Post – 2017-09-04

यह सच नहीं है, सच के कुछ करीब तो है

लोगों की आदत जितनी भी बिगड़ जाए, जिन्दगी की अपनी विवशताएं कुछ नियमों का पालन करने को बाध्य करती हैं। सड़क के यातायात में तो हम इसे देखते ही है दूसरे काम काज में भी देखते हैं। अंतर यह होता है कि जहाँ नियमों का कठोरता से पालन किया जाता है वहां दुर्घटनाएं कम होती हैं और नियमों से तनिक सी भी विचलन को भांपना और दंडित करना आसान होता है जब कि नियमों के उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ जाने पर प्रयत्न करने के बाद भी सभी को पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिए यह कदाचार का स्रोत बन जाता है और दंड भय तथा दंडित होने वालों की भारी संख्या के बाद भी अनियमितता को काबू कर पाना असाध्य हो जाता है। दुर्घटनाएं अधिक होती हैं और बडे पैमाने पर घटित होती हैं।

इस कड़वी सचाई के बाद भी सड़क निर्माण के समय या उसकी मरम्मत के समय ठीक वे ही सावधानियां बरती जाती हैं जो पहले बरती जाती थीं और उनमें निर्माण या मरम्मत के दौरान किसी दुर्घटना की खबर नहीं मिलती। रेलमार्ग के रखरखाव में भी किसी तरह की ढील नहीं बरती जाती होगी ऐसा मेरा विश्वास है। जो लोग किसी विषय पर बिना जाने समझे आततायी मुखरता ‘पकड़ा पकड़ा’ वाले उत्साह से कूद पड़ते हैं, वे नहीं जानते कि उनके हंगामे से जांच पड़ताल की दिशा किस सीमा तक प्रभावित होती है और कई बार तो सही दिशा में मुड़ ही नहीं पाती।

मुजफ्फरनगर, खतौली, के हादसे में (उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के खतौली में शनिवार शाम पुरी-हरिद्वार उत्कल एक्सप्रेस ट्रेन के 14 डिब्बे पटरी से उतर जाने के कारण कम से कम 23 यात्रियों की मौत हो गई और 60 से ज्यादा लोग जख्मी हो गए. ) जितनी जल्दी में समाचार चैनलों और इंटरनेट मंचों से विभागीय लापरवाही का फैसला कर लिया गया और हताहतों की आत्मा की शांति के लिए नए सिरों की तलाश की जाने लगी वह तो हैरान करने वाला था ही, इस दबाव में जितने आनन फानन में मेंबर इंजीनियरिंग पद तक के बहुत सारे अधिकारियों को दंडित किया गया वह भी मुझे विचित्र लगा, कारण, इससे, आगे की जांच का रास्ता बंद हो गया।

मैं इस प्रतीक्षा में रहा कि कही से कोई सही और विश्वसनीय व्याख्या आएगी। सबसे सुथरा लेख प्रेमपाल शर्मा का था, जो स्वयं रेलवे बोर्ड से संबद्ध उच्चपदस्थ व्यक्ति है और अच्छे लेखक हैं।
इस लेख में कार्य संस्कृति की समस्या को उठाया गया था और इसलिए पिछली पोस्ट में उसकी पड़ताल जरूरी समझी, लेकिन यह भी कुर्सी पर बैठकर समस्या को समझने जैसा लगा।

इजीनियरी के एक दंड भोगी अधिकारी की एनडीटीवी पर चर्चा भी बहुत सतही लगी। इसलिए अपनी जानकारी और अनुभव का हवाला देते हुए मैंने अपनी राय रखने का साहस किया और इसी क्रम में पता चला कि आज के सन्दर्भ में मुझसे अधिक अधिकारी एक मित्र राज कुमार लाल हैं जिसको ट्रेन के पायलट और फोरमैन दोनों कामों का अनुभव है। विश्वास करता हूँ कि मेरे विवरण और निष्कर्ष में कहीं चूक हुई तो वह उसे सुधारने का कष्ट करेंगे।

