Post – 2017-01-08

हिन्दुत्व से घृणा का इतिहास – 6

सिन्ताश्‍ता और अन्द्रानोवो में जा कर बसने वाले यदि भारत से वहां पहुंच तो इसका कारण क्या था और क्या वे वहां पहुंचते ही उस पूरे क्षेत्र में फैल गए ?

पशुधन के मामले में गुजरात उस समय से ही बहुत आगे रहा है जब हड़प्पा संस्कृति के संपर्क में वह आया नहीं था। इस बात का दावा अनेक पुरातत्वविदों ने किया है और किसी ने उस तन्त्र को सही सही नहीं समझा है। पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रान्त में बोलन दर्रे के नीचे बोलन नदी के निकट 7000 ईस्वीपूर्व अर्थात् आज से 9000 साल पुराना मेह्रगढ़ नाम का स्थल है जो लगभग छह हजार साल तक बसा रहा और फिर उजड़ा जिस भी कारण से इसके तत्व नवसारो ( नया शरणस्थल या नया बास ?) में दिखाई देते हैं।

मेह्रगढ़ में सात हजार साल पहले से ही खेती हो रही थी, शिल्प और उद्योग भी जारी था, परन्तु इसमें पशु आधारित खेती साढ़े चार हजार साल ईपू आरंभ हुई हो सकती है। यहां गोपालन इस समय ही आरंभ हुआ। संभवतः गोपालन का यह सबसे पुराना नमूना है।

हड़प्पा की मुहरों पर जिस सांड़ का और मुद्रण पाया जाता है उसे आज भी गुजरात में देखा जा सकता है । गुजरात और सौराष्ट्र और सिंध को आज की भौगोलिक सीमाओं में रख कर देखना सही न होगा।

हमारे साहित्य में समुद्र मंथन से जिन रत्नों की प्राप्ति होती है उनमें लगभग सभी उसी के माध्यम से प्राप्त हुए, हां, उस दशा में चन्द्रमा को सोम या सोमलता मानना होगा। यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि खिरसर (क्षीर सागर ) उस पुराणकथा के ऐतिहासिक पक्ष काे प्रमाणित करने के लिए बचा रह गया है। वृष्णि नाम और उससे गो प्रजाति के मामले में गुजरात की ख्याति, गुजराती गाय के रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और उससे पूर्व तक रही है। इसे जमुनापारी गाय के रूप में भी जाना जाता था।

कहें हड़प्पा काल से बहुत पहले से गुजरात और सौराष्ट्र पशुपालन में अग्रणी ही नहीं रहे, पशु आधारित खेती आरंभ होने के बाद पशु व्यापार में भी तत्पर रहे हैं। जिस यदुकुल की ख्याति ब्रज से जुड़ कर द्वारका तक पहुंचती है, उसका आधिकारिक ज्ञान हमें नहीं है, पौराणिक ज्ञान कुछ छानबीन हो तभी ऐतिहासिक बन पाएगा।

ऋग्वेद में जिस अश्‍व की चर्चा गो प्रजाति के साथ साथ आती है, उसकी उत्पत्ति भी समुद्र से बताई जाती है और इसके व्यापार में अग्रणी भूमिका सिन्धियों या सैंधवों की थी। सैंधव सिन्धु का अपत्यार्थक पद है जिसका अर्थ है सिन्धप्रदेश्‍ा जात या उससे संबन्धित। अब आप चाहें तो सिन्तास्ता के सिंदोई जनो को उनकी पुरानी संज्ञा सैंधव से पहचान सकते हैं। हिन्दू का प्राचीनतम रूप सैन्धव और ईरानी प्रतिरूप हैन्दव हुआ।

सैन्धव जन अश्‍व व्यापार पर लगभग एकाधिकार रखते थे इसलिए भारत के भीतरी भागों के लोगों को लगता था कि घोड़ा भी सिन्ध में ही पैदा होता है जब कि आज की भौगालिक समझ के अनुसार यह सौराष्ट्र के तटीय और द्वीपीय क्षेत्र का नैसर्गिक जानवर था, परन्तु उस समय यह पूरा तटीय और सिन्धु नद का सेच- क्षेत्र भी सिंधु ही माना जाता रहा होगा । सैंधव का तीसरा अर्थ है खनिज लवण या सेंधा/ सैंधव नमक। यह शंभर/सांभर या जल से पैदा किए जाने वाले नमक से अलग था और अधिक संभावना यह है कि इस अर्थ में ऋग्वेदिक काल में सैन्धव का प्रयोग न होता रहा हो।

