लिए दूसरों की जरूरत थी, वह किसी दूसरे की देख भाल नहीं कर सकते थे। उन्हें नहलाने के लिए रामबालक के लड़के सीता राम की सेवा ली जाने लगी थी।

बाबा दोपहर तक का समय कैसे बिताते इसका ठीक हिसाब नहीं मालूम । संभव है कुछ समय विश्वामित्र के साप्ताहिक अंक को पढ़ने में लगाते रहे हों, जिसमें साहित्य आदि के साथ पूरे सप्ताह के समाचारों का सार भी तिथिवार दिया होता था। साहित्य में उनकी कोई रुचि थी तो वह रामायण तक सीमित थी।

बाबा को समय काटने के लिए ताश खेलने की आदत पड़ गई थी. वह ताश के पत्तों का खर्च झेल सकते थे और संभव है ताश खेलने को उ न्नत मनोरंजन मानते रहे हों, इसलिए पच्छिमी गोसवारे में दो खांटों को जोड़ कर ताश खेलने वालों के लिए मंच तैयार कर दिया जाता और खिलाड़ी जुटते जाते जो खेल न पाते वे तमाशा देखते रहते और किसी जकके किसी काम से उठाने की स्थिति में अपनी बारी का इंतजार करते. खेल के नाम पर वे शाह काट से आगे कुछ न जानते थे. तमाशा देखने वालों में भैया भी शामिल होते । सभी इतने व्यस्त थे कि किसा के पास किसी और के लिए समय ही न था।

मैं गंदा इसलिए रहता था कि मैं समाज के उस पवित्र हिस्से का सदस्य था जिसे गंदा रहने, साफ सुथरी चीज को भी गंदा करते रहने की आदत है। वह सड़ांध और दुर्गंध के बीच, घंटों, दिनों, महीनों रह सकता है, पर उसे साफ करके उससे मुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि ऐसा करते ही उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी। उसे स्वच्छ रखने के लिए गन्दे और अपवित्र आदमियों की जरूरत है। वह गंदा आदमी बनना किसी को पसंद न था।