यह दुखद है कि लोगों को ठिठोली करने का अवसर भी दुर्भाग्य के अवसर पर ही मिलता है। लो और बढ़ाओ रफ़तार, चलाओ बुलेट ट्रेन, ‘काम करने दो प्रभु को और चलने दो प्रभु की कृपा से ट्रेन’ की ध्वनि वाले जुमले तो याद होंगे ही। इसलिए पहले यह जान लें कि किसी भी पटरी पर किसी भी रफ़तार से ट्रेन चलाने का आदेश न कोई दै सकता है, न आदेश दे तो उसका पालन होगा। अलग-अलग गति के मार्ग और पटरियां होती हैं, उनपर चलने वाले इंजन और ड्राइवर या पायलेट होते हैं।

जैसे घुड़सवार का अपना सधा घोडा हौता है उसी तरह हर एक ड्राइवर का अपना इंजन होता है। एक लाइन का इंजन दूसरे पर आपातिक स्थिति में ही जा सकता है और तब भी बहुत अधिक बदलाव न होगा। यह न होगा कि ट्रंक लाइन का पायलट लूप लाइन में भेज दिया गया। संचलन के ये फैसले इंजीनियर नहीं करता। लोकोमोटिव अर्थात इंजन का संचालन पावर नियंत्रक करता है और किस समय कौन सी गाड़ी किस सटेशनसे छूटेगी यह परियात नियंत्रक या ट्रैफिक कंट्रोलर। रेल मार्ग के निर्माण से लेकर पुराने मार्ग का रखरखाव का काम इंजीनियरिंग का है जो पुराने मार्गों के निरीक्षण और मरम्मत के लिए स्टेशनमास्टर माध्यम से ट्रैफिक कंट्रोलर को सूचित करते हुए अपना काम करता है।

ट्रेन पूरी यात्रा में मार्ग के विषय में उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार अलग गतियों से चलती है। जैसे सड़क पर जगह जगह गति सीमा निर्धारित होती है वैसे ही रेल की पटरी और दूसरी बातों के अनुसार speed restriction का पालन करना होता है। 160 किलो मीटर प्रति घंटे का मतलब यह उसकी अधिकतम रफ्तार है। इससे बढी गति से भगाना भी चाहे तो स्पीड गवर्नर उसे रोक देगा। सब कुछ ठीक हो तो वह इस रफ्तार पर चलेगा। व्यवधान कम होते हैं, ट्रेनें अपने नियत समय के अनुसार स्टेशनों पर पहुंचती हैं।

ट्रेन के लेट होने, पीछे की कमी को पूरा करके लिए रफ़्तार बढ़ने या loss make up करने के प्रयत्न होते हैं। इसलिए सोचता हूँ कि गवर्नर सामान्य रफ्तार से कुछ ऊपर होता होगा।

किसी भी तरह की ढील या अनियमितता को गंभीरता से लिया जाता है। बीच बीच में अन्य ट्रेनों के साथ संयोजन के संकेत पॉवर कंट्रोलरों की और से स्टेशन मास्टर के माध्यम से मिलते हैं जिनका भी संचालन पर प्रभाव पड़ता है। रेलवे में गाड़ी के टकराने या पहिया पटरी से उतरने को ही दुर्घटना नहीं माना जाता। इंजिन लाल सिग्नल रहते सिग्नल को भी पार करके दो चार मीटर आगे जाकर रुका तो इसे भी दुर्घटना मान कर दण्डित किया जाता है।

लाइन पर कही कोई काम चल रहा है तो उससे काफी आगे और पीछे लाल झंडी रहती है। लाइन की जांच करने वाली ट्राली चलती तो खाली समय में थी, उसको रनर धक्का देते हुए दौड़ते और जब वह रफ्तार में आ जाती तो उछल कर पीछे बैठ जाते और फिर पटरियों पर कुछ दूर तक दौड़ते हुए धक्का देते। मेरे कार्यकाल में ही परमानेंट वे इंस्पेक्टर की मोटर चालित ट्राली आरंभ हो गई थी पर इस पर भी पहले की तरह लाल झंडी लहराती रहती है।

रात में मरम्मत या इंस्पेक्शन का प्रश्न नही पर क्रासिंग पर लाइन मैं के पास लाल और हरी बत्तियों वाला लैंप होता है। यही बत्ती शंटिंग के समय खलासी के हाथ में रहती है।

यह है वह पृष्ठभूमि जिसमें हमें इस दुर्घटना के संगत पक्षों की विवेचना करनी है। इसे कल तक के लिए स्थगित करना उचित होगा?