कवि तो हूं नहीं, कभी सोचता था हूं और कविता भी करता था। कविता छोड़ने का कारण यह प्रश्न था कि कवियों के बीच का एक कवि बन कर रह जाने का क्या मतलब? यदि कोई मतलब नहीं तो कविता लिखने का क्या मतलब?
बुरी आदतें आसानी से नहीं जातीं । उनका हैंगओवर भी होता है और छोड़ दो तो कुछ समय बाद निश्चिंतता जन्य असावधानी के क्षणों में हमला भी होता है जिसके लिए अंग्रेजी में विड्राअल सिम्प्टन का प्रयोग होता है पर वह उस आक्रामकता का सही चित्र पेश नहीं कर पाता।
मैंने उसे हावी न होने दिया। हमला होता और मैं उसे कुचल देता। इबारतें बनी बनाई उभरतीं फिर भी पहले दर्ज नहीं करता था। फिर दर्ज यह सोच कर करने लगा कि इसमें उूची कविता करने या सुकवि बनने की झंझट से छुट्टी है और इसके बाद भी मेरे उस सरोकार से गहरा नाता है जिसमें मैं कविता को अपनी निजी नहीं, अपने समाज की जरूरत मानता हूँ।
वह जिस भी स्तर की हो, जो प़ढ सकते हैं और पढ़ने का समय निकाल सकें उनके लिए बोधगम्य और ग्राह्य भी हो और कविमनस्क मित्रो को भी कुछ दूर तक कविता ही लगे। मेरे इन प्रयोगों में मेरी अपनी आपबीती से अधिक अपने समाज की जरुरत को कसौटी बना कर समझें और इनकी कमियां उस आधार पर जांचें।
इस दिशा में अनेक समर्थ कवियों ने प्रयोग किये। इनमे पंत, अपनी बाद की कविताओं के निराला, दिनकर. बच्चन, नागार्जुन, त्रिलोचन, और उनके भी बाद रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और वे कवि भी जो इस समय मुझे याद नहीं आ रहे हैं, मसलन नीरज और मंचों के हास्य कवि। इन्होंने दायरे का विस्तार किया पर कोई ऐसी चूक थी कि वे तुलसी और कबीर के स्तर तक नहीं पहुँच सकें और न यह समझ सके कि दोनों किन स्तरों तक और क्यों पहुँचते हैं। इसी में छिपी है भारतीय काव्यशास्त्र की आधुनिक समस्या, जिसे किसी आलोचक या रचनाकार ने समझा नहीं या समझने की कोशिश तक न की। इसका जवाब मैं कल दूँगा। उसी में मैं क्या तुक भिड़ाता हूँ इसका भी जवाब हो सकता है ।