Post – 2017-10-23

चित्रलेखन की परंपरा

क्या आपने चित्रलेखा नाम सुना है? क्या आप चित्रगुप्त नामक यमराज के लेखाकार से परिचित हैं? क्या आपने यह समझने की कोशिश की है कि भूमि के लेखाकार या कायस्थ (कार्यस्थ) अपना आदि पूर्वज जिस चित्रगुप्त को मानते हैं वह अपना अपना हिसाब किताब चित्रलिपि में लिखते थे और आज भी वह वर्णमाला से परिचित नहीं हो पाए हैं, उन महिलाओं की तरह जिन्हें शिक्षा से वंचित कर दिया गया था, परंतु जो चित्र लिपि में अपने भावों को प्रकट करती रहीं और इतिहास की चिंदियों को संजोने का काम करती रहीं जो कुछ विशेष आयोजनों तक सिमट कर रह गया। ऐसा ही एक अवसर है नव वधू के कक्ष का भित्तिचित्र जिसे कोहबर कहते हैं। कोहबर का अर्थ आप शायद न जानते हों। इसमें कोह तो खोह या गुफा है और बर घर का अपभ्रंश।

अब आप चाहें तो इस परंपरा को उस प्राचीन अवस्था से जोड़ सकते हैं जब हमारे पूर्वज शैलाश्रयों में रहते थे। इससे संभव है भीमबेटका के चित्रों का आशय समझने मां भी कुछ मदद मिले। भीम बेटका के चित्रों में कई युगों की कलाकारी देखने को मिलती है. कुछ तो बहुत प्राचीन और कुछ केवल दो चार हज़ार साल पुरानी। कभी लोग विवशता में गुफाओं में रहते थे तो बाद में कुछ लोग साधना या एकांतवास के लिए उनमे बसते रहे। सभ्यता के विकास के बावजूद कुछ जन अपनी प्राचीन परिपाटी के प्रति आसक्ति के कारण पिछड़े रहे तो कुछ को सभ्याता के क्रम में पैदा विषमता के कारण पिछली अवस्थाओं में रहने को विवश किया गया। ऐसा कूोई युग न था जब हमारा समाज एक साथ चिर आदिम अवस्थाओं से लेकर अति उन्नत अवस्था में एक साथ जीवित न रहा हो, फिर भी कुछ भी अपने आदिम निरालेपन को बचाए रह सका हो।

चित्र लिपि के साथ भी यही हुआ। इसका इतिहास हड़प्पा की मुद्राओं और चिन्हित भाँड़ो आदि से उससे अधिक पुराना है जितना पुराना आज से हड़प्पा का चरण। हड़प्पा को हम भूल गए थे इसके बाद भी उससे पांच सात हजार साल पहले की अवस्थाओं की स्मृति की हम रक्षा कर सके तो उन कथाओं के कारण जिन को चित्रलेखन के माध्यम से जीवित और उनके भाष्य के माध्यम से दृष्टिगोचर बनाते रहे।

यह याद मुझे उस चित्रलेखन के कारण आ गई जो अन्नकूट के अवसर पर गोबर से बनाया जाता था और जिसके कारण इसे हमारे यहाँ गोधन कहते थे। यह उस गोवर्धन पूजा से अलग है जो कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने के रूप में किन्ही क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पंडितों पुरोहितों की रचना है और मुझे दुविधा हुई कि यह ठीक परवा के दिन मनाया जाता था या अगले दिन तो अंतरजाल से शंकानिवारण करना चाहा तो पाया सभी में इसे श्रीकृष्ण के गोवर्धन उठाने के उपलक्ष्य में आयोजित माना गया है, कुछ उसी तरह जैसे दीपावली को राम की लंकाविजय के बाद अयोध्या वापसी के साथ जोड़ने की परम्परा है।

मैंने ऐसे ही घालमेल के बहुत सारे नमूनों को ध्यान में रख कर कहा था कि लाभ लोभ के वशीभूत सुपठित लोगों ने इतिहास का सत्यानाश किया है और महिलाओं ने और पिछड़े जुनों ने इसे अपनी अनमोल निधि के रूप में बचाने का प्रयत्न किया है। कमाल यह कि राम की अयोध्या वापसी के अगले ही दिन कृष्ण ने पर्वत उठा लिया।