गो पालन करने वाले अन्धक जिनके आगे वृष्णि देख कर आप वृष या वृषभ पालक का अनुमान कर सकते हैं और इससे उनके आत्‍मगौरव और गर्व का भी अनुमान कर सकते हैं ! ध्‍यान रहे कि धुरन्‍धर शब्‍द असाधारण पराक्रमी योद्धा के लिए जिस की तुलना में प्रयोग में लाया जाता है वह वही ककुद्मान या ऊंचे टीले वाले सांड या बैल का प्रतीक है जिसे गड़ी के सबसे आगे एक पट्टा लगा कर बांधा जाता था। गाड़ी खीचते आजूूू बाजू के बैल थे, यह आराम से चलता रहता था परन्‍तु यदि गाड़ी कोेे तीखी चढ़ाई करनी होती या गाड़ी बालू या कीचड़ में फंस जाती तो इसके जाेर लगाने और दूसरे बैलों के योग से यह संकट से बाहर आ जाती। इ‍सलिए मेरी माने तो यह धुरन्‍धर ध्रुवन्‍धर का रूपान्‍तर है। यहां धुर पहिये की धुरी नहीं है, वह धुरा या तिकोना निकला हुआ पट्टा है जिसे झींटी या ककुद्मान वृषभ्‍ा धारण करता है और संकट से पार लगाता है। इस वृष सेे जुड़े शौर्य के आधार पर वृष्णि जनों का गर्व था और किसी भ्‍ाी पक्ष से उनके सहयोग की निर्णायक भूमिका को इसी से समझा जा सकता है।

कृष्ण अंधक वृष्णि कुल के थे, यादव थे, ऋग्वेद में एक स्थल पर याद्वानां पशुः का प्रयोग है जो भी इनके पशुपालक होने का संकेत देता है। समुद्र से प्राप्त यह अश्‍व आज भी सौराष्ट्र के निकटस्थ द्वीपों में जंगली गधे के रूप में पाया जाता है और इसी की आपूर्ति सिन्धी लोग वैदिक ग्राहकों को किया करते थे इसलिए पुराने लोग अश्‍व का प्रयोग अश्‍व प्रजाति या घोड़े और गधे दोनों के लिए किया करते थे। इसका विस्तार से विवेचन मैंने अपनी पुस्तकों में किया है अतः उसे दुहराने की आवश्‍यकता नहीं, फिर भी यह याद दिला दें कि अश्विनीकुमारों का एक नाम गर्दभीविपीत या गधी का दूख पीकर पले बढ़े प्राणी बताया गया है और वे भी गर्दभ रथ ही हांकते थे – गर्दभ रथेन अश्विना उदजयताम् !

हड़प्पा सभ्यता के विविध स्थलों से जिस गधे की अस्थियां प्रचुरता से मिली हैं, वे इन्हीं गधों या वनगर्दभों की लगती हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि घोड़ा भारत में पाया ही न जाता था, या पालतू ही न बनाया गया था, बल्कि यह कि भारतीय घोड़े की प्रजाति जिसे हम अपने टट्टुओं का पूर्वज कह सकते हैं और जिसकी पहचान सूरकोटडा से मिली अस्थियों से भी होती है, इन बनैले गधों से कमजोर थे। ओनेगर, या वनगर्दभ, को दौड़ते देख कर ही उनकी ओजस्विता को समझा जा सकता था। संभवतः यही कारण था कि गधे और घोड़े के संकरण से जो खच्चर पैदा होते थे उन्हें भारवहन क्षमता में गधों और घोड़ों से भी अच्छा माना जाता था और इसलिए उनकी संज्ञा अश्‍वतर थी। यह मात्र मेरा अनुमान है, आधिकारिक दावा नहीं। कारण कोई दूसरा इसका अर्थ अश्‍व से इतर या उससे हीन भी कर सकता है।

