वर्णव्यवस्था की मेरी समझ दूसरों से अलग है। उसको किसी चालू चर्चा में दूसरों को समझा नहीं सकता। मोटे तौर पर इसके पीछे आर्थिक शक्तियां रही है और उनके भी पीछे पहल की कमी या उससे वंचित करने की योजना। मैं उन जड़ लोगों में हूं जो सभी उपक्रमों के पीछे अर्थशास्त्र तलाश करते हैं और मानते हैं कि नैतिकता, भावुकता, सम्मान, श्रद्धा और सौन्दर्यशास्त्र का भी अर्थशास्त्र होता है। कुछ मामलों में अर्थतन्त्र का अर्थविस्तार करना जरूरी हो सकता है – वह जो हमारे लिए उपादेय या हानिरहित है। मैं जानता हूं कोमल सोच के लोग इससे असमत होंगे। पर मैं सभी पक्षों पर ध्यान देने के बाद मानता हूँ कि यह सच है।
इसलिए वर्णव्यवस्था की समाप्ति या सामाजिक संबंधों में बदलाव अर्थतन्त्र में बदलाव से बहुत गहराई से जुड़ा है। अर्थतन्त्र में बदलाव लेखक या चिन्तक के वश का काम नहीं। यह सत्ता परिवर्तन से जुड़ा प्रश्न है, इसलिए किसी समस्या को इस भरोसे छोड़ देना कि आर्थिक रूपान्तरण होगा तब सामाजिक रूपान्तरण भी हो जाएगा, इसलिए सारा ध्यान आर्थिक रूपान्तरण या आमूल परिवर्तन पर दो, यह आन्दोलनकारियों के लिए सही हो सकता है, विचारक के लिए नहीं।
वह वर्तमान परिस्थितियों में जो चेतना के रूप में परिवर्तन के माध्यम से संभव है उसके लिए प्रयत्न कर सकता है और जो व्यवस्था से जुड़ा प्रश्न है उसके विषय में जागरूकता पैदा कर सकता है। जागरूकता करने का यह काम, मैं कह आया हूं, स्वयं में एक क्रान्तिकारी काम है। यह भी राजनीतिक सक्रियता का एक रूप है जिसे आन्दोलनों से जुड़े लोग समझ नहीं पाते।
यह भी एक कारण था कि कम्युनिस्ट पार्टियां सामाजिक सवालों को सही परिप्रेक्ष्य में न तो रख सकीं, न उनके लिए कोई ऐसा पहल कर सकीं कि सभी उत्पीड़ितों को अपने साथ जोड़ सकें ।
इसका भी प्रधान कारण कम्युनिस्ट पार्टियों का लीगीकरण रहा है जिसकी कभी गहरी छानबीन नहीं की गई। मेरे इस कथन को सांप्रदायिक रंगत दी जा सकती है, परन्तु इसे समग्र सामाजिक परिदृष्य में देखा जाना चाहिए। कम्युनिस्ट विचारधारा से या कहे रूसी क्रान्ति से सर्वप्रथम आकर्षित होने वाले पाश्चात्य शिक्षाप्राप्त, कहें इंग्लैंड में शिक्षाप्राप्त और वहां के वामचिन्तन से प्रभावित अभिजात भारतीय थे। परन्तु इनकी साझी समझ यह थी कि अहिंसक तरीके अपना कर स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की जा सकती और पाई भी गई तो सत्ता एक सामन्ती सोच के लोगों के हाथ में आएगी जिससे सत्ता परिवर्तन तो होगा, परन्तु सामाजिक और आर्थिक विषमता बनी रहेगी।
उन्होंने जनता से जुड़ने, उसके बीच अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का, उनकी क्षमताओं और मनोबाधाओं को समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया। ये महत्वाकांक्षी कामचोर लोग थे तो अपराधियों की तरह खतरे उठा कर एक झटके सबकुछ हासिल कर लेना चाहते थे। इन्होने कल कारखानों के मजदूरों के साथ भी एकजुट हो कर उनके बीच अपने विचारों का प्रचार करने और उन्हें अपने से जोड़ने का काम नहीं किया। ये सभी एक्टर थे। अधिक की जानकारी नहीं पर बकौल श्रीकान्त व्यास जो अमृतराय के साथ कभी जुड़े रहे थे, अमृत रॉय मजदूर सभाओं के लिए इस फटा, कुछ मैला कुरता पजामा अलग रखते और उन्हीं मौकों पर पहनते थे. यही हाल दूसए कम्युनिस्टोपन की भी थी. कम्युनिस्ट पार्टी को आरम्भ में ही बहुरूपियों की पार्टी बना दिया गया क्योंकि उसने एक ऐसी भूमिका अपना ली थी जिसे वः जी नहीं सकती थी, दिखाने और दिखने के प्रबंध कर सकती थी. साहित्य और कला इस पाखण्ड का ड्रेसिंग रूम था और एक्टर के सामने जो हैसियत ड्रेस मेकर की होती है साहित्य और सहित्यकार की वही हैसियत व्यावहारिक राजनीतिज्ञों के सामने हो गई। यह तो होना ही था, इसपर आश्चर्य नहीं। आश्चर्य यह कि लेखक और कलाम=कार को इस भूमिका को स्वीकार कर लिया और इसपर इतराने लगा.