गोवर्धन की कथा प्रतीकात्मक है, और विषयांतर के भय से मैं उसको न उठाऊँगा। परंतु गोवर्धन उठाने की प्रचलित कथा के अनुसार इंद्र का प्रकोप प्रलयंकर वृष्टि बन कर आया था जब कि क्वार के मध्य में ही वर्षा समाप्त हो जाती है और भूमि की आर्द्रता घटने लगती है। भूमि कार्तिक के मध्य तक जोताई के योग्य हो जाती है। अतः यह कृषि कर्म के आरंभ का पर्व है। कृष्ण का नहीं, बलराम (संकर्षण) का पर्व और एक तरह इंद्र की जीत का पर्व है, क्योंकि इन्द्र हल आधारित कृषि के जनक माने गए हैं जब भूमि पर स्वामित्व कायम हो गया था और कृषिकर्मी वर्ग उस पर आश्रित हो गया था – इंद्रः आसीत् सीरपतिः शतक्रतुः कीनाशः आसन् मरुतः सुदानव।

पर इसके साथ ही वह उन्नत व्यापार के भी देवता हैं। खुले हाथ लुटाने वाले दानी हैं। ऋग्वेद में क्षीरसागर वाले विष्णु और लक्ष्मी नहीं हैं, इंद्र हैं और भोग-विलास वाली इंद्राणी हैं।

अभिभुवेऽ विश्वजिते धनजिते स्वर्जिते सत्राजिते नृजिते उर्वराजिते ।
अश्वजिते गोजिते अब्जिते भर इन्द्राय सोमं यजताय हर्यतम् ।। ऋ. 2.21.1

भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर ।
भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।। 4.32.20

अब इसे इसके ठीक पहले के दारिद्र्य भगाने के सूर्प-नाद के साथ आरंभ श्रीवृदधि के बहुमुखी प्रयत्नों पर दृष्टिपात करेः
1. किसान बैलों की आवभगत करता है। उन्हें साल में एक दिन, बिना कोई काम किए, जौ आदि की खिचड़ी और पकवान खाने को मिलता है। अगले दिन से उसे जीतोड़ मेहनत करनी है। इससे ही मुहावरा चला है, परुआ (परिवा का) बैल। इसका गाय या गोवंश से सीधा संबंध नहीं है।

2. इसके अगला दिन भैयादूज । सच कहें तो यह बनियों का पर्व है, बहनें अपने भाई से मिलने जा रही हैं जिसे या तो सुदूर व्यापार पर जाना है । भाई एक खतरनाक यात्रा पर जा रहा है इसलिए देना-पावना निपटा चुका है।

3. शरद् ऋतु वै वैश्य ऋतुः। इसी शरत् की उत्कंठा जीवेम शरदः शतम्, पश्येम शरदः शतम्, शृणुयाम शरदः शतम्, अदीनाः श्याम शरदः शतम् में व्यक्त हुई है:

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिव्र्यशेम देवहितं यदायुः ।।
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ।। ऋ.1.89.8-9

4. इसी ऋतु में राज्यविस्तार के इच्छुक या पुरोहितों द्वारा प्रेरित राजा विजय के लिए निकलते थे, यह सर्वविदित है, जिसमें इतना और याद दिलाया जा सकता है कि इंद्र युद्ध और विजय के भी देवता हैः

मां नरः स्वश्वा वाजयन्तः मां वृताः समरणे हवन्ते ।
कृणोम्याजिं मघवाहमिन्द्र इयर्मि रेणुमभिभूत्योजाः ।। ऋ. 4.42.5

ये श्रीवृद्धि के अध्यवसायों और उपक्रमों से और यथार्थ से गहरे सरोकारों जुड़े पर्व हैं और ब्राह्मणों के ढकोसले नहीं हैं फिर भी ब्राह्मणों ने इनकी ऐतिहासिकता को समझे बिना अपनी ओर से जो जोड़ा बदला है, वह अनर्गल और बचकाना है।

गोधन गोवर्धन नहीं है। चरवाहों का पर्व नही है। किसानी से जुड़ा है। भैयादूज बनियों का पर्व है और क्षत्रियों का पर्व जीवित्त् पुत्रिका या जिउतिया है जो कुछ पहले सम्पन्न हो जाता है क्योंकि दीपावली के बाद तो राजा प्रयाण कर देगा उसकी सेना में जगह पाने वाले घर से पहले ही विदा हो चुके होंगे।

पर जिस चित्रलेखन का गोधन से सम्बन्ध है उसकी रचना और प्राचीनता पर तो बात हो नहीं पाई। इस पर कल चर्चा करेंगे। मैं चाहूँगा कि हमारे तर्कवादी मित्र भी इस पर नज़र डालं और गुण दोष पर चर्चा करें।