Post – 2017-07-07

“भई, मान गया तुम्हारा लोहा।” उसने दूर से ही मुझे देख कर दोनों हाथ जोड़ लिए थे, “इतनी बार इतने कोनों से घेरना चाहा, और तुम हर बार बच कर निकल गए।”

मैं सचमुच समझ नहीं पाया कि उसका इशारा किस बात की और था, पूछा किस घेरेबंदी की बात कर रहे हो मैं तो किसी भी समस्या से बचने की जगह उलटे उसकी चीर-फाड़ करते हुए इतना बढ़ा देता हूँ कि कई बार यह समझ में नहीं आता कि इससे बाहर निकलूं भी तो कैसे और तुम बच कर निकलने की बात कर रहे हो। यह कला तो मुझे तुम लोगों से सीखनी है।”

“हम तो अब एक ही कला में पारंगत रह गए हैं। इसे ‘आ बैल मुझे मार कला’ कह सकते हो।

“तुम कहते हो तो ठीक ही कहते होंगे, पर मैं किस मुद्दे से कब बच कर निकला?”

“वही जो गोरक्षकों की गुंडागर्दी का मामला था।

“हमारी दोस्ती के पचास साल तो हो ही गए होंगे।”

“पचपन, बासठ से सत्रह तक पचपन “।

“चलो, तुमने उसमे पांच साल का और इजाफा कर दिया। इतनी पुरानी दोस्ती को मैं तोड़ना नहीं चाहता। अकेला मैं हूँ जो यह जानता है कि इसे कौन करवा रहा था। ऎसी बातें समझ ली जाती हैं पर कही नहीं जातीं। मुहाविरे में तो सिर्फ दीवारों के कान होते हैं, पर सचाई यह है कि हवा के भी कान होते हैं। एक बार तुम्हारा नाम जबान पर आ गया तो पुरे ज़माने में शोर मच जाएगा। तुम आबरू गँवाओगे और मैं एक इतना पुराना दोस्त,जिसके लब इतने शीरीं हैं कि गालिया देता है तो भी बदमजा नहीं होता।”

वह भड़क उठा, आवाज तो ऊँची होनी ही थी, “मैं कराता रहा हूँ यह सब? दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?”

“ऐसी बातें ऊँची आवाज में नहीं की जातीं. लोग मानने लगे हैं की पेड़ पौदों के भी कान होते हैं।
ऊँचा बोलो तो वे सुन भी लेते हैं और तनिक भी हवा चली तो फुसफुसाते भी हैं। मैं जो कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो। उसके बाद तुम जो भी कहोगे मैं चुपचाप सुन लूँगा।”

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या जवाब दे ।

“तुम मेरे साथ टहलते हो, मुझसे बातचीत करते हो तो देखने वालों को यह भरम होगा की तुम्हारी जानकारी अच्छी तो होगी ही। ऊँचा बोलोगे तो वे समझ जायेगे कि तुम्हारा इतिहास ज्ञान गुजरात तक पहुंचता है, उसके अलावा तुम्हे ठीक उससे पहले के गोधरा तक का ज्ञान नहीं, और वर्तमान ज्ञान केवल गोरक्षकों की गुंडा गर्दी तक सिमट कर रह जाता है और किसी चीज का ज्ञान ही नहीं। तुम्हारी बौद्धिक मृत्यु तो इसके साथ ही हो जायेगी, जिसे मैं सहन न कर पाऊँगा। मैं तो जानता हूँ, तुम परले दर्जे के बेवकूफ नहीं हो, दुनिया में तुमसे भी बड़े बेकूफ खोजने पर जरूर मिल जायेंगे, पर दूसरों को कैसे समझाऊंगा, जब वे कहेंगे उन्होंने अपने कानों जो सुना है उसके आधार पर अपनी राय बनाई है।”

वह कुछ बोलने को हुआ तो मैंने बरज दिया, “अब राहत की बात यह है कि आगे से यह गुंडागर्दी बंद हो जाएगी, इसलिए इसको लेकर अधिक चिंतित होने की भी ज़रूरत नहीं।”

उस बदहवासी में भी वह जोर से हंसा, “अब समझ में आया। अब तक जो होता आ रहा था उसमें तुम्हारी भी मिली भगत थी। “

“मैं तुम्हारे मज़ाक को झेल जाऊँगा, पर जब यह उजागर होगा कि गाय के प्रति हिन्दू संवेदनशीलता का दुरूपयोग करते हुए जो कुछ गुंडागर्दी के स्तर पर हो रहा था उसे तुम लोग करा रहे थे तो कहीं मुंह दिखाने लायक रहोगे? खैर, जब मुंह मुहाना बन गया हो तो मुंह दिखने या दिखाने का प्रश्न ही अतिप्रश्न है।”

उसकी समझ में न आया कि मैं कह क्या रहा हूँ । मैंने भी उसे सस्पेंस में रखते हुए कहा, “यह तुम्हे कल समझाऊँगा ।”