Post – 2017-09-22

मां का जाना (1)

असंख्य प्रयत्नों के बाद मां का कोई चित्र उकेर न पाने के बाद भी मैं उस अर्धसाकार अर्धनिराकार को बहुत प्यार करता, क्योंकि वही मेरा सर्वस्व थी। चाहें तो इसे विवशता कहें, चाहें तो प्यार, या प्यार से बहुत छोटे, पर अधिक पवित्र लगनेवाले आस्था, श्रद्धा, भक्ति का प्रयोग करें।

प्यार दुनिया का सबसे अधिक परिभाषित और सबसे कम समझा गया मनोव्यापार है। यह वह रसायन है जिसके स्पर्श से सत्य की, सौंदर्य की, पवित्रता की, महिमा की परिभाषाएं बदल जाती हैं । यदि नहीं बदलतीं तो वह कुछ और है, आसक्ति, कामातुरता, इच्छापूर्ति, जो विफलता में घृणा, द्वेष, आत्मघात और सर्वसंहार का भी रूप ले सकता है।

प्रेम अपने अभाव की पूर्ति का दूसरा नाम है और हम आजीवन अपने अभावों को दूर के और अपनी अपूर्णता को पूरा करने, का प्रयत्न करते हैं। विरोध का, प्रतिरोध का, हिंसा या प्रतिहिंसा का स्थान बचता ही नहीं। प्रिय की कमियों तक से लगाव पैदा हो जाता है। इसका सबसे स्पष्ट बोध जन्मभूमि से प्रेम में मिलता है जिसमें अनेक असुविधाओं के बाद भी अपने जन्म का भौगोलिक परिवेश ही समस्त सुख सुविधाओं से सज्जित देशों और स्थानों की तुलना में अधिक आत्मीय लगता है। तप्त रेगिस्तान से निकला आदमी भारत जैसे देश में भी खजूर के तले ठंडी ठंडी छाँव के सपने देखता है। भिन्न परिवेश से निकले लोगो को. पपीता, नारियल, खजूर, ताड़, के देश में पाम की जरूरत पड़ती है।

मां मरी तब मैं सवा तीन साल का था। मरना क्या होता है यह नहीं जानता था। उसकी मृत्यु प्रसूत ज्वर से हुई थी। प्रसव की ग्राम्य व्यवस्था ऐसी थी जिसमें शिशु और प्रसूता का मरना अधिक संभव था। बच जाना एक आश्चर्य। इसके बाद भी माताएं और शिशु प्रभु की लीला से प्राय: बच जाते थे । मैं दीदी और भैया और हमारे जन्म के समय मां का बच जाना उन्हीं आश्चर्यों में था और ऐसा ही आश्चर्य माई के साथ घटित हुआ था जिसकी एक संतान को छोड़ कर सभी बच्चे जीवित बच रहे थे और वह पिता जी की मृत्यु के चौदह साल बाद तक जीवित रही। दोनों की आयु में भी लगभग इतना ही अन्तर था।

इस व्यवस्था का पता भी मुझे तब चला जब माई के कभी आसन्न प्रसवा होने की स्थिति में धगरिन को बुलाने जाना पड़ा थ। वह चमाइन थी । वे सूअर पालते थे और उनकी बस्ती इतनी गन्दी थी कि दूर से ही बदबू आती थी। वे इन्हें जानवर कहते। गांव के झुंगे झाड़ी की सफाई इनके जानवरों के चरने से ही होती। उसके नहाने धोने और कपडों की सफाई और आदि की दशा उसके अनुरूप ही थी ।

वह प्रसव में सहायता करती, नार काटने के लिए हंसिये को निर्विष करने के लिए उसे लाल गर्म करती और उस तपते हंसिए की धार से नाल काटती और शिशु की सफाई करती । इसके अलावा वह दो काम और करती। पहला अन्त:स्राव में कमी होने पर पेट पर दबाव डालतीं जिनमें कुछ मामलों में प्रसूता और शिशु दोनों की जान चली जाती। दूसरा काम यह कि यदि मां को दूध न उतरता जो कुपोषण के कारण प्राय: होता, तो वे अपना दूध पिला देतीं और इसलिए हमसे कुछ बाद तक की पीढ़ी की उच्च मानी जाने वाली जातियों की सन्तानों को द्विमाता कहा जा जा सकता है। एक जन्मदात्री माँ, दूसरी धात्री माँ जिसको दुग्धपान कराने का प्रथम अवसर मिलता था, क्योंकि किसी गलतफहमी के चलते गाय, भैंस के प्रथम अमृतोपम दूध को अशुद्ध और अधिक पीने को हानिकर माना जाता था और माँ के प्रथम गाढे दूध को दुह कर बर्वाद कर दिया जाता था । देखें, इतनी देर बाद याद आया कि कुपोषण के कारण दूध न उतरने पर नहीं, इस विश्वास के कारण कि माँ का प्राकृत दूध शिशु के लिए हानिकर है, उसे पिलाया ही नहीं जाता था।

यदि हममें सचमुच मातृभक्ति होती तो स्वयं उच्च वर्णों को अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाना था। गाय की पूजा करने वाले अपनी धगरी (नाभिरज्जु काटने और पहला स्तनपान करानेवाली मां) और उसकी संतानों के घर जलाते हैं।