न कांक्षे घालमेलनम्
मैं जो गीता पढ़ता था उसमे एक ऐसा श्लोक था जो किसी अन्य प्रकाशन में नहीं मिलता।
कांक्षे वादं च संवाद अपवादम प्रतिवादनम्
कांक्षे च विजयम् कृष्ण न कांक्षे घालमेलनम्।
मुझे जिस बात ने उद्विग्न किया था और मैं भाषा पर अपना सबसे जरूरी काम छोड़ कर इस दलदल में फँस गया था वह थी सांस्कृतिक क्षरण में बौद्धिकों और संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी.
कालिदास के बारे में एक कथा पढ़ी थी! वह जिस डाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे. पंडितो ने उनकी मूर्खता का लाभ उठाया और जिस विद्योत्तमा ने उन्हें पराजित किया था उसे धूर्तता से परास्त कर के विद्योत्तमा का जीवन नष्ट करना चाहा. वास्तविकता जानने के बाद उसके द्वारा किये गए अपमान की चेतना ने विल्वमंगल को कालिदास बना दिया. लेकिन कालिदास और भरत होने का दावा करने वाले विल्वमंगलों की जमात को आत्मबोध कराने का क्या कोई उपाय हो सकता है जो तथ्यों. तिथियों, सन्दर्भों के घालमेल से जो सिद्ध करना चाहते हैं सिद्ध कर देते हैं, जैसे विल्वमंगल और विद्योत्तमा के वाद में धूर्त पंडितों ने किया था. ऊपर से छाती पीटते हैं कि उनके चीत्कार के बाद भी कोई उनकी बात मानता क्यों नहीं. वे भूल जाते हैं कि पांडित्य के आभाव में भी घालमेल की पहचान हो जाती है और एक बार ऐसे लोगों के फरेबी सिद्ध होने के बाद लोग उन पर कम और अपनी समझ पर अधिक भरोसा रखने लगते हैं.
जीतना एक तुच्छ लक्ष्य है. सही होना और सही बने रहने के लिए उत्सर्ग होना एक पवित्र ध्येय है. जिसमे मरना तक प्रेरणादायक हो सकता है, उसमे हारने का जोखिम उठा कर सत्य पर टिके रहना विजय की परिभाषा बदल देता है. मुझे इसे आज न उठाना होता यदि मैं यह न देखता कि कालिदास होने का दावा करनेवाले विल्वमंगलों को यह याद दिलाने की आज भी जरुरत है कि जैसे खेल के नियम होते हैं वैसे ही विचार श्रृंखला के भी अपने नियम होते है. एक खेल में दूसरे के नियम नही मिलाये जा सकते.
हमने अपने अतीत को समझने की जगह उससे नफरत करने को अधिक गर्व का विषय माना. हमने जो सिद्धांत आज से ढाई हज़ार साल पहले निरूपित किये थे उन्हें पश्चिम ने मात्र दो सौ साल पहले भारत से परिचय के बाद जाना, फिर भी हम हेतुवाद या थ्योरी ऑफ़ काजेसन के सन्दर्भ में जॉन मिल को तो याद करके बिछ जायेंगे पर बुद्ध, और उनके माध्यम से भारतीय वैज्ञानिक चिंतनधारा याद न आएगी. आ गई तो भूलना चाहेंगे क्योंकि इससे हमारे पुनरुत्थानवादी सिद्ध होने का खतरा पैदा हो जाएगा. बुद्ध का हेतुवाद जहाँ तक मुझे याद है:
इमस्मिं सति इदं होति.
इमस्स उप्पादे इदं उपज्जति
इमस्मिं नसति इदं न होति
इमस्स निरोधे इदं निरुज्झति
यह हुआ तो यह होगा
यह पैदा हुआ तो यह पैदा होगा
यह न हो तो यह न होगा
इसका निरोध कर दिया जाय तो यह निरुद्ध हो जाएगा
यही दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का अंत है और दुःख के अंत का उपाय है में भी है.
इसे उन्होंने चार आर्यसत्यों या आज कि भाषा में कहें तो वैज्ञानिक स्थापनाओं की संज्ञा दी थी.
इसकी याद इसलिए आ गई कि मेरे एक प्रबुद्ध और भरोसे के मित्र ने निवर्तमान राष्ट्रपति के भाषण में एक ऐसी पंक्ति अपनी और से जोड़ दी जो उनके भाषण में न रही होगी . यह संघ के चरित्र से सम्बंधित है. इसे मैं उस घालमेल का नमूना मानता हूँ जिसके हम इतने आदी हो गए है की यह तक नही समझ पाते कि हम कर क्या रहे हैं और इसका लाभ किसे मिलेगा.
मुझे बुद्ध का सिद्धाँत इसलिए याद आया कि सम्यक समबुद्धि के लिए यह याद दिला सकूँ कि
मुस्लिम लीग की स्थापना १९०६ में हुई थी.
उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जन्म उसके कुकृत्यों के प्रतिवाद और बचाव में हुआ था.
इन दोनों का जन्म अंग्रेजी कूटनीति की सफलता थी क्योंकि मुसलामानों के साथ अब हिन्दू जमीदारों और रजवाड़ों का समर्थक और स्वतंत्रता संग्राम का विरोधी शिविर तैयार हो गया था.
जन्मकुंडली और नाम भले भिन्न हो एक के होने पर दूसरा पैदा होगा.
उसके निरोध पर दूसरा निरुद्ध होगा.
एक को दोष देकर अपने को निर्मल विमल न हमसा कोई गाने से और इस घालमेल से बच कर ही हम अपने समाज को बचा सकते है.