एक विकट चुनौती
पहली बार मुझे हाल के खतौली के हादसे में पता चला की मरम्मत हो रही थी, लाइन उखड़ी हुई थी और कोई ऐसी सावधानी नहीं बरती गई जिससे ड्राईवर को इसकी पूर्व सूचना मिल सके। पहली बार ट्रेन के आने के समय पर मरम्मत का काम हो रहा था। पहली बार स्टेशन मास्टर के मना करने पर या उसकी सूचना के बिना काम हो रहा था। पहली बार यह सुनने को मिला कि यदि इंजीनियरिंग स्टाफ को लगे कि लाइन में खराबी है तो वह स्टेशन मास्टर से अनुमति प्राप्त करेगा तब काम करेगा। नहीं जनाब अगर एक केबिन मैन को किसी खराबी का पता चल जाए तो वह उस मुकाम से पहले ही झंडी दिखाकर गाड़ी को रोक सकता है। जाहिर है रिपोर्टरों और समाचार चैनलों को या तो सही स्थिति की जानकारी नहीं दी गई या अपने अपराध को छिपाने के लिए भारी लीपापोती की गई।
अब हम उस सूचना को लें जिसका खंडन नहीं किया गया या जो साक्ष्यों पर आधारित है:
1. इंजीनियरी दल ने स्टेशन मास्टर को सूचित किया कि अमुक स्थल पर पटरी में खराबी है जिसे वह ठीक करने जा रहा है।
2. यह स्टेशन मास्टर की ड्यटी थी कि वह तत्काल इसकी सूचना ट्रैफिक कंट्रोल को देता जो उस पटरी से गुजरने वाली गाड़ियों को पिछले पड़ाव पर या बीच के किसी स्टेशनमास्टर को सूचित करके उसे पहले ही रोकता या किसी अन्य मार्ग से निकालता।
3. यदि स्टेशन मास्टर ने ऐसा नहीं किया तो दुर्घटना की जम्मेदारी उस पर आती है, और यदि उसने ऐसा किया तो उस समय ड्यूटी पर उपस्थित ट्रैफिक कंट्रोलर की या यदि कंट्रोल ने संबंधित स्टेशन मास्टर को उसने निर्देश दे दिया और उसने शिथिलत बरती तो उस पर।
4. एक पेचीदा समस्या उस स्थिति में पैदा होती है जिसमें इंजीनियरी दस्ता स्टेशन मास्टर को सूचना देने पहुंचता है और वह उसे बताता है कि ट्रेन तो पिछले पड़ाव से चल पड़ी है। यही वह स्थिति है जिसमें वह कह सकता है कि रिपेयर का समय तो है ही नहीं परन्तु सच कहें तो रेलवे की परिभाषा में दुर्घटना अब तक घट चुकी है। अब जो काम करना है वह है इससे होने वाले नुकसान को कम करना। यह आपातिक स्थिति है जिसमें स्टेशन मास्टर से लेकर इस दल के लोगों को निम्नलिखित काम करने हैं।
अ. स्टेशन मास्टर ट्रैफिक कंट्रोल को सूचित करना।
ई. आज के उन्नत संचार युग में यदि बीच में कोई केबिन हो तो उसके माध्यम से खतरे की झंडी दिखा कर गाड़ी को रोकना। समय इतना था कि इस जत्थे के लोग खराबी की जगह पर पहुंचने में सफल भी हो गए और ट्रेन को बढ़ते देख जान बचाने के लिए भागे और अपने औज़ार तक समेट न पाए।
यहीं मुझे तोड़ फोड़ या भितरघात का सन्देह निम्न कारणों से होता है:
• मरम्मत के काम का समय ट्रेन आने के समय से कुछ ही समय पहले चुनना। ऐसा नहीं हो सकता कि इंजीनियरिंग दल को ट्रेन का समय न पता रहा हो।
• काम आरंभ करने से पहले कार्यस्थल से इतने आगे खतरे की झंडी गाड़ना जिससे समय रहते प्रभावित स्थल से पीछे ही गाड़ी को रोका जा सके।
• गाड़ी की पटरियों में गाड़ी के आने सै बहुत पहले से कंपन आरंभ हो जाता है उसके बाद एक किलोमीटर की दूरी से गाड़ी नजर आती है, फिर उसकी आवाज सुनाई देती है, अर्थात् घटनास्थल पर जो औज़ार मिले उन्हें संभालने का पर्याप्त समय था। इसलिए तोड़फोड़ करने वालों ने जानबूझकर उन्हें वहीं पड़े रहने दिया। तोड़फोड़ की जगह भी एक बस्ती के निकट चुनी गई जिससे अधिकतम क्षति पहुंच सके। गांव के लोगों को यह पता हो ही न सकता था कि य रेलवे के कर्मचारी हैं या नहीं।
इससे पहले की दुर्घटनाएं जो कानपुर रामपुर आदि में हुई थी वे तोड़फोड़ के कारण हई थी। औजारों तक इनकी पहुंच कैसे हुईं यह खोज का विषय है, औजार भले रेलवे के ही काम में लाये गये हों परन्तु यह सुनियोजित षड्यंत्र था और इसके पीछे किसी आतंकी दल का हाथ था।
यदि नहीं तो यह जानबूझकर की गई आपराधिक कार्रवाई थी और इसके लिए मात्र सस्पेंड करना या नौकरी से हटाना काफी नहीं है, यह इरादतन नर संहार का मामला है जिसके लिए सीधे जिम्मेदार व्यक्तियों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए । साथ ही इस बात की पड़ताल की जानी चाहिये कि रेलवे के संवेदनशील विभागों में किन संगठनों और विचारधाराओं के लोगों का किस पैमाने पर प्रवेश हो चुका है। पिछले तीन चार दशकों में इन प्रवृत्तियों को योजनाबद्ध रूप में हिंदू सांप्रदायिकता से लडने के सद्विश्वास से बढावा दिया गया और पुलिस का विभाग भी जिस पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है,इसका अपवाद न रहा। आज ऐसे तत्व बाहर से तो लड़ ही रहे हैं भीतर से भी लड़ रहे हों तो क्या आश्चर्य! हड़बडी में जल्ल तू जलाल तू आई बला को टाल तू जपते हुए, मीडिया की तुष्टि के लिए बड़े पैमाने पर बलि देना, वास्तविक अपराधियों को बचाने जैसा है।