Post – 2017-03-25

This post was inadvertently deleted by me although it is crucial and attracted the attention of friends as well. I post it again. those who have read it may ignore it or simply mark like.
देववाणी
देववाणी को सामान्यतः संस्कृत का पर्याय मान लिया जाता है और इसकी मनोरंजक व्याख्याएं की जाती हैं। इनमें से एक यह कि संस्कृत भाषा में स्तुतियाँ हैं इसलिए इसका यह नाम पड़ा। एक कल्पना यह भी हो सकती है कि यह सृष्टि के पहले से विद्यमान है, परम पुरुष ने वेदों के ज्ञान के बल पर ही सृष्टि की अतः इसका यह नाम पड़ा। इस के आधार पर भाषाविज्ञानी एमेनो (म्उमदमंन) ने आर्यों के भारत पर आक्रमण का साबुत भी तैयार कर लिया। इसे उनके ही शब्दों में पढ़ेंः
There seems to be no reason to distrust the arguments for it, in spite of the traditional Hindu ignorance of any such invasion, their doctrine that Sanskrit is the language of gods, and the somewhat chauvinistic clinging to the old tradition even to day by some Indian scholars. Sanskrit, “the language of the gods,” I shall therefore assume to have been a language brought from the Near East or the western world by the nomadic bands.
इस तरह के अर्थ करने वाले सभी लोग प्राचीन साहित्य के पंडित रहे हैं। उन्होंने उन कृतियों को भी पढ़ा होगा जिनमे इन बातों का बहुत निर्णायक स्वर में उल्लेख है किः
1. कृषि का आरम्भ देवों ने किया (अन्नं वै कृषिः, एतद्वै देवाः संस्करिष्यन्तः, षतपथ ब्रा.7.2.2.7 )।
2. (इन्द्रः आसीत् सीरपतिः षतक्रतु, कीनाषः आसन् मरुतः सुदादव, तंः आसन् मरुतः सुदादव, तैैैत्तिरीय, 2.4.8.7) असुर उनके उपजाए धान्यों को नोचते, चुराते रहे(ये वनेषु मलिम्लवरू स्तेनास्तस्करा वनेः …()
2. देव और असुर इसी लोक में थे (देवा वा असुर अस्मिन्नेव लोकेषु आसन्)
3. देव संख्या में कम थे असुर बहुत अधिक थे (कनियसा इव हि देवा ज्यायसो असुराः, षतपथ ब्रा. 14.4.1.1)
4. ये दोनों एक ही प्रजापति की संतानें थे, (देवाश्च असुराश्च उभये प्रजापत्याः, षतपथ ब्रा. 1.2.4.8; 1.2.5.1 )।
5. दोनों के बीच घोर प्रतिस्पर्धा थी, वह स्पर्धा इसी धरती पर चलती रही (देवाश्च असुराश्च अस्मिन् लोके आसन्, काठक सं., 11.4.9; देवासुरा वा एषु लोकेषु समयतन्त, ऐतरेय, 22.6 )।
6. देव पहले आदमी थे (मत्र्या ह वा अग्रे देवा आसुः, षतपथ ब्रा. 11.2.3.6)।
7. देवों ने असुरों को पराजित कर दिया। उन्हें यह विजय शस्त्र के बल पर नहीं मिली , अपितु शाकमेध (कृषिकर्म) से मिली ।
8. बहुत पहले देव और मनुष्य साथ साथ रहते थे (उभये ह वा इदमग्रे सहासुर्देवाष्च मनुष्याष्च, षतपथ ब्रा. 6.8.1.4)।
9. जो पहले पैदा हुए वे देव थे; जो बाद में पैदा हुए वे मनुष्य कहे गए (प्राचीनजनना वै देवाः प्रतीचीन जनना मनुष्याः, षतपथ ब्रा. 7.4.2.40)।
8. बाद में देव कृषि उत्पाद पर अपना अधिकार कायम रखते हुए कृषि के श्रमभार से मुक्त हो गए। कारण यह लगता है की असुरों में से कुछ ने किन्ही विवशताओं में स्वयम भी खेती में काम करने का चुनाव किया। जिस क्षुधा निवारण के लिए देवोँ ने खेती आरम्भ की थी वह असुरों में प्रविष्ट हो गई (क्षुधं प्राहिण्वन् तां देवाः प्रतिश्रुत्यैः ओदनमपचन त्सा देवेषु लोकमवित्ता पुनरसुरान् प्राविशत, ततो देवाभवन…)
9. पहले जो काम वे करते थे अब मनुष्य करते हैं। (यथा देवानां चरणं तद्वा अनु मनुष्याणाम्, 1.3.1.1)उन्होंने जो जो जिस तरह किया था उसी तरह मनुष्य करने लगे। (देव विषाम वै कल्पमानाम मनुष्य विशाम अनुकल्पते) ।
10. इसमें बहुत लंबा समय लगा। युगों का अंतर है । देवयुग के बाद मनुष्य का युग आया। मनुष्य युग देवयुग से अधिक प्रबुद्ध था (विप्रासो मानुषा युगा ),
11. जिन्होंने पहल की अर्थात जो पहले पैदा हुए वे देव थे और जिन्होंने उनके अनुकरण में कृषि को अपनाया, अर्थात जो जो बाद में आये वे मनुष्य हैं।(देवाश्च वा असुराश्च समवदेव यज्ञ अकुर्वत यदेव देवा अकुर्वत तदेव असुर अकुर्वत)।
12. देव युग में बकरा और गधा ही पालतू बनाये जा सके थे, मानव युग में गोपालन आरम्भ हुआ इसलिए देव जिस घृत का सेवन करते थे वह अजा से प्राप्त होता था और आज्य था मानव गव्य का प्रयोग करते हैं /आज्यं देवानां सुरभिः, ऐतरेय ब्रा. 1.3/; एतद्वै जुष्टं देवानां यदाज्यम्, षतपथ ब्रा. 1.7.2.10।
13. परन्तु वास्तविक स्वामी देव हैं इसलिए देवों का हिस्सा उनके पास पहुंचा देने के बाद ही मनुष्य कृषि उत्पाद का सेवन कर सकता है।
14. देवयुग सतयुग अर्थात आहार अन्वेषण और आखेट की अवस्था से आगे था परंतु मानुष युग से पीछे था। इसका भूमि को जोतने या खंरोच लगाने का औजार अर या अल जिससे आर्य और आरी और अरि तीनो शब्द निकले है एक नुकीला डण्डा था। फिर यह तलवार नुमा डण्डे में बदला जिसे स्फ्य की संज्ञा दी गई और लगता है उनकी अंतिम पहुँच सींग तक हो पाई थी (विषाणया भूमिं उपहन्ति उपकृषे )।
हम यह निवेदन करना चाहते हैं की अपने विकास के स्तर के अनुरूप ही रानटी या जंगली तो नहीं परन्तु उससे कुछ ही आगे बढ़ी देववाणी थी जिसका विकास कई चरणों के बाद संस्कृत में हुआ। भाषा और समाज का परस्पर और अपने इतिहास से क्या रिश्ता है इसे समझने में इससे कुछ मदद मिल सके तो मेरा लिखना सार्थक है।
देववाणी के लक्षणों को भोजपुरी में लक्ष्य किया जा सकता है और इस थाती को संजोने का एक परिणाम भौजपुरी का अन्य जनभाषाओं की तुलना में पिछड़ापन भी हो सकता है परंतु इस कारण ही इसकी रक्षा किसी अन्य भाषा कई तुलना में अधिक जरूरी है। संस्कृत से नहीं भोजपुरी से समझा जा सकता है देववाणी का चरित्र।