अंधक जन आर्यभाषी नहीं रहे लगते और यह बात कुछ दूर तक सैंधव जनों पर भी लागू हो सकती है। कारण, पहले वैदिक सभ्यता सारस्वत क्षेत्र तक सीमित थी और सरस्वती के पटाव और तज्जन्य विनाषकारी बाढ़ों से उत्पन्न समस्याओं के कारण वैदिक जनों को सिन्धु के तट पर आना और इसमें बाढ़ से बचाव के लिए ऊंचे पटाव या प्लिंथ तैयार करके सुनियोजित रूप में नगर बसाए गए। यह टेढ़ा मामला है, इसे सीधे समझे तो पहले सिन्ध और इसके निवासियों को भी वैदिक संभ्रान्त वर्ग नीची नजर से ही देखता था। संभव है ये दोनों पषुपालक समुदाय कुछ उपद्रवी भी रहे हों। ऋग्वेद में एक स्थल पर सरस्वती से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारे प्रकोप के कारण हमें अरण्य या अप्रिय क्षेत्रों में न जाना पड़े पडे़ जो एक साथ तीन बातों की ओर संकेत करता है। पहला यह कि इस समय तक लोगों ने सारस्वत क्षेत्र से सिन्धु तट की ओर खिसकना आरंभ कर दिया था, दूसरा यह कि सिन्ध, यहां तक कि पष्चिमी पंजाब, तटीय क्षेत्र और गुजरात और सौराष्ट से सारस्वत जन परिचित तो थे परन्तु अपनी अग्रता के कारण इनको कुछ ओछी नजर से देखते थे इसलिए यह खुमार बाद में जब वैदिक सभ्यता का प्रसार अफगानिस्तान तक हो चुका था, आर्यावर्त से इन क्षेत्रों को हेय ही नहीं समझा जाता था अपितु उन्हें इतना अपवित्र माना जाता था कि वहां जाने और उनके संपर्क में रहने के बाद संस्कारित मनुष्य दूषित हो जाता है और वहां से लौटने के बाद उसे आत्मषुद्धि करनी चाहिए- सिन्धु सौवीर सौराष्ट तथा प्रत्यन्त वासिनः, अंग, वंग, कलिंगान्ध्रान गत्वा संस्कारमर्हते !
अब हम एक विचित्र उलझन में फंस गए हैं। हम तो स्वयं सैंधव जनों या हिन्दुओं से और साथ ही अपने उन प्रदेशो को तुच्छ, हीन और वहां के लोगों को भ्रष्‍ट और तुच्‍छ मानते रहे, हम किसी शब्द या उससे जुड़े मनोबन्धों की अभिव्यक्ति से कैसे शिकायत कर सकते हैं।

हिन्दू आज गैर ईसाई, गैर मुस्लिम भारतीयों के लिए प्रयोग में आता है और उससे भी कुछ समुदाय अपने को अल्पसंख्यकता का लाभ पाने के लिए अलग करने का प्रयत्न करते रहे हैं, तो हमें हिन्दू शब्द और इसके प्रति दूसरों की निजी धारणाओं को लेकर शिकायत होती है, परन्तु हमें यह समझना होगा कि हम जिन्हें तुच्‍छ समझते हैं वे भी हमसे घृणा करते हैं और इसके बीजों का उच्छेदन आसान नहीं है।

जब तक हम दूसरों को असंख्य कारणों से तुच्‍छ समझते हैं तक तक यह पता ही नहीं चलता कि हम कुछ गलत कर रहे हैं। एक मोटी समझ होती है कि उनकी जीवनशैली, मूल्यप्रणाली, उनकी भौतिक स्थिति या श्‍ुाचिता का अभाव हमें ऐसा करने को बाध्य करता है, हम इसे उलट कर देखने का प्रयत्न नहीं करते।

परन्तु आप यह न समझें कि मैं अपने समाधान से प्रसन्न हूं। इसके कुछ पेंच और खम ऐसे हैं जिनको हमारी बहस में स्थान ही नहीं मिला। दूसरे, हम यह नहीं समझा सके कि जिसे कुछ पुरातत्वविदों ने गुजरात के अपनिवेशीकरण के रूप में पेश किया है वह यदि ऋग्वेद से उसी तरह परिचित होते जिस तरह मैं एक इतिहासकार से परिचित होने की अपेक्षा करता हूं तो या तो वे सिन्ध के भी उपनिवेशीकरण की बात उसके साथ ही करते या दोनों के लिए उपनिवेशीकरण की जगह शरणागतभाव का प्रयोग करते और उससे हम उस अहंकार पर भी विजय पाते जिससे मालिक और सेवक का संबंध पैदा होता है, विजेता और विजित के संबंध बनते हैं, जिसकी परिणति व्यक्त उपेक्षा और दबी घृणा में होती है।

मैंने कल सोचा था अगली पोस्ट में सिन्तास्ता तक तो पहुंच ही जाएंगेा आरंभ भ्‍ी यह सोच कर ही किया था, पर अभी तो सारस्वत से निकल कर सैन्धव प्रदेश और सौराष्ट्र में ही उलझ कर रह गए! फिर भी अपने द्वारा दूसरों की उपेक्षा और तिरस्कार और उनके द्वारा हमारे अनुकरण और उसके बावजूद हमसे दबी घृणा के मनोविज्ञान को तो समझ ही सकते हैं और समझ सकते हैं अपने उस इतिहास को जिसको इतना तोड़ मरोड़ दिया गया कि हम अपने आप को पहचानने की क्षमता खो बैठे और कुछ लोग अपने आप से घृणा करने को गौरव की बात मानने लगे!