असंतोष पैदा करके उनको कुछ अधिक सुविधाएं दिलाने के एकमात्र आष्वासन के बल पर उनको नारेवाजी और लफ्फाजी से जोड़ने के लिए प्रयत्नषील रहे इसलिए आर्थिक सवालों से आगे, सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं को सीधे अपने कार्यभार में शामिल ही नहीं कर सके। शेष भारत के लिए वे कांग्रेस और खास तौर से गांधी के द्वारा पैदा की गई जागरूकता को झपटने के प्रयत्न में रहे।
जब मैं इसकी लीगी मानसिकता की बात करता हूं तो इसलिए कि लगभग सभी मुसलमानों को लोकतन्त्र डरावना लगता रहा है। इसका एक कारण तो इस्लाम की अपनी मानसिकता है जो खलीफा, राजा या तानाषाह को पसन्द करती है लोकतन्त्र को मुस्लिम बहुल देषों में भी सहन करती है। भारत में जहां सामाजिक समीकरण भिन्न था वहां यह उन्हें लोकतन्त्र नहीं, बहुमतवाद मेजारिटिज्म प्रतीत होता रहा है, और इसके पीछे उनकी अल्मतवादी चेतना रही है जिस पर हावी होने के जाहिर और छिपे तरीके वे अपनाते रहे हैं। मुस्लिम बुद्धिजीतियों को इससे मुक्त होने के दो ही तरीके दिखाई देते रहे हैं। एक अभिजनवाद या आलीगैर्की, दूसरा तानाषाही। कम्युनिज्म उन्हें इसलिए आकर्षित कर रहा था कि सामाजिक और आर्थिक न्याय में उनकी कोई दिलचस्पी थी, अपितु यही लोकतांत्रिक व्यवस्था से जो उनके अल्पमत में होने के कारण मुस्लिम समाज के लिए खतरनाक विकल्प प्रतीत होता था। इसकी सबसे बेलौस अभिव्यक्ति इकबाल की पंक्ति – न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालो, और हिन्दोस्तां वालों से उनका तात्पर्य हिन्दुस्तान के मुसलमानो से ही है। इसी की परिणति और अन्तिम उपाय था देष का विभाजन जिसका उन्होंने और उनके दबाव में पूरी पार्टी ने स्वीकारा और इसके पक्ष में जनमत तैयार करने में अपनी भूमिका निभाई।
इतिहास को दोषारोपण के लिए नहीं पढ़ा जाता। ऐसे लोग इतिहास से कलह अपने समय के लिए जुटा लेते है और इसके बाद किसी दूसरी चीज की उन्हें जरूरत ही नहीं होती। परन्तु इतिहास से कुछ भी न सीखने और अपने को न बदलने के लिए कटिबद्ध लोग वर्तमान के लिए उससे भी बड़े कंटक हैं जितना इतिहास से कलह जुटाने वाला। वह इतिहास से कलह नहीं जुटाता, अपितु वर्तमान के कलहों को देख कर इतिहास की पड़ताल करने को विवष होता है और उसे जो कुछ मिलता है उसे वह पेष करता है तो सदाषयी लोगों को उपद्रवी प्रतीत होता है। इतिहास का अध्ययन वर्तमान से कट कर किया ही नहीं जा सकता। इतिहास में हम क्या तलाषते हैं वह भी वर्तमान से ही निर्धारित होता है और इसी अर्थ में इतिहास का अध्ययन वर्तमान का गहन पाठ होता है । दुर्भाग्य है कि न तो मुसलमानों ने इतिहास से कुछ सीखा, वे जीरो टाइम या हिज्रत को अपना वर्तमान और कुरान को समस्त ज्ञान का सार मानते रहे और आगे की षिक्षा का उपयोग उसे सही सिद्ध करने के लिए करते रहे, वैसा ही कुछ कम्युनिस्टों के साथ हुआ। वे देषविभाजन के ही अपराधी नहीं हैं, लगातार देष को उन स्तरों पर खंडित करने के भी अपराधी है जिसमें इसकी योजना बनाने वाले अंग्रेजों को भी सफलता नहीं मिली, यद्यपि बीज, खाद, पानी और विद्या सब कुछ उन्होंने अंग्रेजों से ही लिया और आज तक औपनिवेषिक और मिषनरी षक्तियों के भरोसे ही अपनी साख बनाए हुए हैं।