Post – 2017-01-11

ज्ञान की सिद्धावस्‍था

(यह आज की पोस्‍ट नहीं है। अक्‍तूबर के एक पोस्‍ट का अंश है। कर्णसिंह चौहान की वाल पर कल विचारधारा के उपयोग और उसे फेंक कर किनारे करने का एक विवाद पढ़ा था और आज अपनी पुस्‍तक के पांचवां खंड की प्रेस कापी बनाने समय इन पंक्तियों से गुजरा तो लगा इस प्रसंग में इसकी याद दिलाना उचित हो सकता है। )

”कम्युनिस्ट होने के साथ ही व्यक्ति उसी सिद्धावस्था में पहुंच जाता है जिसमें अति अनुशासित संगठन पहुंच जातें हैं। जिसमें मजहबी लोग होते और जिसमें उस मजहब को अपनाने वाले, उसे अपनाने के साथ पहुंच जाते हैं।

”एक मजेदार घटना याद आ गई । आज से पचीस साल पहले की बात है। शायर का नाम याद नहीं, शायरी भी कुछ खास नहीं, लेकिन उसकी एक नज्म की टेक थी, ‘बदलेगा जमाना लाख मगर, कुरआन न बदला जाएगा।’ और इस पर श्रोता लहालोट हुए जा रहे थे। लोग जोश में थे और मुझे हंसी आ रही थी। कारण तीन थे। पहले तो उस महाशय को यह पता नहीं था कि कुरआन के भी कई संस्करण मिलते हैं जिनमें कुछ अंतर है इसलिए सभी प्राचीन कृतियों की तरह कुरान में भी कुछ फेेर बदल हुआ है। दूसरे उसे यह नहीं मालूम कि कुरआन ही नहीं, दूसरे ग्रन्थ भी यथातथ्य ही रखे जाते हैं और रहते हैं। उसमें कोई दूसरा बदलाव नहीं करता। इस मानी में कुरआन को जानबूझ कर बदलने वाला या उसके पाठ से छेड़छाड करने वाला या तो मूर्ख होगा या पागल और नहीं तो उसका अन्तःपाठ करते हुए उसका आलोचनात्मक संस्करण तैयार करने वाला कोई बुद्धिमान।

”प्रत्येक लिखित या मुद्रित पाठ की अपनी पवित्रता होती है। उसका धर्मग्रन्थ होना जरूरी नहीं। हंसी इस बात पर खास तौर से आ रही थी वह कुरानषरीफ के प्रति लोकश्रद्धा का इस्तेमाल करते हुए कह रहा था कि हम अपने समाज में कोई प्रगति, कोई परिवर्तन आने नहीं देंगे। जो ऐसा करेगा उससे निबट लेंगे। समय गुजरता जाय, कुरआन जिस काल और परिस्थितियों में लिखा गया था, वे बदल जाएं, परन्तु हम उसी काल में पड़े रहेगे, आगे बढ़ेंगे नहीं, न अपने को बदलेंगे, न किसी दूसरे को बदलने देंगे। इबारत कुछ कह रही थी, इशारत कुछ, अदा कुछ । इसका पाठ बनता था, ‘बदलेगा जमाना लाख मगर मुसलमान न खुद को बदलेगा।’

”डार्विन के अनुसार जो बदले हुए समय, चुनौतियों या परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदल नहीं पाता वह अनफिट हो जाता है, बचा नहीं रह पाता। हंसी इस बात पर आ रही थी कि इतनी नासमझी की बात पर इतने सारे लोग झूम रहे है। कविता का अर्थ शब्दों में नहीं, उनके विपर्यय में भी होता है और युगसन्दर्भ में भी। यह बहुवर्तिता ही कविता को अगाध बनाती है। इनके संदर्भ में उन्हीं उक्तियों के नये अर्थ खुलते जाते हैं और नई व्याख्यायें होती जाती हैं।

”अब यदि कोई पूछें कि भई, तुम्हें इस कविता पर तीन कारणों से हंसी आ रही थी तो क्या, तीनों के लिए तुमने तीन बार हंस कर दिखाया? तो कहूंगा कि हंसी की कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि हंसने चलो तो रोना आता है। पर मैं हंसना तो दूर रो भी न सका था, क्योंकि रोता भी तो किसी पर असर तो होने वाला न था।

”यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि तुम उसी सिद्धावस्था को पहुंच चुके हो जिसमें न कुछ ऐसा नया जानना रह जाता है जो तुम्हारे माने से अनमेल पड़े, न सोचना रह जाता है, इस डर से कि सोचना फंडामेंटल से अलग जाना है, रिविजनिज्म है और ऐसों को अपमानित करके निकाल दिया जाता है कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। यह व्यक्ति, विचारधारा और संस्था के एक जीवन्त सत्ता से फॉसिल, जीवाश्‍म में बदलने का सूचक है।

”इसके फलस्वरूप पचास साल से ऐसे लोग जो कुछ दुहराते जा रहे हैं और यह तक नहीं देख पाते कि इस बीच बहुत कुछ बदला है, कि देश काल भेद से कोई भी परिघटना, उसकी नकल करो तो भी वही नहीं रह जाती, वह उतनी ही दृढ़ता से ऐसे संगठनों, संस्थाओं और विचारधाराओं के षिखर पर बने हुए हैं।

”मैं सिद्धावस्था से डरता हूं इसलिए यह बोध मुझमें बचा रह गया है कि सचाई तो स्थान, काल के साथ, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है, इसलिए एक ही काल में कोई एक मूल्यांककन सभी पर घटित नहीं होगाा। चिन्ता केवल यह कि, पचास साल तक सर्वसन्दर्भ निरपेक्ष भाव से एक ही मुहावरा दुहराने वाले अश्‍मीभूत विचारों के लोगों से संवाद कैसे स्थापित हो?

एक ही रास्ता है, तर्क, प्रमाण, और औचित्य का। उसका वे ध्यान नहीं रखते। गालियों को तर्क बना लेते हैं।

अभी कल की पोस्ट पर किसी ने कहा, ‘मोदी पुराण।‘ कुछ कह सकते हैं, ‘मोदी भक्त।’ तुम कहना चाहो तो कह सकते हो मैं मोदी का वकील हूं। मैं मान लूंगा । मैं तो उस आदमी को जिसे तुम गालियां देते रहे हो इतिहास पुरुष मानता हूं, जरूरत पड़ेे तो अतिरंजना भी कर सकता हूं। उनके खिलाफ जहर उगलने वालों सेे मोदी के वकील की जिरह का जवाब क्यों नहीं देते बनता। चोर चोर चिल्ला कर, लोगों की भीड जुटा कर, खुद ही उसे फांसी देने का प्रयास करने वालों को, बचाव पक्ष का जवाब तो देना चाहिए। यह संगसार कब तक चलेगा और संगसार करते हुए भी अपने को तर्कवादी कहने की निर्लज्जता कब तक जारी रहेगा। यह बताने का साहस आज तक कोई जुटा नहीं पाया और किसी कोने से किसी के बयान को मोदी का बयान सिद्ध करकेे उसे फांसी पर चढ़ाने का फन्दा लिए ऐसे कमअक्ल भी घूम रहे हैं कि कोई पूछे कि ये है तो बता भी न सकें।